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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 4/ मन्त्र 15
    सूक्त - गरुत्मान् देवता - तक्षकः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सर्पविषदूरीकरण सूक्त

    आयम॑ग॒न्युवा॑ भि॒षक्पृ॑श्नि॒हाप॑राजितः। स वै स्व॒जस्य॒ जम्भ॑न उ॒भयो॒र्वृश्चि॑कस्य च ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । अ॒यम् । अ॒ग॒न् । युवा॑ । भि॒षक् । पृ॒श्नि॒ऽहा । अप॑राऽजित: । स: । वै । स्व॒जस्य॑ । जम्भ॑न: । उ॒भयो॑: । वृश्चि॑कस्य । च॒ ॥४.१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आयमगन्युवा भिषक्पृश्निहापराजितः। स वै स्वजस्य जम्भन उभयोर्वृश्चिकस्य च ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । अयम् । अगन् । युवा । भिषक् । पृश्निऽहा । अपराऽजित: । स: । वै । स्वजस्य । जम्भन: । उभयो: । वृश्चिकस्य । च ॥४.१५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 4; मन्त्र » 15

    पदार्थ -

    १. गतमन्त्र के अनुसार आचार्यों से ज्ञान प्राप्त करनेवाला (अयम्) = यह (युवा) = बुराइयों को दूर करनेवाला व अच्छाइयों को अपने साथ मिलानेवाला (भिषक्) = पापरूप रोगों का चिकित्सक (पृश्निहा) = [पृश्नि A ray of light हन् गती] प्रकाश की किरणों को प्राप्त करनेवाला (अपराजित:) = वासनाओं से पराजित न होनेवाला युवक (आ अगन्) = आया है। २. (सः) = वह (वै) = निश्चय से 'आरपटजानेवाली व वविक्षित गति पैदा (स्वजस्य) = [स्वज आलिंगने, सु अज गतिक्षेपणयोः] चिपट जानेवाली व विक्षिप्त गति पैदा करनेवाली तृष्णावृत्ति, (वृशिकस्य च) = [व्रश्च् छेदने] और छेदन-भेदन की वृत्ति (उभयो:) = दोनों का ही (जम्भन:) = नाश करनेवाला है।

     

    भावार्थ -

    ज्ञान प्राप्त करके हम 'युवा, भिषक् पृश्निहा व अपराजित' बनें। तृष्णा व छेदन भेदन की वृत्ति का विनाश करें।

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