अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 4/ मन्त्र 21
सूक्त - गरुत्मान्
देवता - तक्षकः
छन्दः - ककुम्मत्यनुष्टुप्
सूक्तम् - सर्पविषदूरीकरण सूक्त
ओष॑धीनाम॒हं वृ॑ण उ॒र्वरी॑रिव साधु॒या। नया॒म्यर्व॑तीरि॒वाहे॑ नि॒रैतु॑ ते वि॒षम् ॥
स्वर सहित पद पाठओष॑धीनाम् । अ॒हम् । वृ॒णे॒ । उ॒र्वरी॑:ऽइव । सा॒धु॒ऽया । नया॑मि । अर्व॑ती:ऽइव । अहे॑ । नि॒:ऽऐतु॑ । ते॒ । वि॒षम् ॥४.२१॥
स्वर रहित मन्त्र
ओषधीनामहं वृण उर्वरीरिव साधुया। नयाम्यर्वतीरिवाहे निरैतु ते विषम् ॥
स्वर रहित पद पाठओषधीनाम् । अहम् । वृणे । उर्वरी:ऽइव । साधुऽया । नयामि । अर्वती:ऽइव । अहे । नि:ऽऐतु । ते । विषम् ॥४.२१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 4; मन्त्र » 21
विषय - ओषधिवरण
पदार्थ -
१. हे (अहे) = हिंसावृत्ते! (अहं) = मैं (ओषधीनाम्) = [आचार्यो मृत्युवरुण ओषधयः पयः] आचार्यों का (वृणे) = वरण करता हूँ। (इव) = जिस प्रकार (उर्वरी:) = उपजाऊ भूमियों [fertile soil] का (साधुया) = उत्तमता से वरण किया जाता है। इन उपजाऊ भूमियों का वरण अन्नों को प्राप्त कराता है। इसी प्रकार आचार्यों का वरण ज्ञान-जलों को प्राप्त कराता है। २. इन आचार्यों से प्राप्त ज्ञान जलों को मैं इसप्रकार (नयामि) = अपने जीवन में प्राप्त कराता हूँ, (इव) = जैसेकि (अर्वती:) = [अw to kill] शत्रुसंहारक घोड़ियों को योद्धा युद्धभूमि में प्राप्त कराता है, अत: हे हिंसावृत्ते! (ते विषम् निरैतु)-तेरा विष मेरे जीवन से बाहर निकल जाए।
भावार्थ -
आचार्यों का वरण करते हुए हम ज्ञान-जलों में हिंसा की वृत्तियों के विष को धो डालें। ज्ञान हमसे द्वेष व हिंसा को दूर कर दे।
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