अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 130/ मन्त्र 14
सूक्त -
देवता - प्रजापतिः
छन्दः - प्राजापत्या गायत्री
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
मा त्वा॑भि॒ सखा॑ नो विदन् ॥
स्वर सहित पद पाठमा । त्वा । अ॑भि॒ । सखा॑ । न: । विदन् ॥१३०.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
मा त्वाभि सखा नो विदन् ॥
स्वर रहित पद पाठमा । त्वा । अभि । सखा । न: । विदन् ॥१३०.१४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 130; मन्त्र » 14
विषय - मनुष्य के लिये पुरुषार्थ का उपदेश।
पदार्थ -
(त्वा) तुझसे (नः) हमारा (सखा) सखा [साथी] (मा अभि विदन्) कभी न मिले ॥१४॥
भावार्थ - मनुष्य अपने मित्रों को दुष्टों से कभी न मिलने देवे ॥१३, १४॥
टिप्पणी -
१४−(मा) निषेधे (त्वा) त्वाम् (अभिः) सर्वतः (सखा) (नः) अस्माकम् (विदन्) प्राप्नोतु ॥