अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 10/ मन्त्र 5
सूक्त - भृग्वङ्गिराः
देवता - त्रिषन्धिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
उत्ति॑ष्ठ॒ त्वं दे॑वज॒नार्बु॑दे॒ सेन॑या स॒ह। अ॒यं ब॒लिर्व॒ आहु॑त॒स्त्रिष॑न्धे॒राहु॑तिः प्रि॒या ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । ति॒ष्ठ॒ । त्वम् । दे॒व॒ऽज॒न॒ । अर्बु॑दे । सेन॑या । स॒ह । अ॒यम् । ब॒लि: । व॒: । आऽहु॑त: । त्रिऽसं॑धे: । आऽहु॑ति: । प्रि॒या ॥१२.५॥
स्वर रहित मन्त्र
उत्तिष्ठ त्वं देवजनार्बुदे सेनया सह। अयं बलिर्व आहुतस्त्रिषन्धेराहुतिः प्रिया ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । तिष्ठ । त्वम् । देवऽजन । अर्बुदे । सेनया । सह । अयम् । बलि: । व: । आऽहुत: । त्रिऽसंधे: । आऽहुति: । प्रिया ॥१२.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 10; मन्त्र » 5
मन्त्रार्थ -
(देवजन-अबुर्दे) विजिगिषु विद्युदस्त्र प्रयोक्ता ! (त्वं सेनया सह-उतिष्ठ) तू सेना के साथ उठ (वः) तेरी (अयं बलि:आहुतः) संग्राम यज्ञ में यह बलि-भेंट समन्तरूप से दे दी गयी है- अब तू संग्राम में युद्धार्थ समर्पित कर दिया गया है (त्रिषन्धेः प्रिया आहुति:) और त्रिषन्धि-स्फोटक अस्त्र या उसके प्रयोक्ता न्यर्बुदि की संग्राम में अभीष्ट आहुति भी तेरे साथ देदी गयी है तुम दोनों के द्वारा संग्राम में विजय होना चाहिए ॥५॥
विशेष - ऋषिः-भृग्वङ्गिराः (भर्जनशील अग्निप्रयोगवेत्ता) देवता – त्रिषन्धिः ( गन्धक, मनः शिल, स्फोट पदार्थों का अस्त्र )
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