अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 4/ मन्त्र 26
सूक्त - गरुत्मान्
देवता - तक्षकः
छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदा बृहतीगर्भा ककुम्मती भुरिक्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सर्पविषदूरीकरण सूक्त
आ॒रे अ॑भूद्वि॒षम॑रौद्वि॒षे वि॒षम॑प्रा॒गपि॑। अ॒ग्निर्वि॒षमहे॒र्निर॑धा॒त्सोमो॒ निर॑णयीत्। दं॒ष्टार॒मन्व॑गाद्वि॒षमहि॑रमृत ॥
स्वर सहित पद पाठआ॒रे । अ॒भू॒त् । वि॒षम् । अ॒रौ॒त् । वि॒षे । वि॒षम् । अ॒प्रा॒क् । अपि॑ । अ॒ग्नि: । वि॒षम् । अहे॑: । नि: । अ॒धा॒त् । सोम॑: । नि: । अ॒न॒यी॒त् । दं॒ष्टार॑म् । अनु॑ । अ॒गा॒त् । वि॒षम् । अहि॑: । अ॒मृ॒त॒: ॥४.२६॥
स्वर रहित मन्त्र
आरे अभूद्विषमरौद्विषे विषमप्रागपि। अग्निर्विषमहेर्निरधात्सोमो निरणयीत्। दंष्टारमन्वगाद्विषमहिरमृत ॥
स्वर रहित पद पाठआरे । अभूत् । विषम् । अरौत् । विषे । विषम् । अप्राक् । अपि । अग्नि: । विषम् । अहे: । नि: । अधात् । सोम: । नि: । अनयीत् । दंष्टारम् । अनु । अगात् । विषम् । अहि: । अमृत: ॥४.२६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 4; मन्त्र » 26
विषय - विष-चिकित्सा क्रम
पदार्थ -
१. (विषम् आरे अभूत्) = विष दूर हो गया है, चूंकि वैद्य ने विष (अरौत्) = विष को रोक दिया है। दंश स्थान से कुछ ऊपर कसकर पट्टी बाँध देने से शरीर में विष फैला नहीं। अब वैद्य ने (विषे) = उस विष में (विषम्) = सजातीय विष को (अपि) = भी (अप्राक्) = [अपर्चीत] मिला दिया है। २. अब वैद्य ने उस दंशस्थान को जलाया है और इसप्रकार (अग्निः) = अग्नि ने (आहे: विषम्) = सर्प के विष को (निरधात्) = बाहर कर दिया है। (सोमः निः अनयीत्) = शरीरस्थ सोमशक्ति ने भी इसे बाहर प्राप्त कराया है अथवा सोम ओषधि इसे बाहर ले जाती है। इसप्रकार करने से (दंष्टारम्) = डसनेवाले साँप को ही (विषम् अनु अगात्) = विष फिर से प्राप्त हुआ है और (अहिः) = अमृत-साँप मर गया है।
भावार्थ -
सर्प आदि के दंश में पहले उस स्थान से कुछ ऊपर पट्टी बाँध देना आवश्यक है, पुनः सजातीय विष को वहाँ संपृक्त करना ठीक है। अग्नि से उस स्थान को दग्ध करना चाहिए, 'सोम' नामक ओषधि का प्रयोग वाञ्छनीय है। ऐसा करने पर सर्पविष मानो उसी सर्प को प्राप्त हो जाता है और उसकी मृत्यु का कारण बनता है। ___ पञ्चम सूक्त के १ से २४ तक मन्त्रों का ऋषि सिन्धुदीप' है। "सिन्धवः आप: द्विः गताः यस्मिन' शरीर में रेत:कणों के रूप में प्रवाहित होनेवाले जल दो प्रकार से शरीर में शक्तिरूप से तथा मस्तिष्क में दीति के रूप से प्राप्त हुए हैं जिसमें, वह व्यक्ति 'सिन्धुद्वीप है। यह इन 'आप:' [रेत:कणरूप जलों] को सम्बोधित करता हुआ कहता है कि -
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