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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 4
    ऋषिः - शन्तातिः देवता - चन्द्रमा अथवा मन्त्रोक्ताः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - पापमोचन सूक्त
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    ग॑न्धर्वाप्स॒रसो॑ ब्रूमो अ॒श्विना॒ ब्रह्म॑ण॒स्पति॑म्। अ॑र्य॒मा नाम॒ यो दे॒वस्ते॑ नो मुञ्च॒न्त्वंह॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ग॒न्ध॒र्व॒ऽअ॒प्स॒रस॑: । ब्रू॒म॒: । अ॒श्विना॑ । ब्रह्म॑ण: । पति॑म् । अ॒र्य॒मा । नाम॑ । य: । दे॒व: । ते । न॒: । मु॒ञ्च॒न्तु॒ । अंह॑स: ॥८.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    गन्धर्वाप्सरसो ब्रूमो अश्विना ब्रह्मणस्पतिम्। अर्यमा नाम यो देवस्ते नो मुञ्चन्त्वंहसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    गन्धर्वऽअप्सरस: । ब्रूम: । अश्विना । ब्रह्मण: । पतिम् । अर्यमा । नाम । य: । देव: । ते । न: । मुञ्चन्तु । अंहस: ॥८.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 6; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    कष्ट हटाने के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (गन्धर्वाप्सरसः) गन्धर्वों [पृथिवी के धारण करनेवालों और अप्सरों आकाश में चलनेवाले पुरुषों] को और (अश्विना) कामों में व्यापक रहनेवाले दोनों [माता-पिता के समान हितकारी] (ब्रह्मणः पतिम्) वेद के रक्षक [आचार्य आदि] को (ब्रूमः) हम पुकारते हैं। (यः) जो (अर्यमा) न्यायकारी (नाम) प्रसिद्ध (देवः) विजयी पुरुष है [उसको भी], (ते) वे (नः) हमें (अंहसः) कष्ट से (मुञ्चन्तु) छुड़ावें ॥४॥

    भावार्थ

    हम विविध विद्यानिपुण पुरुषों से सहाय लेकर परस्पर रक्षा करें ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−(गन्धर्वाप्सरसः) अ० ८।८।१५। गां पृथिवीं धरन्ति ये ते गन्धर्वाः। अप्सु आकाशे सरन्ति ते अप्सरसः। तान् पुरुषान् (ब्रूमः) (अश्विना) अ० २।२९।६। कार्येषु व्याप्तिमन्तौ जननीजनकौ यथा तथा हितकारिणम् (ब्रह्मणस्पतिम्) वेदस्य रक्षकमाचार्यम् (अर्यमा) अ० ३।१४।२। अरीणां नियामकः। न्यायकारी पुरुषः (नाम) प्रसिद्धौ (यः) (देवः) विजयी। अन्यद् गतम्-म० १ ॥

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    विषय

    'गन्धर्व व अर्यमा'

    पदार्थ

    १. (गन्धर्व-अप्सरस:) = [गां धारयन्ति, अप्सु सरन्ति] वेदवाणी का धारण करनेवाले व प्रशस्त कर्मों में गतिवाले पुरुषों का (ब्रूमः) = हम स्तवन करते हैं। इसी प्रकार (अश्विना) = प्राणापान की साधना करनेवाले (ब्रह्मणस्पतिम्) = ज्ञान के रक्षक पुरुषों का हम स्तवन करते हैं। (अयर्मा नाम यः देव:) = अर्यमा नामक जो देव है-शत्रुओं का नियमन करनेवाला जो देव है-(ते) = वे सब (न:) = हमें (अंहस: मुञ्चन्तु) = पापों व कष्टों से बचाएँ।

     

    भावार्थ

    हम 'वेदवाणी का धारण करनेवाले, यज्ञादि कर्मों को करनेवाले, प्राण-साधना में प्रवृत्त, ज्ञान के स्वामी, व वासनारूप शत्रुओं का नियमन करनेवाले [अरीन् यच्छति]' बनें। यही पाप व कष्ट से बचने का मार्ग है।

     

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    भाषार्थ

    (गन्धर्वाप्सरसः) अग्नि गन्धर्व है, ओषधियां अप्सराएं हैं; सूर्य गन्धर्व है, मरीचियां अप्सराएं हैं, चन्द्रमा गन्धर्व है, नक्षत्र अप्सराएं हैं; वात गन्धर्व है, (आपः) जल अप्सराएं हैं; यज्ञ गन्धर्व है, दक्षिणाएँ अप्सराएं हैं; मन गन्धर्व है, ऋक और साम अप्सराएं हैं (यजु० १८।३८-४३); (अश्विना) द्युलोक और पृथिवी लोक; (बृहस्पतिः) जल स्वामी तथा (यः अर्यमा नाम देवः) जो अर्यमा नाम देव है, (ब्रूमः) इन का हम कथन करते हैं, (ते) वे [हे परमेश्वरः] (नः) हमें (अंहसः) हनन से (मुञ्चन्तु) मुक्त करें, हमारा हनन न करें।

    टिप्पणी

    [अश्विना= द्यावापृथिव्यौ (निरुक्त १२॥१॥१)‌। ब्रह्मणस्पतिः = ब्रह्म उदकम्, अन्नम्, धनम् (निघं० १।१२; २।७; २।१०)। अर्यमा= आदित्योऽरीम नियच्छति (निरुक्त ११।३।२३)]। अथवा- गन्धर्वाप्सरसः= गो (पृथिवी निघं० १।१) + धर्व (धृत्र् धारणे) =राजवर्ग। अप्सराएं= राजवर्ग की रूपवती स्त्रियां। अप्स इति रूपनाम, तद्रा भवति, रूपवती (निरुक्त ५।३।१३)। अश्विना१= सैनिक, नागरिकविभागों के दो अधिपति, ब्रह्मणस्पतिः=वैदिक महाविद्वान् अर्यमा२= राष्ट्र के अरियों, शत्रुओं का नियमन करने वाला आदित्य सम तेजस्वी न्यायाधीश। राष्ट्र के ये शासक भी अज्ञान वश, धन के लोभ, तथा पक्षपात द्वारा हमारा हनन न करें-यह प्रार्थना परमेश्वर से की है]।[१. अश्विना= राजानौ पुण्यकृतौ (निरुक्त १२।१।१)। २. “अर्यमाऽऽदित्योऽरीन्नियच्छति” (निरुक्त ११।३।२३); मन्त्र में "अरीन् नियच्छति" के आधार पर न्यायाधीश अर्थ किया है।]

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    विषय

    पाप से मुक्त होने का उपाय।

    भावार्थ

    (गन्धर्वाप्सरसः) सच्चरित्र नवयुवक पुरुष और सती स्त्रियां (अश्विनौ) अश्विगण, माता और पिता (ब्रह्मणस्पतिम्) बूह्म वेद के पालक, विद्वान् आचार्य और (अर्यमा) सर्वश्रेष्ठ, न्यायकारी (यः देवः) जो सब देवों का देव राजा है (ते) वे (नः) हमें (अंहसः मुञ्चन्तु) पापों से मुक्त करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शंतातिर्ऋषिः। चन्द्रमा उत मन्त्रोक्ता देवता। २३ बृहतीगर्भा अनुष्टुप्, १–१७, १९-२२ अनुष्टुभः, १८ पथ्यापंक्तिः। त्रयोविंशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Freedom from Sin and Distress

    Meaning

    We address wind and water, Ashvins, complementarities of natural currents of energy, Brahmanaspati, the specialist of Vedic knowledge, refulgent guiding forces of natural law, Aryama by name and attribute, and we pray they may save us from sin, suffering and distress.

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    Translation

    The Gandharvas and Apsarases we address, the (two) Asvins, Brahmansapti, the god that is Aryaman by name; let them free us from distress.

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    Translation

    I describe and take use of Clouds, Elecricities as lightning flashes, vital breaths causing inhalation and exhalation, the force protecting grains of the crop, and the air named Arya-man, and let them make us free from disease.

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    Translation

    We call on the lords of earth, on the fliers in air, on father and mother, on the Acharya, the Custodian of Vedic knowledge, on the justice-loving king: may they deliver us from sin.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(गन्धर्वाप्सरसः) अ० ८।८।१५। गां पृथिवीं धरन्ति ये ते गन्धर्वाः। अप्सु आकाशे सरन्ति ते अप्सरसः। तान् पुरुषान् (ब्रूमः) (अश्विना) अ० २।२९।६। कार्येषु व्याप्तिमन्तौ जननीजनकौ यथा तथा हितकारिणम् (ब्रह्मणस्पतिम्) वेदस्य रक्षकमाचार्यम् (अर्यमा) अ० ३।१४।२। अरीणां नियामकः। न्यायकारी पुरुषः (नाम) प्रसिद्धौ (यः) (देवः) विजयी। अन्यद् गतम्-म० १ ॥

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