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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 4/ मन्त्र 13
    सूक्त - गरुत्मान् देवता - तक्षकः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सर्पविषदूरीकरण सूक्त

    ह॒तास्तिर॑श्चिराजयो॒ निपि॑ष्टासः॒ पृदा॑कवः। दर्विं॒ करि॑क्रतं श्वि॒त्रं द॒र्भेष्व॑सि॒तं ज॑हि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ह॒ता: । तिर॑श्चिऽराजय: । निऽपि॑ष्टास: । पृदा॑कव: । दर्वि॑म् । करि॑क्रतम् । श्वि॒त्रम् । द॒र्भेषु॑ । अ॒सि॒तम् । ज॒हि॒ ॥४.१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हतास्तिरश्चिराजयो निपिष्टासः पृदाकवः। दर्विं करिक्रतं श्वित्रं दर्भेष्वसितं जहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    हता: । तिरश्चिऽराजय: । निऽपिष्टास: । पृदाकव: । दर्विम् । करिक्रतम् । श्वित्रम् । दर्भेषु । असितम् । जहि ॥४.१३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 4; मन्त्र » 13

    पदार्थ -

    १. (तिरश्चिराजय:) = कुटिलता [crooked] व छल-छिद्र की पंक्तियाँ (हता:) = नष्ट की गई हैं। (पृदाकव:) = [पिपर्ति स्वम्, 'पिपर्तेर्दाकुर्हस्वश्च'] आत्मम्भरिता व स्वार्थ को वृत्तियाँ (निपिष्टास:) = पीस डाली गई हैं। २. (दर्विम्) = विदारण की वृत्ति को (करिक्रतम्) = अतिशयेन कृन्तन [छेदन] की वृत्ति को (श्वित्रम्) = कुष्ठादि रोगों को व (असितम्) = कृष्ण [मलिन] कर्मों को (दर्भेषु) = यज्ञार्थ यज्ञवेदि पर कुशाओं के आस्तिर्ण होने पर (जहि) = नष्ट कर डाल।

    भावार्थ -

    हम यज्ञशील बनें। यज्ञीय वृत्ति के द्वारा हम 'कुटिलता, स्वार्थ, विदारणवृत्ति, छेदन-भेदन की वृत्ति, रोगों व अशुभ कर्मों को नष्ट कर डालें।'

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