अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 130/ मन्त्र 16
सूक्त -
देवता - प्रजापतिः
छन्दः - प्राजापत्या गायत्री
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
इरा॑वेदु॒मयं॑ दत ॥
स्वर सहित पद पाठइरा॑वेदुमयम् । द॒त ॥१३०.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
इरावेदुमयं दत ॥
स्वर रहित पद पाठइरावेदुमयम् । दत ॥१३०.१६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 130; मन्त्र » 16
विषय - मनुष्य के लिये पुरुषार्थ का उपदेश।
पदार्थ -
(इरावेदुमयम्) भूमि के ज्ञानवाला व्यवहार [उस को] (दत) तुम दो ॥१६॥
भावार्थ - विद्वान् लोग गुणवती स्त्री के सन्तानों को उत्तम शिक्षा देकर महान् विद्वान् और उद्योगी बनावें। ऐसा न करने से बालक निर्गुणी और पीड़ादायक होकर कुत्ते के समान अपमान पाते हैं ॥१-२०॥
टिप्पणी -
१६−(इरावेदुमयम्) ऋज्रेन्द्राग्र०। उ० २।२८। इण् गतौ-रन्, गुणाभावः। भृमृशीङ्०। उ० १।७। विद ज्ञाने-उप्रत्ययः। इराया भूमेर्ज्ञानयुक्तं व्यवहारम् (दत) तलोपः। यूयं दत्त ॥