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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 4/ मन्त्र 16
    सूक्त - गरुत्मान् देवता - तक्षकः छन्दः - त्रिपदा प्रतिष्ठा गायत्री सूक्तम् - सर्पविषदूरीकरण सूक्त

    इन्द्रो॒ मेऽहि॑मरन्धयन्मि॒त्रश्च॒ वरु॑णश्च। वा॑तापर्ज॒न्यो॒भा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑: । मे॒ । अहि॑म् । अ॒र॒न्ध॒य॒त् । मि॒त्र: । च॒ । वरु॑ण: । च॒ । वा॒ता॒प॒र्ज॒न्या᳡ । उ॒भा ॥४.१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रो मेऽहिमरन्धयन्मित्रश्च वरुणश्च। वातापर्जन्योभा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र: । मे । अहिम् । अरन्धयत् । मित्र: । च । वरुण: । च । वातापर्जन्या । उभा ॥४.१६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 4; मन्त्र » 16

    पदार्थ -

    १. (इन्द्र) = जितेन्द्रियता की देवता (मे) = मेरी (अहिम्) = आहन्ति-कामवृत्ति को-ज्ञान पर पर्दे के रूप में आ जानेवाली वासना को (अरन्धयत्) = नष्ट करती है। इसी प्रकार (मित्राः च वरुण: च) = सबके प्रति स्नेह तथा निर्द्वषता की भावना मेरी इस वासना को नष्ट करती है। इसी प्रकार (उभा) = दोनों (वातापर्जन्या) = वात व पर्जन्य-क्रियाशीलता की देवता[वा गती] तथा सुखों को सिक्त करने की भावना [पृषु सेचने-उ०३।१०३] मेरे लिए वासना को विनष्ट करें।

    भावार्थ -

    'जितेन्द्रियता, स्नेह की भावना, नि?षता, क्रियाशीलता व सुखसेचनवृत्ति' को धारण करते हुए हम वासना को विनष्ट करनेवाले बनें।

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