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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 10/ मन्त्र 1
    सूक्त - भृग्वङ्गिराः देवता - त्रिषन्धिः छन्दः - विराट्पथ्या बृहती सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त

    उत्ति॑ष्ठत॒ सं न॑ह्यध्व॒मुदा॑राः के॒तुभिः॑ स॒ह। सर्पा॒ इत॑रजना॒ रक्षां॑स्य॒मित्रा॒ननु॑ धावत ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । ति॒ष्ठ॒त॒ । सम् । न॒ह्य॒ध्व॒म् । उत्ऽआ॑रा: । के॒तुऽभि॑: । स॒ह । सर्पा॑: । इत॑रऽजना: । रक्षां॑सि । अ॒मित्रा॑न् । अनु॑ । धा॒व॒त॒ ॥१२.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत्तिष्ठत सं नह्यध्वमुदाराः केतुभिः सह। सर्पा इतरजना रक्षांस्यमित्राननु धावत ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । तिष्ठत । सम् । नह्यध्वम् । उत्ऽआरा: । केतुऽभि: । सह । सर्पा: । इतरऽजना: । रक्षांसि । अमित्रान् । अनु । धावत ॥१२.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 10; मन्त्र » 1

    मन्त्रार्थ -
    (उदाराः) स्फोटक पदार्थों को ऊपर फेंकने वाले अस्त्रों ! या ऐसे अस्त्रों के प्रयोग करने वाले सैनिको ! तुम (केतुभिः सह) अपने स्फोटक संकेतों के साथ (उतिष्ठत) उठो (सं नह्ययध्वम्) शत्रुनों पर प्रहार करने को सन्नद्ध हो जाओ तैयार हो जाओ (सर्पाः) सर्पणशील विषमय जन्तुओं के विषास्त्रों या उनके प्रयोक्ता जनो ! (इतरजना:) उनसे भिन्न जन्यमान वनस्पतियों के विषप्रयोगो या उनके प्रयोक्ता जनो ! (रक्षांसि) रक्षा जिनसे की जावे ऐसे खनिज विष के प्रयोगों ! या उनके प्रयोक्ताओ ! (अमित्रान् अनुधावत) शत्रुओं के प्रति दौड़ो ॥१॥

    विशेष - ऋषिः-भृग्वङ्गिराः (भर्जनशील अग्निप्रयोगवेत्ता) देवता – त्रिषन्धिः ( गन्धक, मनः शिल, स्फोट पदार्थों का अस्त्र )

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