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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 39 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 39/ मन्त्र 5
    ऋषिः - भृग्वङ्गिराः देवता - कुष्ठः छन्दः - चतुरवसाना सप्तपदा शक्वरी सूक्तम् - कुष्ठनाशन सूक्त
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    त्रिः शाम्बु॑भ्यो॒ अङ्गि॑रेभ्य॒स्त्रिरा॑दि॒त्येभ्य॒स्परि॑। त्रिर्जा॒तो वि॒श्वदे॑वेभ्यः। स कुष्ठो॑ वि॒श्वभे॑षजः सा॒कं सोमे॑न तिष्ठति। त॒क्मानं॒ सर्वं॑ नाशय॒ सर्वा॑श्च यातुधा॒न्यः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्रिः। शाम्बु॑ऽभ्यः। अङ्गि॑रेभ्यः। त्रिः। आ॒दि॒त्येभ्यः॑। परि॑। त्रिः। जा॒तः। वि॒श्वऽदे॑वेभ्यः। सः। कुष्ठः॑। वि॒श्वऽभे॑षजः। सा॒कम्। सोमे॑न। ति॒ष्ठ॒ति॒। त॒क्मान॑म्। सर्व॑म्। ना॒श॒य॒। सर्वाः॑। च॒। या॒तु॒ऽधा॒न्यः᳡ ॥३९.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्रिः शाम्बुभ्यो अङ्गिरेभ्यस्त्रिरादित्येभ्यस्परि। त्रिर्जातो विश्वदेवेभ्यः। स कुष्ठो विश्वभेषजः साकं सोमेन तिष्ठति। तक्मानं सर्वं नाशय सर्वाश्च यातुधान्यः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्रिः। शाम्बुऽभ्यः। अङ्गिरेभ्यः। त्रिः। आदित्येभ्यः। परि। त्रिः। जातः। विश्वऽदेवेभ्यः। सः। कुष्ठः। विश्वऽभेषजः। साकम्। सोमेन। तिष्ठति। तक्मानम्। सर्वम्। नाशय। सर्वाः। च। यातुऽधान्यः ॥३९.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 39; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    रोगनाश करने का उपदेश।

    पदार्थ

    (शाम्बुभ्यः) उपाय करनेवाले (अङ्गिरेभ्यः) ज्ञानियों के लिये (त्रिः) तीन बार [बालकपन, यौवन और बुढ़ापे में], (आदित्येभ्यः) अखण्ड ब्रह्मचारियों के लिये (त्रिः) तीन बार [बालकपन आदि में] और (विश्वदेवेभ्यः) सब विद्वानों के लिये (त्रिः) तीन बार [बालकपन आदि में] (परि) सब प्रकार (जातः) प्रकट हुआ (सः) वह (विश्वभेषजः) सर्वौषध (कुष्ठः) कुष्ठ [मन्त्र १] (सोमेन साकम्) सोमरस के साथ (तिष्ठति) ठहरता है [सोम के समान गुणकारी है]। तू (सर्वम्) सब (तक्मानम्) जीवन के कष्ट देनेवाले ज्वर को (च) और (सर्वाः) सब (यातुधान्यः) दुःखदायिनी पीड़ाओं को (नाशय) नाश करदे ॥५॥

    भावार्थ

    यह कुष्ठ महौषध विद्वानों के लिये बालकपन, यौवन और बुढ़ापे तीनों-पनों में सोमरस के समान स्वास्थ्यवर्द्धक है ॥५॥

    टिप्पणी

    ५−(त्रिः) त्रिवारम्, बाल्ययौवनवार्धकेषु (शाम्बुभ्यः) कृवापा०। उ०१।१। शम्ब सम्बन्धने गतौ च-उण्। उपायशीलेभ्यः (अङ्गिरेभ्यः) अशेर्नित्। उ०१।५२। अगि गतौ-किरच् नित्। विज्ञानिभ्यः (त्रिः) (आदित्येभ्यः) अखण्डव्रतिभ्यः (परि) सर्वतः (त्रिः) (जातः) प्रकटीभूतः (विश्वदेवेभ्यः) सर्वविद्वद्भ्यः (सः) (कुष्ठः) म०१। औषधविशेषः (विश्वभेषजः) सर्वरोगौषधः (सोमेन साकम्) सोमसमानप्रभावेण सह (तिष्ठति) वर्तते। अन्यत् पूर्ववत्-म०१॥

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    भाषार्थ

    (त्रिः) तीन प्रकार का कुष्ठ (शाम्बुभ्यः) मेघों से (जातः) उत्पन्न होता है; (त्रिः) तीन प्रकार का कुष्ठ (अङ्गिरेभ्यः) सूर्य और चान्द की प्रकाशमयी किरणों से, तथा (आदित्येभ्यः) रसादान करनेवाली तापमयी सूर्य-किरणों से पैदा होता है। (त्रिः) तीन प्रकार का कुष्ठ, जो (विश्वदेवेभ्यः) इन समग्र अर्थात् शाम्बु आदि सब तीनों देवों अर्थात् दिव्य कारणों से पैदा होता है, (सः) वह (कुष्ठः) कुष्ठ अर्थात् कूट या कूठ औषध (विश्वभेषजः) सर्वौषधरूप है, और (सोमेन साकम्) सोम ओषधि के संग में (तिष्ठति) रहता है। हे कुष्ठ! तू (सर्वम्) सब प्रकार के (तक्मानम्) कष्टदायक ज्वरों का (नाशय) विनाश कर। (च) और (सर्वाः यातुधान्यः) सब यातना देनेवाले स्त्रीलिङ्गी क्रिमियों का नाश कर।

    टिप्पणी

    [त्रिः= कुष्ठ त्रिविध अर्थात् तीन प्रकार का है—मुख्य कुष्ठ, नद्यमार तथा नद्यारिष (मन्त्र १९.३९.१)। मुख्य कुष्ठ को “उत्तम” कहा गया है (मन्त्र १९.३९.४)। नद्यमार और नद्यारिष उत्तम कुष्ठ नहीं हैं। इसीलिए मुख्य कुष्ठ को “विश्वभेषज” कहा हैं, (मन्त्र १९.३९.५)। “त्रिः” शब्द तीन वार मन्त्र में पठित है। यह दर्शाने के लिए कि कुष्ठ के तीन ही भेद हैं। शाम्बुभ्यः=श+अम्बुभ्यः=शेते अम्बु येषु तेभ्यः=मेघेभ्यः। शाम्बु के साथ सादृश्य रखनेवाले दो शब्द हैं—शम्बरः=मेघः (निघं० १.१०), तथा शम्बरम्= उदक (निघं० १.१२)। अङ्गिरेभ्यः= अथर्ववेद में “सूर्य और चन्द्र” ब्रह्म के दो चक्षुःगोलक कहे हैं—“यस्य सूर्यश्चक्षुश्चन्द्रमाश्च पुनर्णवः” (१०.७.३३); और चक्षुरङ्गिरसोऽभवन्” (१०.७.३४) द्वारा अङ्गिरसों को भी चक्षु कहा है। यहां “अङ्गिरसः” द्वारा चक्षुगोलकों की किरणें अभिप्रेत हैं। इस वर्णन की दृष्टि से “अङ्गिरेभ्यः” का अर्थ “प्रकाशमयी किरणें” करना उचित प्रतीत होता है। सूर्य और चन्द्र का प्रकाश ओषधियों की वृद्धि का कारण है— यह वेद और वर्तमान विज्ञान द्वारा स्वीकृत है। आदित्येभ्यः= “आदित्यः कस्मादादत्ते रसान्” (निरु० २.४.१३), अर्थात् आदित्य पार्थिव जलादि रसों का आदान करता है, [जिस के द्वारा कि मेघ बनते हैं], इसलिए आदित्य को आदित्य कहते हैं। रसों का आदान, आदित्य की तापमयी किरणों द्वारा होता है, इसलिए आदित्येभ्यः द्वारा आदित्य की तापमयी किरणों का वर्णन मन्त्र में हुआ है। तापमयी किरणों द्वारा निर्मित मेघों से वर्षा द्वारा कुष्ठ आदि ओषधियां उत्पन्न होती हैं। सोमेन साकम्= जिन पर्वतों में सोम ओषधि पैदा होती है, उन पर्वतों में उत्पन्न कुष्ठ-ओषधि “विश्वभेषज” होती है, जो कि तक्मा के निवारण में सर्वश्रेष्ठ है, सर्वोत्तम है (१९.३९.४)। कुष्ठ, नाशय=जड़ वस्तु का भी सम्बोधन द्वारा वर्णन, कविसम्प्रदायानुमोदित है। परमेश्वर कवि है, यथा “कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः” (यजुः० ४०.८)। तथा “देवस्य पश्य काव्यं न ममार न जीर्यति” (अथर्व० १०.८.३२) में वेद को परमेश्वर देव का काव्य कहा है। अतः कविता की दृष्टि से, जड़ का सम्बोधन भी उचित ही प्रतीत होता है।]

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    विषय

    शाम्बु, आदित्य, विश्वदेव

    पदार्थ

    १. (त्रि:) = तीन बार प्रयोग किया हुआ कुष्ठ नामक औषध (शाम्बुभ्यः) = [शम्म् to go] गतिशील (अंगिरेभ्यः) = यज्ञादि में प्रवृत्त कर्मकाण्डियों के लिए (परिजात:) = सर्वथा होता है। यह औषध उन्हें नौरोग बनाकर उत्तम कर्मों में प्रवृत्त करता है। (त्रि:) = तीन बर प्रयोग किया हुआ (यः आदित्येभ्यः) = 'प्रकृति, जीव व परमात्मा' के ज्ञान का आदान करनेवाले आदित्यों के लिए होता है। उन्हें नीरोग बनाकर उत्कृष्ट ज्ञानी बनाता है यह (त्रि:) = तीन बार प्रयुक्त हुआ-हुआ (विश्वदेवेभ्य:) = सर्वदेवों के लिए (जात:) = हो जाता है। यह उन्हें नौरोग बनाकर देव बनाता है। कुष्ठ औषध का प्रयोग नीरोगता के द्वारा हमें 'क्रियाशील, ज्ञानी व देववृत्ति का' बनाता है। २. (सः कुष्ठः विश्वभेषज:) = वह कुष्ठ औषध सब रोगों की चिकित्सा है। यह सोमेन साकं तिष्ठति-गुणों के दृष्टिकोण से सोम के साथ स्थित होता है। जैसे शरीरस्थ सोम [वीर्य] सर्वोषध है, उसी प्रकार यह कुष्ठ भी सर्वोषध है। हे कुष्ठ! तू (सर्वतक्मानम्) = सब ज्वरों को (नाशय) = नष्ट कर (च) = और (सर्वाः यातुधान्य:) = सब पीड़ा का आधान करनेवाली बीमारियों को नष्ट कर।

    भावार्थ

    दिन में तीन बार प्रयुक्त हुआ 'कुष्ठ' हमें 'गतिशील, ज्ञानी व देव' बनाता है। यह हमारे शरीर, मस्तिष्क व मन' तीनों को नीरोग बनाता है। यह वीर्य के समान ही महिमावाला है। सब रोगों को दूर करता है।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Cure by Kushtha

    Meaning

    Three-phase Kushtha is born of the clouds, another three-phase Kushtha is born of the pranic energies of the wind and rays of the sun and moon, and yet another three-phase Kushtha is born of the Aditya Zodiacs of the sun. Still another three-phase Kushtha, a universal remedy, is born of all the divinities of nature and grows with Soma. O Kushtha, destroy all kinds of consumption, cancerous diseases, and all kinds of dangerous germs, bacteria and viruses.

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    Translation

    Born thrice from brilliant sambus (bivalve shells), thrice from the suns,. and born thrice from all the bounties of Nature, that kustha is an all-cure remedy. It contains the curing principle. May you banish all the fever and all the painful diseases.

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    Translation

    This Kustha is excellent amongst all the healing plants, is like bull in the moving creatures and is like tiger amid wild beasts. Thin... diseases.

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    Translation

    This kushtha is of three kinds due to its being born from three kinds of waters, of rain, of rivers and of sea; also due to three kinds of juices, forming its parts, and also three kinds of months, hot, rainy or cold ones. It is thrice born from all natural forces. Hence this Kustha is curer of all diseases. It says along with Soma, the very essence of all medicines. Let it destroy all kinds of fevers and all kinds of pains of the body.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५−(त्रिः) त्रिवारम्, बाल्ययौवनवार्धकेषु (शाम्बुभ्यः) कृवापा०। उ०१।१। शम्ब सम्बन्धने गतौ च-उण्। उपायशीलेभ्यः (अङ्गिरेभ्यः) अशेर्नित्। उ०१।५२। अगि गतौ-किरच् नित्। विज्ञानिभ्यः (त्रिः) (आदित्येभ्यः) अखण्डव्रतिभ्यः (परि) सर्वतः (त्रिः) (जातः) प्रकटीभूतः (विश्वदेवेभ्यः) सर्वविद्वद्भ्यः (सः) (कुष्ठः) म०१। औषधविशेषः (विश्वभेषजः) सर्वरोगौषधः (सोमेन साकम्) सोमसमानप्रभावेण सह (तिष्ठति) वर्तते। अन्यत् पूर्ववत्-म०१॥

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