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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 18
    ऋषिः - शन्तातिः देवता - चन्द्रमा अथवा मन्त्रोक्ताः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - पापमोचन सूक्त
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    एत॑ देवा दक्षिण॒तः प॒श्चात्प्राञ्च॑ उ॒देत॑। पु॒रस्ता॑दुत्त॒राच्छ॒क्रा विश्वे॑ दे॒वाः स॒मेत्य॒ ते नो॑ मुञ्च॒न्त्वंह॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । इ॒त॒ । दे॒वा॒: । द॒क्षि॒ण॒त: । प॒श्चात् । प्राञ्च॑: । उ॒त्ऽएत॑ । पु॒रस्ता॑त् । उ॒त्त॒रात् । श॒क्रा: । विश्वे॑ । दे॒वा: । स॒म्ऽएत्य॑ । ते । न॒: । मु॒ञ्च॒न्तु॒ । अंह॑स: ॥८.१८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एत देवा दक्षिणतः पश्चात्प्राञ्च उदेत। पुरस्तादुत्तराच्छक्रा विश्वे देवाः समेत्य ते नो मुञ्चन्त्वंहसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । इत । देवा: । दक्षिणत: । पश्चात् । प्राञ्च: । उत्ऽएत । पुरस्तात् । उत्तरात् । शक्रा: । विश्वे । देवा: । सम्ऽएत्य । ते । न: । मुञ्चन्तु । अंहस: ॥८.१८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 6; मन्त्र » 18
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    कष्ट हटाने के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (देवाः) हे देवताओ ! [वीर पुरुषो] (दक्षिणतः) दक्षिण से (आ इत) आओ (पश्चात्) पश्चिम से, (पुरस्तात्) पूर्व से (उत्तरात्) उत्तर से, (शक्राः) शक्तिमान् (विश्वे) सब (देवाः) महात्माओं तुम (समेत्य) मिलकर (प्राञ्चः) आगे बढ़ते हुए (उदेत) ऊपर आओ, (ते) वे [आप] (नः) हमें (अंहसः) कष्ट से (मुञ्चन्तु) बचावें ॥१८॥

    भावार्थ

    मनुष्य सब देशों के वीर विद्वानों से विद्या प्राप्त करके विपत्तियों को हटावें ॥१८॥

    टिप्पणी

    १८−(एत) आगच्छत (देवाः) विजिगीषवः (दक्षिणतः) दक्षिणदेशात् (पश्चात्) पश्चिमदेशात् (प्राञ्चः) प्रकर्षेण गच्छन्तः (उदेत) उदयं प्राप्नुत (पुरस्तात्) पूर्वदेशात् (उत्तरात्) उत्तरदेशात् (शक्राः) शक्तिमन्तः (विश्वे) सर्वे (देवाः) महात्मानः (समेत्य) समागत्य। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    देवों द्वारा रक्षण

    पदार्थ

    १. हे (देवाः) = दिव्य गुणों व दिव्य गुणयुक्त पुरुषो! आप (दक्षिणतः एत) = दक्षिणदिशा से हमें प्राप्त होओ। इसी प्रकार (पश्चात्) = पश्चिम से (प्राञ्च:) = अग्नगतिवाले होते हुए (उत् एत) = उत्कर्षेण हमें प्राप्त होओ। (पुरस्तात्) = पूर्व से तथा (उत्तरात्) = उत्तर से (शक्रा:) = शक्तिशाली (विश्वेदेवा:) = सब देव (समेत्य) = मिलकर-इकट्ठे प्राप्त होकर (ते) = वे सब (न:) = हमें (अंहसः मुञ्चन्तु) = पाप से मुक्त करें।

     

    भावार्थ

    हमें सब दिशाओं से दिव्य गुणों व दिव्य पुरुषों की प्रालि हो। उनके सम्पर्क में हम अशुभ से बचते हुए सुखी जीवनवाले हों।

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    भाषार्थ

    (प्राञ्चः शक्राः, देवाः) प्रगतिशील शक्तिशाली देवो ! अर्थात् द्योतमान सूर्य रश्मियों ! तुम (दक्षिणतः) दक्षिण से, (पश्चात्) पश्चिम से, (उत्तरात्) उत्तर से, (पुरस्तात्) पूर्व से (एत) आओ, (उदेत) अर्थात् उचित होओ। (ते विश्वे देवाः) वे तुम सब देव (समेत्य) मिल कर (नः) हमें (अंहस) हनन से (मुञ्चत) मुक्त करो।

    टिप्पणी

    [देवाः= द्योतमान सूर्यरश्मियां। प्राञ्चः= प्रकर्षेण अञ्चन्ति गति कुर्वन्तीति, जो सदा गतिवाली है। सूर्यरश्मियां सदा गतिशील हैं। ये रश्मियां दक्षिण से पश्चिम और उत्तर की और घूम कर, पूर्व दिशा में आतीं, और पुन: पूर्व से दक्षिण की ओर जाती हैं। यह चक्कर सूर्य रश्मियों का विना विश्राम किये सदा चलता रहता है। शक्राः= सूर्य रश्मियां शक्तिशाली हैं। अन्धकार मानो इन से भयभीत हुआ, इन के आगे आगे भागता रहता है, और सूर्यरश्मियां इस का पीछा करती रहती हैं। सूर्य रश्मियां रोगों का विनाश करती, भूमण्डल को शुद्ध करती, जल, अन्न आादि प्रदान करती तथा नाना प्रकार से शक्ति प्रदान करती है। सूर्य रश्मियों के सेवन से आयु बढ़ती हैं। इस प्रकार से हमें हनन से मुक्त करती हैं। सायणाचार्य ने “यूयम् का अध्याहार कर "मुञ्चन्तु" का अर्थ किया है "मुञ्चत"। यथा "सर्वे देवाः समेत्य समागत्य ते यूयम् अस्मान् अंहसः पापात् मुञ्चतेति शेषः। समेत्य= सूर्य रश्मियां सदा परस्पर मिली हुई आती जाती हैं, और कार्य करती हैं]

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    विषय

    पाप से मुक्त होने का उपाय।

    भावार्थ

    हे (देवाः) देव गण, राजाओ और विद्वान् पुरुषो ! आप लोग (दक्षिणतः एत) दक्षिण दिशा से आओ, (पश्चात् विश्वे देवाः) हे शक्तिशाली समस्त राजाओ ! और विद्वान् पुरुषो ! (उत्तरात्) उत्तर दिशा से भी आप लोग (पुरस्तात्) हम लोगों के समक्ष (समेत्य) आकर उपस्थित होओ। और अपने आदर्श जीवनों से (ते) वे सब (नः अंहसः मुञ्चन्तु) हमें पाप कर्म से मुक्त करें।

    टिप्पणी

    (द्वि०) ‘उदेतनः’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शंतातिर्ऋषिः। चन्द्रमा उत मन्त्रोक्ता देवता। २३ बृहतीगर्भा अनुष्टुप्, १–१७, १९-२२ अनुष्टुभः, १८ पथ्यापंक्तिः। त्रयोविंशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Freedom from Sin and Distress

    Meaning

    O Devas, mighty divinities of nature, nobilities of humanity, come from the south, come from the west, come from north and from the east, rise and come forward to us, come together all divinities of nature and humanity, save us from sin, disease and distress.

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    Translation

    Come, ye gods, from the south; from the west, come up eastward, from the east, from the north, mighty, all the gods coming together; let them free us from distress.

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    Translation

    O learned man come to us from the south, rise to the occasion and come forward to us from the west, gather together all, Ye mighty Ones from cast and north. May they all save us from committing sins.

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    Translation

    Come hither from the south, ye learned persons, rise and come forward from the west. Gathered together, all ye noble persons, ye mighty ones, come from east and north: may they deliver us from sin setting example by their virtuous lives.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १८−(एत) आगच्छत (देवाः) विजिगीषवः (दक्षिणतः) दक्षिणदेशात् (पश्चात्) पश्चिमदेशात् (प्राञ्चः) प्रकर्षेण गच्छन्तः (उदेत) उदयं प्राप्नुत (पुरस्तात्) पूर्वदेशात् (उत्तरात्) उत्तरदेशात् (शक्राः) शक्तिमन्तः (विश्वे) सर्वे (देवाः) महात्मानः (समेत्य) समागत्य। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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