अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 23
ऋषिः - शन्तातिः
देवता - चन्द्रमा अथवा मन्त्रोक्ताः
छन्दः - बृहतीगर्भानुष्टुप्
सूक्तम् - पापमोचन सूक्त
1
यन्मात॑ली रथक्री॒तम॒मृतं॒ वेद॑ भेष॒जम्। तदिन्द्रो॑ अ॒प्सु प्रावे॑शय॒त्तदा॑पो दत्त भेष॒जम् ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । मात॑ली । र॒थ॒ऽक्री॒तम् । अ॒मृत॑म् । वेद॑ । भे॒ष॒जम् । तत् । इन्द्र॑: । अ॒प्ऽसु । प्र । अ॒वे॒श॒य॒त् । तत् । आप॑: । द॒त्त॒ । भे॒ष॒जम् ॥८.२३॥
स्वर रहित मन्त्र
यन्मातली रथक्रीतममृतं वेद भेषजम्। तदिन्द्रो अप्सु प्रावेशयत्तदापो दत्त भेषजम् ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । मातली । रथऽक्रीतम् । अमृतम् । वेद । भेषजम् । तत् । इन्द्र: । अप्ऽसु । प्र । अवेशयत् । तत् । आप: । दत्त । भेषजम् ॥८.२३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
कष्ट हटाने के लिये उपदेश।
पदार्थ
(मातली) इन्द्र [जीव] का रथवान् [मन] (रथक्रीतम्) रथ [शरीर] द्वारा पाये हुए (यत्) जिस (भेषजम्) भयनिवारक (अमृतम्) अमृत [अमरपन, मोक्षसुख] को (वेद) जानता है, (तत्) उस [अमृत] को (इन्द्रः) इन्द्र [परमेश्वर] ने (अप्सु) सब प्रजाओं में (प्र अवेशयत्) प्रवेश किया है, (आपः) हे प्रजाओ ! (तत्) उस (भेषजम्) भयनिवारक वस्तु [मोक्षसुख] का (दत्त) दान करो ॥२३॥
भावार्थ
जो मोक्षसुख शरीर द्वारा प्राप्त होकर मन से अनुभव किया जाता है, वह मोक्ष सुख ईश्वरनियम से सब प्राणियों को प्राप्य है। उसके पाने का प्रत्येक मनुष्य प्रयत्न करे ॥२३॥इस मन्त्र का मिलान अथर्व० ८।९।५। से करो। इति तृतीयोऽनुवाकः ॥
टिप्पणी
२३−(यत्) (मातली) अ० ८।९।५। मतल-इञ्, विभक्तेः पूर्वसवर्णदीर्घः। मातलिः। इन्द्रस्य जीवस्य सारथिः। मनः (रथक्रीतम्) रथेन शरीरेण प्राप्तम् (अमृतम्) मोक्षसुखम् (वेद) जानाति (भेषजम्) भयनिवारकम् (तत्) अमृतम् (इन्द्रः) परमेश्वरः (अप्सु) आपः (आप्ताः) प्रजाः-दयानन्दभाष्ये यजु० ६।२७। प्रजासु। प्राणिषु (प्रावेशयत्) प्रविष्टवान् (तत्) (आपः) हे प्रजाः (दत्त) प्रयच्छत (भेषजम्) भयनिवारकं वस्तु। मोक्षसुखम् ॥
विषय
अमृतम् भेषजम्
पदार्थ
१. (मातली) = इन्द्र [जीवात्मा] के शरीर-रथ का सारथिरूप यह बुद्धि (रथक्रीतम्) = [रथे क्रीत] शरीर-रथ में द्रव्यविनिमय से-[भोजन का विनिमय रस में, रस का रुधिर में, रुधिर का मांस में, मांस का मेदस् में, मेदस् का अस्थि में, अस्थि का मज्जा में व मज्जा का वीर्य में-इसप्रकार विनिमय द्वारा] प्राप्त (यत्) = जिस (अमृतम्) = निरोगता के देनेवाले (भेषजम्) = सब रोगों के औषधभूत वीर्य को वेद-प्राप्त करता है (इन्द्र:) = जितेन्द्रिय पुरुष (तत्) = उस वीर्य को (अप्सु प्रावेशयत्) = शरीरस्थ रुधिररूप जलों में प्रविष्ट कराता है। जितेन्द्रियता द्वारा वीर्य की ऊर्ध्वगति करता हुआ इन्हें रुधिर में व्याप्त कर देता है, (तत्) = अत: (आप:) = हे रुधिररूप जलो! आप हमारे लिए (भेषजम् दत्त) = यह औषध दो।
भावार्थ
शरीर में सुरक्षित वीर्य सब रोगों का औषध बनता है। बुद्धिही इसके महत्त्व को समझकर जितेन्द्रिय पुरुष को इसके रक्षण के लिए प्रेरित करती है।
यह वीर्यरक्षण करनेवाला 'इन्द्र' संसार की समाप्ति पर भी बचे रहनेवाले उस 'उच्छिष्ट' प्रभु का स्मरण करता है। प्रभुस्मरण द्वारा अपनी वृत्ति को अन्तर्मुखी करता हुआ 'अथर्वा' [अथ अर्वाङ] बनता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है -
भाषार्थ
(मातली१) निर्माणकार्य की आधारभूत पारमेश्वरी माता, (रथीक्रीतम्) शरीररथ द्वारा खरीदी गई (यत्) जिस (अमृतं भेषजम्) मोक्षरूपी औषध को (वेद) जानती है, (तत्) उस औषध को (इन्द्रः१) जीवात्मा ने (अप्सु) निज रस-रक्त में (आवेशयत्) प्रविष्ट किया है, (आपः) हे रस-रक्तो ! (तद्) वह (भेषजम्) औषध (दत्त) देओ।
टिप्पणी
[(मातली) मा (निर्माणे) + तल (प्रतिष्ठायां, चुरादि०) + स्त्री प्रत्यय। जगत् के निर्माण में पारमेश्वरी माता आधाररूप, नींवरूप है, जैसे कि मानूषी माता शिशु के निर्माण में आधाररूप होती है], वह पारमेश्वरी माता जानती है कि हनन अर्थात् मृत्यु से मुक्त होने की एकमात्र औषध है "अमृत" हो जाना, जन्म-मरण की शृङ्खला से छूटना। परन्तु उस औषध को खरीदना होगा। उस का मूल्य है "शरीररथ"। इसे मोक्ष प्राप्ति के साधनों तथा पारमेश्वरीमाता के प्रति समर्पित करना होगा। जब वस्तु खरीदी जाती है, तो उस के निमित्त दिया धन वस्तु के स्वामी को दे देना होता हैं, उस धन पर फिर खरीद करने वाले का स्वत्व नहीं रहता। यही अवस्था शरीर की हो जाती "अमृत-औषध" के खरीदने पर। रथक्रीतम् आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु" (कठ उप० १।३।३)। परन्तु जो अभी तक शरीर रथ का स्वामी बना हुआ है (कठोप० १।३।३), उसे भी इस निमित्त परिश्रम करना होगा। वह परिश्रम है निज शरीर के रसरक्तों में अमृत-भेषज के प्रवेश करने में। इस के लिये अष्टाङ्ग योग साधनों को अपनाना होगा। तदनन्तर शरीरस्थ आपः अर्थात् रस-रक्त, अमृत-भेषज दे सकेंगे। इन रस-रक्तों का मूल स्रोत है हृदय। इस हृदय में परमेश्वर के प्रवेश पूर्वक, योगाङ्गों का सेवन करना होगा। आपः= शारीरिक रस रक्त (अथर्व० १०।२।११)। मन्त्र में "अमृतत्व" अर्थात् नियत १०० वर्षों के काल से पूर्व न मरने (अमृत =न मृत होने) की भेषज= आपः जल। यथा “अपो याचामि भेषजम्" (अथर्व० १।५।४), "मैं जलों से भेषज की याचना करता हूं"। "अप्सु मे सोमो अब्रवीदन्तर्विश्वानि भेषजा" (अथर्व० १।६।२) "सोम ने मुझे कहा है कि जलों के भीतर सब भेषजें हैं"। "अप्स्वन्तरमृतमप्सु भेषजम्" (अथर्व० १।४।४), "जलों में अमृत है, जलों में भेषज है"। इस प्रकार दीर्घ जीवन के लिये, गौणरूप में, जल चिकित्सा का भी वर्णन मन्त्र में हुआ है।] [(१) कथानक के अनुसार मातलि (मातली) इन्द्र का रथवाचक है। मन्त्र में "इन्द्र" का भी वर्णन है। इन पद मन्त्र में जीवात्मा का वाचक है, जिस के कि उपकरणों को "इन्द्रिय" कहते हैं। जो इन्द्र अर्थात् आत्मा "अमृतभागी" हो जाता है, उस "ईश्वरप्रणिधानी" के शरीर रथ का वहन अर्थात् संचालन परमेश्वरी माता (मातली) करने लगती है,- यह योग शास्त्र का सिद्धान्त है, तथा गीता द्वारा अनुमोदित है।
विषय
पाप से मुक्त होने का उपाय।
भावार्थ
(मातलिः) मातलि, ज्ञान का संग्रह करने वाला, जीव (यत्) जिस (भेषजम्) सर्व भव रोग निवारक (रथकीतम्) रथ-देवरूप रथ या विषयों के इन्द्रियरसों के परित्याग के बदले में प्राप्त (अमृतम्) अपने अमृत स्वरूप को (वेद) साक्षात् जान लेता है (तत्) उस अमृतस्वरूप आत्मा को (इन्द्रः) परमेश्वर (अप्सु प्रावेशयत्) प्राप्त प्रजाओं में या प्रज्ञावान् पुरुषों में प्रविष्ट कराता है। (आपः) समस्त आप्त पुरुष (तत् भेषजम् दत्त) उस परम औषधरूप आत्मज्ञान को हमें प्रदान करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शंतातिर्ऋषिः। चन्द्रमा उत मन्त्रोक्ता देवता। २३ बृहतीगर्भा अनुष्टुप्, १–१७, १९-२२ अनुष्टुभः, १८ पथ्यापंक्तिः। त्रयोविंशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Freedom from Sin and Distress
Meaning
may Indra let flow into the stream of human karma. That very immortal sanative, O Apah, Vishvedevas, divinities of nature and humanity, pray give us (so that we may be free from sin and suffering.) Note: Satavalekara has given a list of the deities of the earth, middle region and the region of light which comes to 93. In addition he gives a list of 172 including hundred forms of death (mantra 16). In all, the number of deities given by him come to two hundred and sixty- five for which the prayer to Divinity is that they may all be good and auspicious to humanity so that life may be free from sin and distress.
Translation
The immortal remedy, chariot-bought, which Matali knows; - that Indra made enter into the waters; that remedy, O waters, give ye.
Translation
Let waters give us that immortal balm which Matali, the cloud got from Ratha the sun-rays and electricity there after placed it into waters of atmosphere.
Translation
Mind, the charioteer of the soul, realizes the joy of salvation, the dispeller of fear, secured through the exertion of body, the chariot of the soul. God equips learned persons with an exalted soul. O learned persons, grant me spiritual knowledge.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२३−(यत्) (मातली) अ० ८।९।५। मतल-इञ्, विभक्तेः पूर्वसवर्णदीर्घः। मातलिः। इन्द्रस्य जीवस्य सारथिः। मनः (रथक्रीतम्) रथेन शरीरेण प्राप्तम् (अमृतम्) मोक्षसुखम् (वेद) जानाति (भेषजम्) भयनिवारकम् (तत्) अमृतम् (इन्द्रः) परमेश्वरः (अप्सु) आपः (आप्ताः) प्रजाः-दयानन्दभाष्ये यजु० ६।२७। प्रजासु। प्राणिषु (प्रावेशयत्) प्रविष्टवान् (तत्) (आपः) हे प्रजाः (दत्त) प्रयच्छत (भेषजम्) भयनिवारकं वस्तु। मोक्षसुखम् ॥
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