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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 16
    ऋषिः - शन्तातिः देवता - चन्द्रमा अथवा मन्त्रोक्ताः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - पापमोचन सूक्त
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    अ॒राया॑न्ब्रूमो॒ रक्षां॑सि स॒र्पान्पु॑ण्यज॒नान्पि॒तॄन्। मृ॒त्यूनेक॑शतं ब्रूम॒स्ते नो॑ मुञ्च॒न्त्वंह॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒राया॑न् । ब्रू॒म॒: । रक्षां॑सि । स॒र्पान् । पु॒ण्य॒ऽज॒नान् । पि॒तॄन् । मृ॒त्यून् । एक॑ऽशतम् । ब्रू॒म॒: । ते । न॒: । मु॒ञ्च॒न्तु॒ । अंह॑स: ॥८.१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अरायान्ब्रूमो रक्षांसि सर्पान्पुण्यजनान्पितॄन्। मृत्यूनेकशतं ब्रूमस्ते नो मुञ्चन्त्वंहसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अरायान् । ब्रूम: । रक्षांसि । सर्पान् । पुण्यऽजनान् । पितॄन् । मृत्यून् । एकऽशतम् । ब्रूम: । ते । न: । मुञ्चन्तु । अंहस: ॥८.१६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 6; मन्त्र » 16
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    कष्ट हटाने के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (अरायान्) अदाताओं, (रक्षांसि) राक्षसों, (सर्पान्) सर्पों [सर्पसमान क्रूरस्वभावों], (पुण्यजनान्) पुण्यात्माओं और (पितॄन्) पालनकर्ताओं का (ब्रूमः) हम कथन करते हैं। (एकशतम्) एक सौ एक [अपरिमित] (मृत्यून्) मृत्युओं [मृत्यु के कारणों] का (ब्रूमः) हम कथन करते हैं, (ते) वे (नः) हमें (अंहसः) कष्ट से (मुञ्चन्तु) छुड़ावें ॥१६॥

    भावार्थ

    मनुष्य दुःखदायी दुष्टों के त्याग से और पुण्यात्माओं के सत्सङ्ग से मृत्यु के कारणों से बचकर सदा आनन्द भोगें ॥१६॥

    टिप्पणी

    १६−(अरायान्) अ+रा दानादानयोः-घञ्, युक्। अदातॄन् (रक्षांसि) राक्षसान् (सर्पान्) सर्पवत् क्रूरान् (पुण्यजनान्) पूञो यण् णुण्घ्रस्वश्च। उ० ५।१५। पूञ् शोधने-यत्, णुक् ह्रस्वत्वं च। पवित्रात्मनः (पितॄन्) पालकान् (मृत्यून्) मरणकारणानि (एकशतम्) अ० ३।९।६। एकोत्तरशतसंख्याकान्। अपरिमितान्। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    एकशतं मृत्यवः

    पदार्थ

    १. (अरायान्) = अदानवृत्तिवाले, (रक्षांसि) = अपने रमण के लिए औरों का क्षय करनेवाले मनुष्यों का हम (ब्रूमः) = व्यक्तरूप से प्रतिपादन करते हैं इनके जीवन का विचार करते हैं। जहाँ (सर्पान्)  कुटिल गतिवाले पुरुषों के जीवन को कहते हैं, वहाँ उनकी तुलना में (पुण्यजनान्) = गुणी शुभकर्म-प्रवृत्त-लोगों का तथा (पितृन्) = रक्षणात्मक कार्यों में प्रवृत्त लोगों का भी स्तवन करते हैं। इस सब विचार से हम 'अराय, रक्षस् व सर्प' न बनकर पुण्यजन व पितर' बनने का संकल्प करते हैं। २. (एकशतम्) = एक अधिक सौ (मृत्यून) = मृत्यु के कारणभूत रोगों का भी प्रतिपादन व विचार करते हैं। विचार करके उनके कारणभूत अपथ्यों को दूर करने के लिए यन करते हैं। (ते) = वे सब (न:) = हमें (अंहस:) = कष्ट से व पाप से (मुञ्चन्तु) = पृथक् करें।

    भावार्थ

    हम शुभ व अशुभ प्रवृत्तिवाले लोगों के जीवनों की तुलना करते हुए शुभ प्रवृत्तिवाले बनने के लिए यनशील हों। रोगों के कारणों का विचार करके उन कारणों को दूर करके कष्टों से मुक्त हों।

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    भाषार्थ

    (अरायन्) अदानियों, (रक्षांसि) राक्षस स्वभाव वाले क्रूरों, (सर्पान) छिप कर घुस जाने वाले विषप्रयोक्ताओं, (पुण्यजनान्) अपने को पुण्यात्मा जताने वाले दुरात्माओं, (पितॄन्) तथा पितरों का (ब्रूमः) हम कथन करते हैं, तथा (एकशतं मृत्यून्) एक सौ एक मृत्युओं का (ब्रूमः) हम कथन करते हैं, (ते) वे [हे परमेश्वर !] (नः) हमें (अंहसः) मरण से (मुञ्चन्तु) मुक्त करें, हमारा हनन न करें।

    टिप्पणी

    [अरायान् = अ + रा (दाने), अदानी, स्वार्थी, कञ्जूस। सर्पान्= सर्पों के से व्यवहार वाले विष द्वारा मार देने वाले। पितॄन= जननी जनकश्चैव यश्च विद्यां प्रयच्छति। अन्नदाता भयत्राता पञ्चैते पितरः स्मृताः ॥ ये पितृनामधारी, जब पितरों के समान व्यवहार न करते हुए, अपितर रूप से बर्ताव करते हैं, city-fathers आदि। एकशतं मृत्यून् = १०० वर्षों की आयु और १ वर्ष मातृगर्भवास। इन १०१ वर्षों में सम्भाव्यमान मृत्युएं। सर्पान् = (देखा अथर्व० ८।१० पर्याय ५। मन्त्र १३)]।

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    विषय

    पाप से मुक्त होने का उपाय।

    भावार्थ

    (अरायान्) धन सम्पत्ति से रहित दरिद्रों, (राक्षसान्) दुष्ट पुरुषों, (सर्पान्) सापों, (पुण्यजनान्) प्रजापीड़क मायावी लोगों और (पितॄन्) उनसे बचाने वाले पालकों का (ब्रूमः) हम नाना प्रकार से वर्णन करते हैं और (एकशतं मृत्यून् ब्रूमः) एक सौ एक या सौ प्रकार की मृत्युओं, देह से प्राणों के छूटने के प्रकारों का वर्णन करते हैं। (ते) वे सब (नः) हमें (अंहसः) पाप कर्म से (मुञ्चन्तु) छुड़ा देवें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शंतातिर्ऋषिः। चन्द्रमा उत मन्त्रोक्ता देवता। २३ बृहतीगर्भा अनुष्टुप्, १–१७, १९-२२ अनुष्टुभः, १८ पथ्यापंक्तिः। त्रयोविंशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Freedom from Sin and Distress

    Meaning

    We address the ungenerous, the wicked, the snakes, the holy people, parental seniors, and the hundred ways people suffer and die, and we pray they spare and save us from sin and suffering.

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    Translation

    The niggards we address, the demons, the serpents, the purefolk, the Fathers; the hundred and one deaths we address: let them free us from distress.

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    Translation

    We describe the characteristics of those who possess nothing and desire athers to have nothing those who do harm to others, the venomous reptiles, those preting highly, those who protect people like parent and hundred one kinds of deadly mortalities. Let all these make us free from diseases.

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    Translation

    To misers, and fierce fiends we speak, to holy persons, Fathers, and persons deadly like serpents and to the hundred and one causes of death: may they deliver us from sin.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १६−(अरायान्) अ+रा दानादानयोः-घञ्, युक्। अदातॄन् (रक्षांसि) राक्षसान् (सर्पान्) सर्पवत् क्रूरान् (पुण्यजनान्) पूञो यण् णुण्घ्रस्वश्च। उ० ५।१५। पूञ् शोधने-यत्, णुक् ह्रस्वत्वं च। पवित्रात्मनः (पितॄन्) पालकान् (मृत्यून्) मरणकारणानि (एकशतम्) अ० ३।९।६। एकोत्तरशतसंख्याकान्। अपरिमितान्। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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