अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 4/ मन्त्र 11
सूक्त - गरुत्मान्
देवता - तक्षकः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सर्पविषदूरीकरण सूक्त
पै॒द्वस्य॑ मन्महे व॒यं स्थि॒रस्य॑ स्थि॒रधा॑म्नः। इ॒मे प॒श्चा पृदा॑कवः प्र॒दीध्य॑त आसते ॥
स्वर सहित पद पाठपै॒द्वस्य॑ । म॒न्म॒हे॒ । व॒यम् । स्थि॒रस्य॑ । स्थि॒रऽधा॑म्न: । इ॒मे । प॒श्चा । पृदा॑कव: । प्र॒ऽदीध्य॑त: । आ॒स॒ते॒ ॥४.११॥
स्वर रहित मन्त्र
पैद्वस्य मन्महे वयं स्थिरस्य स्थिरधाम्नः। इमे पश्चा पृदाकवः प्रदीध्यत आसते ॥
स्वर रहित पद पाठपैद्वस्य । मन्महे । वयम् । स्थिरस्य । स्थिरऽधाम्न: । इमे । पश्चा । पृदाकव: । प्रऽदीध्यत: । आसते ॥४.११॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 4; मन्त्र » 11
विषय - पृदाकव: प्रदीध्यतः
पदार्थ -
१. (वयम्) = हम (स्थिरस्य) = स्थिरवृत्तिवाले, (स्थिरधाम्न:) = स्थिर तेजवाले. (पैद्वस्य) = गतिशील व्यक्ति का (मन्महे) = मनन करते हैं, इसके जीवन का चिन्तन करते हैं। (इमे) = ये पैट लोग (पृदाकव:) = [पृदाकु] पालन के लिए दान की वृत्तिवाले (प्रदीध्यतः) = [दीधीङ्दीप्तौ] दीस जीवनवाले (पश्चा आसते) = विषय-व्यावृत होकर पीछे ही बैठते हैं। प्रत्याहार' की साधना करते हुए ये लोग विषयों में नहीं फैसते।
भावार्थ -
स्थिर, स्थिरधाम्ना, पैद' लोगों का चिन्तन करते हुए हम भी 'गतिशील, स्थिर वृत्तिवाले व स्थिर तेजवाले' बनें। दान की वृत्तिवाले व दीप्त जीवनवाले बनकर हम विषय व्यावृत रहें।
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