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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 71 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 71/ मन्त्र 10
    ऋषिः - पराशरः शाक्तः देवता - अग्निः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    मा नो॑ अग्ने स॒ख्या पित्र्या॑णि॒ प्र म॑र्षिष्ठा अ॒भि वि॒दुष्क॒विः सन्। नभो॒ न रू॒पं ज॑रि॒मा मि॑नाति पु॒रा तस्या॑ अ॒भिश॑स्ते॒रधी॑हि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा । नः॒ । अ॒ग्ने॒ । स॒ख्या । पित्र्या॑णि । प्र । म॒र्षि॒ष्ठाः॒ । अ॒भि । वि॒दुः । क॒विः । सन् । नभः॑ । न । रू॒पम् । ज॒रि॒मा । मि॒ना॒ति॒ । पु॒रा । तस्याः॑ । अ॒भिऽश॑स्तेः । अधि॑ । इ॒हि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मा नो अग्ने सख्या पित्र्याणि प्र मर्षिष्ठा अभि विदुष्कविः सन्। नभो न रूपं जरिमा मिनाति पुरा तस्या अभिशस्तेरधीहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मा। नः। अग्ने। सख्या। पित्र्याणि। प्र। मर्षिष्ठाः। अभि। विदुः। कविः। सन्। नभः। न। रूपम्। जरिमा। मिनाति। पुरा। तस्याः। अभिऽशस्तेः। अधि। इहि ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 71; मन्त्र » 10
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 16; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स विद्वान् कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे अग्ने ! पावकवज्जरिमा कविर्विदुः संस्त्वं नमो रूपं न तथा नोऽस्माकं पुरा पित्र्याणि सख्या माभिप्रमर्षिष्ठास्तस्या अभिशस्तेर्नाशस्याधीहि एवं भूतः सन् यः सुखं मिनाति तं दूरीकरु ॥ १० ॥

    पदार्थः

    (मा) निषेधे (नः) अस्माकम् (अग्ने) सर्वविद्याऽभिव्याप्त विद्वन् (सख्या) मित्रभावकर्माणि (पित्र्याणि) पितृभ्य आगतानि (प्र) प्रकृष्टार्थे (मर्षिष्ठाः) विनाशयेः (अभि) अभितः (विदुः) वेत्ता (कविः) पूर्णविद्यः (सन्) वर्त्तमानः (नभः) अन्तरिक्षम् (न) इव (रूपम्) रूपवद्वस्तु (जरिमा) एतस्याः स्तुतेर्भावयुक्तः (मिनाति) हन्ति (पुरा) पुरातनानि (तस्याः) उक्तायाः (अभिशस्तेः) हिंसायाः (अधि) उपरिभावे (इहि) स्मर ॥ १० ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा रूपवन्तः पदार्थाः सूक्ष्मावस्थां प्राप्यान्तरिक्षेऽदृश्या भवन्ति। तथाऽस्माकं सखित्वानि नष्टानि न भवेयुर्यतः सर्वे वयं सर्वथा विरोधं विहाय परस्परं सुहृदो भूत्वा सर्वदा सुखिनः स्याम ॥ १० ॥ अत्रेश्वरसभाध्यक्षस्त्रीपुरुषविद्युद्विद्वद्गुणवर्णनं कृतमत एतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) सब विद्याओं को प्राप्त हुए विद्वन् ! (जरिमा) स्तुति के योग्य (कविः) पूर्णविद्या को (विदुः) जाननेवाले (सन्) होकर आप (नभोरूपं न) जैसे आकाश सब रूपवाले पदार्थों को अपने में नाश के समय गुप्त कर लेता है, वैसे (नः) हम लोगों के (पुरा) प्राचीन (पित्र्याणि) पिता आदि से आए हुए (सख्या) मित्रता आदि कर्मों को (माभि प्र मर्षिष्ठाः) नष्ट मत कीजिए और (तस्याः) उस (अभिशस्तेः) नाश को (अधीहि) अच्छी प्रकार स्मरण रखिये, इस प्रकार का होकर जो सुख को (मिनाति) नष्ट करता है, उसको दूर कीजिये ॥ १० ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे रूपवाले पदार्थ सूक्ष्म अवस्था को प्राप्त होकर अन्तरिक्ष में नहीं दीखते, वैसे हम लोगों के मित्रपन आदि व्यवहार नष्ट न होवें, किन्तु हम सब लोग विरोध सर्वथा छोड़कर परस्पर मित्र होके सब काल में सुखी रहें ॥ १० ॥ इस सूक्त में ईश्वर, सभाध्यक्ष, स्त्री, पुरुष, बिजुली और विद्वानों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्तार्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ संगति समझनी चाहिये ॥

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    विषय

    बुढ़ापे से पूर्व ही

    पदार्थ

    १. प्रभु जीव से कहते हैं कि हे (अग्ने) = प्रगतिशील जीव ! तू (नः) = हमारी (पित्र्याणि सख्या) = पिता - सम्बन्धी मित्रताओं को - पिता को पुत्र के साथ जैसे स्वाभाविक प्रेम होता है, उसी प्रकार मुझे जो तुझसे प्रेम है, उस प्रेम को (मा प्रमर्षिष्ठाः) = नष्ट मत होने दे । (अभि) = दोनों ओर (विदुः) = ज्ञानी, ज्ञानी ही नहीं (कविः) = क्रान्तदर्शी (सन्) = होता हुआ तू इन मित्रताओं को नष्ट मत कर । प्रभु की मित्रता को छोड़कर प्रकृति में फंसने का क्या परिणाम है, इसे भी तु समझता है और प्रकृति से अनासक्त होकर प्रभु की मैत्री को आनन्द को भी तू जानता है । इस प्रकार दोनों को जानता हुआ तू प्रेय में न फँसकर श्रेय का ही अवलम्बन करना । २. (न) = जैसे (रूपम्) = एक [Robe] वस्त्र के तुल्य बादल (नभः) = आकाश को आवृत कर लेता है, उसी प्रकार (जरिमा) = बुढ़ापा (रूपम्) = सब सौन्दर्य को (मिनाति) = हिंसित कर देता है । (तस्याः अभिशस्तेः पुरा) = इस मुसीबत से पहले ही (अधीहि) = तू ज्ञान प्राप्त करनेवाला बन, अपने स्वरूप को पहचाननेवाला बन । यदि ‘इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति’ - यहाँ ही तूने अपने रूप को जान लिया तो ठीक है, ‘न चेदिहावेदीन् महती विनष्टिः’ - और यदि यहाँ नहीं जाना तो सिवाय महाविनाश के कुछ भी नहीं है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम प्रभु व प्रकृति की तुलना करते हुए प्रभु की मैत्री को अपनाएँ । बुढ़ापे से पूर्व ही ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न करें ।

    विशेष / सूचना

    विशेष - सूक्त का आरम्भ इस प्रकार हुआ कि हम प्रभुरूप पति को प्राप्त करें [१] । वासनारूप पर्वत का विदारण करें [२] । ऋत के मार्ग पर चलें [३] । प्राणायाम द्वारा जाठराग्नि को ठीक रक्खें [४] । मधुरभाषी व अनासक्त बनें [५] । शरीररूप रथ ठीक हो तथा धन को प्राप्त करें [६] । हमारा जीवन ज्ञानप्रधान हो न कि भोगप्रधान [७] । हम तेजस्वितामय सुन्दर जीवन को प्राप्त करें [८] । अमृतत्व का रक्षण करें [९] । बुढ़ापें से पूर्व ही ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न करें [१०] । ज्ञान - प्राप्ति के लिए प्रभु के सनातन काव्य वेद को अपनाएँ - इन शब्दों से अगला सूक्त आरम्भ होता है -

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    विषय

    प्रभु राजा से प्रार्थना ।

    भावार्थ

    हे ( अग्ने ) ज्ञानवन् ! अग्रणी राजन् ! प्रभो ! तू ( नः ) हमारे ( पित्र्याणि ) पितामह आदि से चले आये ( सख्या ) मैत्री भावों को ( मा प्रमर्षिष्ठाः ) नष्ट मत होने दे । तू ( कविः ) क्रान्तदर्शी, विद्वान् और (विदुः) सब पदार्थों के जानने हारा होकर ( अभिसन् ) सदा हमारे सन्मुख रह । (जरिमा) बुढ़ापा (रूपं) इस रूप को (नभः न ) जल के समान या मेघखण्ड के समान (मिमाति) नाश कर देता है (तस्याः अभिशस्तेः ) महा विपत्तियां, संकट या मृत्यु के ( पुरा ) पहले ही तू हमें (अधि-इहि ) ज्ञान प्रदान कर । इति षोडशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पराशर ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१, ६, ७ त्रिष्टुप् । २, ५ निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ४, ८, १० विराट् त्रिष्टुप् । भूरिक् पंक्तिः ॥

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    विषय

    विषय (भाषा)- फिर वह विद्वान् कैसा हो, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे अग्ने ! पावकवत् जरिमा कविः विदुः सन् त्वं नमः रूपं न तथा नः अस्माकं पुरा पित्र्याणि सख्या मा अभि प्र मर्षिष्ठाः तस्याः अभिशस्तेः नाशस्य अधि इहि एवं भूतः सन् यः सुखं मिनाति तं दूरीकरु॥१०॥

    पदार्थ

    पदार्थः- हे (अग्ने) सर्वविद्याऽभिव्याप्त विद्वन्=समस्त विद्याओं को प्राप्त किये हुए विद्वान् ! (पावकवत्)=पवित्र करनेवाले के समान, (जरिमा) एतस्याः स्तुतेर्भावयुक्तः= इसके स्तुति करने के भाव से युक्त होने पर, (कविः) पूर्णविद्यः=समस्त विद्याओं के, (विदुः) वेत्ता=जाननेवाले, (सन्)=होते हुए, (त्वम्)=तुम, (नभः) अन्तरिक्षम्=अन्तरिक्ष की, (रूपम्) रूपवद्वस्तु =रूप के समान वस्तु के, (न) इव=समान, (तथा) =वैसे ही, (नः) अस्माकम् =हमें, (पुरा) पुरातनानि=पुराने, (पित्र्याणि) पितृभ्य आगतानि=माता-पिता के लिये आये हुए, (सख्या) मित्रभावकर्माणि=मित्र भाव के कर्मों का, (मा) निषेधे=नहीं, (अभि) अभितः=हर ओर से, (प्र) प्रकृष्टार्थे =प्रकृष्ट रूप से, (मर्षिष्ठाः) विनाशयेः=विनाश करें, (तस्याः) उक्तायाः=कही गई, (अभिशस्तेः) हिंसायाः=हिंसा के, (नाशस्य)= नाश करने के, (अधि) उपरिभावे=पश्चात्, (इहि) स्मर =स्मरण करो, (एवम्)=ऐसे ही, (भूतः)=भूत काल का और, (सन्) वर्त्तमानः= वर्त्तमान समय के, (यः)=जो, (सुखम्)= सुख को, (मिनाति) हन्ति= नष्ट करता है, (तम्)उसको, (दूरीकरु)= दूर कीजिये ॥१०॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे रूपवाले पदार्थ सूक्ष्म अवस्था को प्राप्त होकर अन्तरिक्ष में अदृश्य हो जाते हैं। वैसे ही मित्रता का भाव नष्ट न होवे, इसलिये हम सब लोगों को विरोध को पूरी तरह से त्याग कर परस्पर मित्र हो करके सदा में सुखी होना चाहिए ॥ १० ॥

    विशेष

    महर्षिकृत सूत्र के भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस सूक्त में ईश्वर, सभाध्यक्ष, स्त्री, पुरुष, विद्युत् और विद्वानों के गुणों का वर्णन किये जाने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ संगति समझनी चाहिये ॥१०॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (अग्ने) समस्त विद्याओं को प्राप्त किये हुए विद्वान् ! (पावकवत्) पवित्र करनेवाले के समान, (जरिमा) इसके स्तुति करने के भाव से युक्त होने पर, (कविः) समस्त विद्याओं के (विदुः) जाननेवाले (सन्) होते हुए, (त्वम्) तुम (नभः) अन्तरिक्ष के (रूपम्) रूप के समान की वस्तु के (न) समान (तथा) वैसे ही, (नः) हमें (पुरा) पुराने (पित्र्याणि) माता-पिता के लिये आये हुए, (सख्या) मित्र भाव के कर्मों का (अभि) हर ओर से (प्र) प्रकृष्ट रूप से (मा+मर्षिष्ठाः) विनाश न करें। (तस्याः) कही गई (अभिशस्तेः) हिंसा के (नाशस्य) नाश करने के (अधि) पश्चात् [उसे] (इहि) स्मरण रखो, (एवम्) ऐसे ही (भूतः) भूत काल के और (सन्) वर्त्तमान काल के (यः) जो (सुखम्) सुख हैं, [उनको जो] (मिनाति) नष्ट करता है, (तम्) उसको (दूरीकरु) दूर कीजिये ॥१०॥

    संस्कृत भाग

    मा । नः॒ । अ॒ग्ने॒ । स॒ख्या । पित्र्या॑णि । प्र । म॒र्षि॒ष्ठाः॒ । अ॒भि । वि॒दुः । क॒विः । सन् । नभः॑ । न । रू॒पम् । ज॒रि॒मा । मि॒ना॒ति॒ । पु॒रा । तस्याः॑ । अ॒भिऽश॑स्तेः । अधि॑ । इ॒हि॒ ॥ विषयः- पुनः स विद्वान् कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा रूपवन्तः पदार्थाः सूक्ष्मावस्थां प्राप्यान्तरिक्षेऽदृश्या भवन्ति। तथाऽस्माकं सखित्वानि नष्टानि न भवेयुर्यतः सर्वे वयं सर्वथा विरोधं विहाय परस्परं सुहृदो भूत्वा सर्वदा सुखिनः स्याम ॥१०॥ सूत्रस्य भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रेश्वरसभाध्यक्षस्त्रीपुरुषविद्युद्विद्वद्गुणवर्णनं कृतमत एतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥१०॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जसे आकारयुक्त पदार्थ सूक्ष्म अवस्थेत अंतरिक्षात दिसत नाहीत तसे आमची मैत्री वगैरे व्यवहार नष्ट होता कामा नयेत तर आम्ही सर्वांनी सर्वस्वी विरोध सोडून परस्पर मित्र बनून सर्व काळी सुखी राहावे. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Agni, lord giver and protector of life, let not our ancestral values of love and friendship be destroyed, all-knowing and visionary creator as you are. Old age destroys the health and beauty of life as the cloud covers and hides the sun and sky. Lord protector and preserver, come before the onslaught of that, stop that and help us preserve ourselves.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is a learned person is taught in the tenth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O wise and fire like purifying leader, thou Who art a devotee and knower of subtle substances, don't dissolve our old friendship as the firmament counceals in itself objects of various forms at the time of dissolution. Before that time of dissolution comes, remember the evils of the destruction and who ever dissolves that friendship, keep him away.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अग्ने) सर्व विद्याभिव्याप्त विद्वन् = 0 learned person (जरिमा) एतस्याः स्तुतेः भावयुक्तः = A devotee. (अभिशस्ते :) हिंसाया: = Of violence or destruction. (नभः) अन्तरिक्षम् = Firmament.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As objects with various forms become invisible in the firmament when they are in a subtle condition, in the same manner, let not our friendship be dissolved, so that we may enjoy happiness, being friendly with one another, having given up all animosity.

    Translator's Notes

    जरते-अर्चतिकर्मा (निघ० ३.१४) नभसी- द्यावापृथिवीनाम ( निघ० ३.३० ) So by नभः has been taken the meaning of the middle region. This hymn is connected with the previous hymn, as in this there is the mention of God, President of the Assembly, Electricity and men and women as before. Here ends the commentary on the seventy-first hymn or ‘‘Sixteenth Varga" of the first Mandala of the Rigveda.

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    Subject of the mantra

    Then what kind of scholar should he be? This subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (agne) =scholar who has acquired all the knowledge (pāvakavat)=like the one who purifies, (jarimā)= when it is filled with the feeling of praising, (kaviḥ) =of all knowledge, (viduḥ) =knowers, (san) =being, (tvam) =you, (nabhaḥ) =of space, (rūpam) =of something similar in form, (na) =like, (tathā) =in the same way, (naḥ) =to us, (purā) =old, (pitryāṇi) =came for the parents, (sakhyā) =of friendly gestures of karmas, (abhi) =from every side, (pra) =eminently, (mā+marṣiṣṭhāḥ) =should not destroy, (tasyāḥ) =said, (abhiśasteḥ) =of violence, (nāśasya) =of destroying, (adhi) =afterwards, [use]=to that, (ihi) =keep remembering, (evam) =similarly, (bhūtaḥ) =of past, (san) =of present, (yaḥ) =those, (sukham) =delights are, [unako jo]=to them who, (mināti) =destroys, (tam) =to him, (dūrīkaru)= remove.

    English Translation (K.K.V.)

    O scholar who has acquired all the knowledge! Like the one who purifies, being filled with the friendly gesture of praising it, being the knower of all the vidya, you, like the object of the form of space, in the same way, having come for our old parents, provide us with the deeds of friendship. Do not cause massive destruction from all sides. After destroying the said violence, remember it, similarly, remove whatever destroys the happiness of the past and present.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There are simile and silent vocal simile as figurative at two places in this mantra. Like the substances having form attain subtle state and become invisible in space. Similarly, so that the feeling of friendship does not get destroyed, we all should completely give up opposition and be friends with each other and be happy forever.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    The interpretation of this hymn should be understood to be consistent with the interpretation of the previous hymn by describing the qualities of God, President of the Assembly, woman, man, electricity and scholars in this hymn.

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