Loading...

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 4/ मन्त्र 25
    सूक्त - गरुत्मान् देवता - तक्षकः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सर्पविषदूरीकरण सूक्त

    अङ्गा॑दङ्गा॒त्प्र च्या॑वय॒ हृद॑यं॒ परि॑ वर्जय। अधा॑ वि॒षस्य॒ यत्तेजो॑ऽवा॒चीनं॒ तदे॑तु ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अङ्गा॑त्ऽअङ्गात् । प्र । च्य॒व॒य॒ । हृद॑यम् । परि॑ । व॒र्ज॒य॒ । अध॑ । वि॒षस्य॑ । यत् । तेज॑: । अ॒वा॒चीन॑म् । तत् । ए॒तु॒ । ते॒ ॥४.२५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अङ्गादङ्गात्प्र च्यावय हृदयं परि वर्जय। अधा विषस्य यत्तेजोऽवाचीनं तदेतु ते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अङ्गात्ऽअङ्गात् । प्र । च्यवय । हृदयम् । परि । वर्जय । अध । विषस्य । यत् । तेज: । अवाचीनम् । तत् । एतु । ते ॥४.२५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 4; मन्त्र » 25

    पदार्थ -

    १. (अङ्गात् अङ्गात् प्रच्यावय) = एक-एक अङ्ग से विष के इस तेज को प्रच्युत कर दे। (हृदयं परिवर्जय) = हृदय को इस विष के तेज से पृथक् कर दे। 'इा, द्वेष, क्रोध' आदि से भी शरीर में विष उत्पन्न हो जाता है। इस विष को हम प्रत्येक अङ्ग से दूर करें- हृदय में तो इसे उत्पन्न ही न होने दें। २. (अध) = अब (विषस्य यत् तेजः) = विष का जो तेज है, (तत्) = वह (ते अवाचीनं एतु) = तेरे नीचे गतिबाला हो, अर्थात् तू उसे पाँव तले रौंद डाल।

    भावार्थ -

    हम ईर्ष्या आदि से उत्पन्न हो जानेवाले विष को अपने से दूर करें-हृदय में तो यह विष स्थान न हो पाए। इस विष के तेज को हम पादाक्रान्त कर पाएँ।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top