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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 39 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 39/ मन्त्र 10
    ऋषिः - भृग्वङ्गिराः देवता - कुष्ठः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कुष्ठनाशन सूक्त
    1

    शी॑र्षलो॒कं तृती॑यकं सद॒न्दिर्यश्च॑ हाय॒नः। त॒क्मानं॑ विश्वधावीर्याध॒राञ्चं॒ परा॑ सुव ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शी॒र्ष॒ऽलो॒कम्। तृ॒तीय॑कम्। स॒द॒म्ऽदिः। यः। च॒। हा॒य॒नः। त॒क्मान॑म्। वि॒श्व॒धा॒ऽवी॒र्य॒। अ॒ध॒राञ्च॑म्। परा॑। सु॒व॒ ॥३९.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शीर्षलोकं तृतीयकं सदन्दिर्यश्च हायनः। तक्मानं विश्वधावीर्याधराञ्चं परा सुव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शीर्षऽलोकम्। तृतीयकम्। सदम्ऽदिः। यः। च। हायनः। तक्मानम्। विश्वधाऽवीर्य। अधराञ्चम्। परा। सुव ॥३९.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 39; मन्त्र » 10
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    रोगनाश करने का उपदेश।

    पदार्थ

    (शीर्षलोकम्) शिर में स्थानवाले [शिर में पीड़ा करनेवाले], (तृतीयकम्) तिजारी, और (यः) जो (सदन्दिः) सदा फूटन करनेवाला (च) और (हायनः) प्रतिवर्ष होनेवाला [ज्वर] है। (विश्वधावीर्य) हे सब प्रकार सामर्थ्यवाले [कुष्ठ !] (तक्मानम्) उस दुःखित जीवन करनेवाले ज्वर को (अधराञ्चम्) नीचे स्थान में (परा सुव) दूर गिरादे ॥१०॥

    भावार्थ

    कुष्ठ महौषध के सेवन से सब प्रकार के ज्वर नष्ट होते हैं ॥१०॥

    टिप्पणी

    इस मन्त्र का उत्तरार्द्ध आ चुका है-अ०५।२२।३॥१०−(शीर्षलोकम्) शिरसि स्थानयुक्तम्। मस्तकपीडकम् (तृतीयकम्) अ०१।२५।४। स्वार्थे कन्। तृतीयदिने आगच्छन्तम् (सदन्दिः) अ०५।२२।१३। सदम्+दाप् छेदने दो अवखण्डने वा-कि। सदा खण्डकम्। पीडकम् (यः) (च) (हायनः) अ०६।१४।३। हायन-अर्शआद्यच्। प्रतिवर्षभवः (तक्मानम्) कृच्छ्रजीवनकरं ज्वरम् (विश्वधावीर्य) हे सर्वथा सामर्थ्योपेत (अधराञ्चम्) अ०५।२२।३। निम्नदेशम् (परा) दूरे (सुव) प्रेरय ॥

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    भाषार्थ

    (शीर्षलोकम्) शिरःस्थानी अर्थात् शीर्षामय का; (तृतीयकम) तीसरे दिन आनेवाले ज्वर को, (यः) जो कि (सदन्दिः)१ शरीर को जकड़ देता है; (च) और (हायनः) जो वार्षिक ज्वर है उसे; (अधराञ्चम्) तथा निचले अङ्गों में व्याप्त होनेवाले (तक्मानम्) कष्टप्रद ज्वर को (विश्वधावीर्य) हे सब प्रकार के सामर्थ्य वाले उत्तम कुष्ठ! (परासुव) तू परे कर दे, हटा दे।

    टिप्पणी

    [शीर्षलोकम्= शिर है लोक अर्थात् स्थान जिसका, ऐसा ज्वर, अर्थात् वह ज्वर जो कि सिर को चढ़ जाता है।] [१. द्र० अथर्व० ५.२२.१३]

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    विषय

    'शीर्षलोक, तृतीयक, सदन्दि, हायन'

    पदार्थ

    १. हे (विश्वधावीर्य) = सब प्रकार के (पराक्रमवाले) = सब रोगों को आक्रान्त करनेवाले कुष्ठ । तू उस (तक्मानम्) = जीवन को कष्टमय बनानेवाले रोग को (अधराञ्चं परासुव) = नीचे गतिवाला करके दूर भगा दे। मलशोधन के साथ उस रोग का भी सफाया कर दे। २. उस रोग को दूर करदे जोकि (शीर्षलोकम्) = सिर को अपना लोक बनाता है। (तृतीयकम्) = जो ज्वर हर तीसरे दिन आने लगता है। (सदन्दिः) = [सदं दो अवखण्डने] जिसके कारण देह सदा टूटती-सी रहती है। (यः च) = और जो (हायन:) = प्रतिवर्ष नियम से आने लगता है। इन सब रोगों को तू दूर भगा दे।

    भावार्थ

    कुष्ठ-प्रयोग शिरोवेदना को, तृतीयक ज्वर को, सदा देहभेदक ज्वर को और वार्षिक ज्वर को दूर कर देता है। जीवन को सर्वथा नीरोग व उत्तम बनानेवाला यह 'ब्रह्मा' है। यही अगले चार सूक्तों का ऋषि है -

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Cure by Kushtha

    Meaning

    O Kushtha, universal tonic and total regenerator, cure, remove and eliminate the brain disorders, third day relapsive fever, stiffness of the body system, yearly recurring ailments, all general diseases and paralysis of the lower half of the body.

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    Translation

    (Fever) causing severe headache, the tertian, the constant one, and the one that comes every year - all that fever, O all- potent (Kustha), may you drive away downwards.

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    Translation

    This is Kustha that of which knows the perfect learned man, that of which knows the man desiring it, that of which knows the inhabitant who is busy in continued search of herbs and therefore this is the medicine of all diseases.

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    Translation

    O kushtha, drive away all the diseases, of the head, the fever, attacking every third day, the constant fever, or the year-long disease, or malignant fevers, by bringing them low by thy various kinds of efficacious powers.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    इस मन्त्र का उत्तरार्द्ध आ चुका है-अ०५।२२।३॥१०−(शीर्षलोकम्) शिरसि स्थानयुक्तम्। मस्तकपीडकम् (तृतीयकम्) अ०१।२५।४। स्वार्थे कन्। तृतीयदिने आगच्छन्तम् (सदन्दिः) अ०५।२२।१३। सदम्+दाप् छेदने दो अवखण्डने वा-कि। सदा खण्डकम्। पीडकम् (यः) (च) (हायनः) अ०६।१४।३। हायन-अर्शआद्यच्। प्रतिवर्षभवः (तक्मानम्) कृच्छ्रजीवनकरं ज्वरम् (विश्वधावीर्य) हे सर्वथा सामर्थ्योपेत (अधराञ्चम्) अ०५।२२।३। निम्नदेशम् (परा) दूरे (सुव) प्रेरय ॥

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