ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 71/ मन्त्र 2
वी॒ळु चि॑द्दृ॒ळ्हा पि॒तरो॑ न उ॒क्थैरद्रिं॑ रुज॒न्नङ्गि॑रसो॒ रवे॑ण। च॒क्रुर्दि॒वो बृ॑ह॒तो गा॒तुम॒स्मे अहः॒ स्व॑र्विविदुः के॒तुमु॒स्राः ॥
स्वर सहित पद पाठवी॒ळु । चि॒त् । दृ॒ळ्हा । पि॒तरः॑ । नः॒ । उ॒क्थैः । अद्रि॑म् । रुज॑न् । अङ्गि॑रसः । रवे॑ण । च॒क्रुः । दि॒वः । बृ॒ह॒तः । गा॒तुम् । अ॒स्मे इति॑ । अह॒रिति॑ । स्वः॑ । वि॒वि॒दुः॒ । के॒तुम् । उ॒स्राः ॥
स्वर रहित मन्त्र
वीळु चिद्दृळ्हा पितरो न उक्थैरद्रिं रुजन्नङ्गिरसो रवेण। चक्रुर्दिवो बृहतो गातुमस्मे अहः स्वर्विविदुः केतुमुस्राः ॥
स्वर रहित पद पाठवीळु। चित्। दृळ्हा। पितरः। नः। उक्थैः। अद्रिम्। रुजन्। अङ्गिरसः। रवेण। चक्रुः। दिवः। बृहतः। गातुम्। अस्मे इति। अहरिति। स्वः। विविदुः। केतुम्। उस्राः ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 71; मन्त्र » 2
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः कैः के कथं सेवनीया इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
अस्माभिर्ये पितर उक्थैर्नोस्मान् दृढं केतुं वीळु स्वश्चिदुस्रा गातुमिवाहर्बृहतो दिव इव विविदुः। अङ्गिरसो रवेणाद्रिं रुजन्निवास्मे दुःखनाशं चक्रुस्ते सेवनीयाः ॥ २ ॥
पदार्थः
(वीळु) बलम् (चित्) अपि (दृढा) दृढम्। अत्राकारादेशः। (पितरः) ज्ञानिनः (नः) अस्मान् (उक्थैः) परिभाषितोपदेशैः (अद्रिम्) मेघमिव (रुजन्) भञ्जन्ति (अङ्गिरसः) वायवः (रवेण) स्तुतिसमूहेन (चक्रुः) कुर्वन्ति (दिवः) द्योतकान् (बृहतः) महतः (गातुम्) पृथिवीम् (अस्मे) अस्माकम् (अहः) व्यापनशीलं दिनम् (स्वः) सुखम् (विविदुः) वेदयन्ति (केतुम्) प्रज्ञानम् (उस्राः) किरणाः ॥ २ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैराप्तान् विदुषः संसेव्य विद्यां प्राप्य प्रज्ञामुत्पाद्य धर्मार्थकाममोक्षफलानि सेवनीयानि ॥ २ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर किनकी कौन कैसे सेवा करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थ
हम लोगों को चाहिये कि जो (पितरः) ज्ञानी मनुष्य (उक्थैः) कहे हुए उपदेशों से (नः) हम लोगों के (दृढा) दृढ़ (केतुम्) प्रज्ञा (वीळु) बल (स्वः) (चित्) और सुख को (उस्राः) किरण वा (गातुम्) पृथिवी के समान (अहः) तथा दिन और (बृहतः) बड़े (दिवः) द्योतमान पदार्थों के समान (विविदुः) जानते हैं वा (अङ्गिरसः) वायु (रवेण) स्तुतिसमूह से (अद्रिम्) मेघ को (रुजन्) पृथिवी पर गिराते हुए के समान (अस्मे) हम लोगों के दुःखों को (चक्रुः) नष्ट करते हैं, उनको सेवें ॥ २ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि पूर्ण विद्यायुक्त विद्वानों का सेवन तथा विद्या बुद्धि को उत्पन्न करके धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष फलों का सेवन करें ॥ २ ॥
विषय
अद्रि - भङ्ग
पदार्थ
१. (नः) = हममें से (पितरः) = अपना रक्षण करनेवाले, वासनाओं से अपने को आक्रान्त न होने देनेवाले और अतएव (अङ्गिरसः) = अङ्ग - प्रत्यङ्ग में रस के सञ्चारवाले व्यक्ति (वीळु चित्) = अत्यन्त शक्तिवाले भी (दूळ्हा) = दृढ़ (अद्रिम्) = पाँच पर्वोंवाले अविद्या - पर्वत को (उक्थैः) = स्तोत्रों से तथा (रवेण) = नाम के उच्चारण से (रुजन्) = भग्न व विदीर्ण कर देते हैं । अविद्या के पर्वत को नष्ट करना सुगम नहीं, तथापि प्रभु स्तवन व प्रभु - नामोच्चारण हमें इस प्रकार शक्ति प्राप्त कराता है कि हम इस पर्वत के विदारण में समर्थ होते हैं । ये विदारण करनेवाले व्यक्ति ही वस्तुतः पितर व अङ्गिरस हैं । २. अविद्या - पर्वत का विदारण करके ये पितर (अस्मे) = हमारे लिए (बृहतः दिवः) = वृद्धि के कारणभूत प्रकाश के (गातुम्) = मार्ग को (चक्रुः) = करते हैं । ज्ञान के प्रकाश में ये जीवन के मार्ग को स्पष्ट देखते हैं और उसी मार्ग पर चलते हैं । ३. ये मार्ग पर चलनेवाले लोग (अहः) = [अह व्याप्तौ] सर्वव्यापक प्रभु को (स्वः) = प्रकाश व सुख को, (केतुम्) = ज्ञान को तथा (उस्राः) = इन्द्रियरूप गौओं को (विविदुः) = प्राप्त करते हैं । मार्ग पर चलते - चलते अन्त में लक्ष्यस्थान पर पहुंचते ही हैं । यह लक्ष्यस्थान प्रभु ही हैं । इस मार्ग पर चलते हुए ये सुखी होते हैं - ‘मार्गस्थो नावसीदति’ मार्गस्थ दुःखी थोड़े ही होता है, मार्ग से भटकने पर ही काँटे चुभते हैं । मार्ग पर चलने से बुद्धि भ्रष्ट नहीं होती अपितु ज्ञानवृद्धि होती है तथा इन्द्रियाँ स्वस्थ बनी रहती हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - अविद्या - पर्वत के विदारण का परिणाम यह होता है कि मार्ग पर चलते हुए हम अन्ततः प्रभु को पानेवाले बनते हैं ।
विषय
वायु और तोपों के समान वीरों और विद्वानों का वर्णन ।
भावार्थ
( पितरः ) विश्व को पालन करने वाले ( अंगिरसः ) वायु गण जिस प्रकार ( वीणुचित् ) बड़े बलवान्, ( दृढा ) दृढ़ ( अद्रिम् ) मेघ को (रुजन्) छिन्न भिन्न कर देते हैं और (अंगिरसः) अग्नि से बलवान् विद्युतें या बारूद की नालें जिस प्रकार (रवेण) बड़े गर्जना सहित दृढ़ पर्वत को तोड़ फोड़ देती हैं उसी प्रकार ( पितरः ) प्रजाका पालन करने वाले (अंगिरसः) ज्ञानी पुरुष और ( अंगिरसः ) देह में प्राणों के समान देश के रक्षक वीर जन ( उक्थैः ) ज्ञानोपदेशों से ( वीडु दृढाचित् ) बड़े बलवान् और दृढ़ ( अद्रिम् ) अभेद्य अज्ञान अन्धकार को और शत्रु गढ़ को ( रवेण ) बड़े भारी वेदमय शब्द और घोर गर्जना से (रुजन्) तोड़े, विनाश करे । (उस्राः) किरगें जिस प्रकार ( केतुम् अहः ) सब पदार्थों के ज्ञान कराने वाले प्रकाश को करते हैं और ( स्वः विविदुः ) आदित्य को प्राप्त होते हैं उसी प्रकार ( अंगिरसः ) ज्ञानी विद्वान् पुरुष ( बृहतः दिवः ) बड़े भारी ज्ञानस्वरूप परमेश्वर को प्राप्त होने के लिये ( अस्मे ) हमें ( गातुम् चक्रुः ) मार्ग का उपदेश करें । और (उस्राः) अधीन होकर वास करने वाले अन्तेवासी, शिष्यगण ( केतुम् ) ज्ञानवान् गुरु को ( विविदुः ) प्राप्त हों । अथवाः ( उस्राः ) निष्ठ होकर रहने वाले पुरुष (स्वः) सुखकारी (केतुम्) ज्ञानवान् परमेश्वर का (विविदुः) ज्ञान करें, उसे प्राप्त हों। इसी प्रकार वीर पुरुष (अस्मे) हमारे हित के लिये ( बृहतः दिवः ) बड़े तेजस्वी पुरुष के अधीन (गातुं चक्रुः) पृथिवी को प्रदान करें। और वे विद्वान् ( केतुम् अहः स्वः ) सूर्य के समान तेजस्वी, शत्रुओं से न मारे जाने वाले, ध्वजा के समान ऊंचे वीर पुरुष को ( विविदुः ) प्राप्त हों ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पराशर ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१, ६, ७ त्रिष्टुप् । २, ५ निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ४, ८, १० विराट् त्रिष्टुप् । भूरिक् पंक्तिः ॥
विषय
विषय (भाषा)- फिर किनकी कौन कैसे सेवा करें, इस विषय को इस मन्त्र में कहा है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- अस्माभिः ये पितरः उक्थैः नः अस्मान् दृढं केतुं वीळु स्वः चित् उस्रा गातुम् इव अहः बृहतः दिव इव विविदुः। अङ्गिरसः रवेण अद्रिं रुजन् इव अस्मे दुःखनाशं चक्रुः ते सेवनीयाः ॥२॥
पदार्थ
पदार्थः- (अस्माभिः)=हमारे द्वारा, (ये)=जो, (पितरः) ज्ञानिनः=ज्ञानी, (उक्थैः) परिभाषितोपदेशैः=कहे गये उपदेश, (नः) अस्मान्=हमें,(दृढा) दृढम्= दृढ, (केतुम्) प्रज्ञानम्=प्रज्ञान, (वीळु) बलम्=बल और, (स्वः) सुखम्=सुख, (चित्) अपि=भी, (उस्राः) किरणाः= किरणें, (गातुम्) पृथिवीम्=पृथिवी के, (इव)=समान, (अहः) व्यापनशीलं दिनम्= व्याप्त होनेवाले दिन के, (बृहतः) महतः= बहुत, (दिवः) द्योतकान्=चमकनेवाले के, (इव)=समान, (विविदुः) वेदयन्ति= जानते हैं, (अङ्गिरसः) वायवः=वायु, (रवेण) स्तुतिसमूहेन=स्तुतियों के समूह से, (अद्रिम्) मेघमिव=बादल के समान, (रुजन्) भञ्जन्ति=छिन्न-भिन्न कर देने के, (इव)=समान, (अस्मे) अस्माकम्=हमारे, (दुःखनाशम्)= दुःख का नाश, (चक्रुः) कुर्वन्ति=करते हैं, (ते)=वे, (सेवनीयाः)=पूजा के योग्य हैं॥२॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। आप्त विद्वानों का अनुसरण करके, विद्या को प्राप्त करके, प्रज्ञा उत्पन्न करके, मनुष्यों के द्वारा धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष के फलों का सेवन करना चाहिए ॥२॥
विशेष
अनुवादक की टिप्पणी-(१) आप्त- महर्षि दयानन्द सरस्वती के अनुसार आप्त की परिभाषा-जो छलादि दोषरहित, धर्मात्मा, विद्वान् सत्योपदेष्टा, सब पर कृपादृष्टि से वर्त्तमान होकर अविद्यान्धकार का नाश करके अज्ञानी लोगों के आत्माओं में विद्यारूप सूर्य का प्रकाश सदा करे, उसको 'आप्त' कहते हैं। (२) पुरुषार्थ- वैदिक शास्त्रों के अनुसार चार पुरुषार्थ हैं- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष।
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- (अस्माभिः) हमारे द्वारा (ये) जो (पितरः) ज्ञानियों के (उक्थैः) कहे गये उपदेश हैं, [वे] (नः) हमें (दृढा) दृढ (केतुम्) प्रज्ञान, (वीळु) बल और (स्वः) सुख (चित्) भी, (उस्राः) सूर्य की किरणों और (गातुम्) पृथिवी के (इव) समान (अहः) व्याप्त होनेवाले दिन में (बृहतः) बहुत (दिवः) चमकनेवाले के (इव) समान (विविदुः) जाने जाते हैं। (अङ्गिरसः) वायु (रवेण) स्तुतियों के समूह से (अद्रिम्) बादल के समान (रुजन्) छिन्न-भिन्न कर देने के (इव) समान (अस्मे) हमारे (दुःखनाशम्) दुःख का नाश (चक्रुः) करते हैं, (ते) वे (सेवनीयाः) [ज्ञानी] पूजा के योग्य हैं॥२॥
संस्कृत भाग
वी॒ळु । चि॒त् । दृ॒ळ्हा । पि॒तरः॑ । नः॒ । उ॒क्थैः । अद्रि॑म् । रुज॑न् । अङ्गि॑रसः । रवे॑ण । च॒क्रुः । दि॒वः । बृ॒ह॒तः । गा॒तुम् । अ॒स्मे इति॑ । अह॒रिति॑ । स्वः॑ । वि॒वि॒दुः॒ । के॒तुम् । उ॒स्राः ॥ विषयः- पुनः कैः के कथं सेवनीया इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैराप्तान् विदुषः संसेव्य विद्यां प्राप्य प्रज्ञामुत्पाद्य धर्मार्थकाममोक्षफलानि सेवनीयानि ॥२॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी पूर्ण विद्यायुक्त विद्वानांचे सेवन करावे व विद्या बुद्धीला उत्पन्न करून धर्म, अर्थ, काम, मोक्षफल प्राप्त करावे. ॥ २ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Our forefathers sustain our strength and constancy. The Angirasas, sustainers of life, the winds, and our fathers with Veda-mantras, break the cloud for us with the voice of thunder. They create the path to the vast heaven and the space and show us the way to rise to the sun. They know the light of the dawn, the brilliance of the day and the bliss of heaven. They give us the light, the day and the bliss and vest us with an identity of splendour, a banner of recognition and a ruler and the law.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Who should be served and how is taught in the second Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
We must always serve those wise experienced men who give us good knowledge and thus make us happy by their noble instruction and advice, as the rays of the sun fallingon earth or the day help in getting knowledge of all objects. As the winds scatter the clouds, so they destroy our misery, therefore they should be always respected by us.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(वीळु ) बलम् = Force or strength. (अद्रिम्) मेघम् = Cloud. (अंगिरसः) वायवः = Winds. (उस्रा:) किरणा: = The rays of the sun.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should acquire Dharma (righteousness) Artha (Wealth) Kama (fulfilment of noble desires) and Moksha (emancipation) by serving wise enlightened persons who are true in mind, word and deed, should acquire knowledge from them and should develop intellect.
Translator's Notes
The following are the authorities from the Vedic Lexicon Nighantu etc. for the meanings given above by Rishi Dayananda. वीळु इति बलनाम (निघ० २.९ ) अद्रिरिति मेघनाम (निघ० १.१० ) अंगिरसः इति पदनाम (निघ० ५.५) पद गतौ गतेस्त्रयोर्था: ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च अत्र गतिशीलवायूनां ग्रहणम् By taking the third meaning of the root a the word Agnirasah can be taken winds as active or moving. उस्राः इति रश्मि नाम ( निघ० १.५ )
Subject of the mantra
Then the matter of who should serve whom and how, this has been discussed in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(asmābhiḥ) =By us, (ye) =those, (pitaraḥ)=by the wise, (ukthaiḥ) =spoken teachings are, [ve]=they, (naḥ) =to us,(dṛḍhā) = strong, (ketum) =wisdom, (vīḻu) =strength and, (svaḥ) =happiness, (cit) =also, (usrāḥ) =by the Sun rays and, (gātum) =of earth, (iva) =like (ahaḥ)= in the spreading day, (bṛhataḥ) =very, (divaḥ) =illuminating, (iva) =like, (vividuḥ) =are known, (aṅgirasaḥ) =air, (raveṇa) =group of praises, (adrim) =like cloud, (rujan) =of disintegrating, (iva) =like (asme) =our, (duḥkhanāśam)=destruction of sorrow, (cakruḥ) =do, (te) =they, (sevanīyāḥ)= worthy of worship, [jñānī] =wise.
English Translation (K.K.V.)
The teachings spoken by the wise ones to us are known to us like strong wisdom, strength and happiness, like the rays of the Sun and spread like the earth, which shines brightly in the day. By the group of praises the wind destroys our sorrows like a cloud disintegrating, the wise ones are worthy of worship.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. By following learned scholars, acquiring knowledge, developing wisdom, humans should enjoy the rewards of righteousness, wealth, desire and salvation.
TRANSLATOR’S NOTES-
(1)- āpta- Definition of āpta according to Maharishi Dayanand Saraswati – One who is devoid of deceit, virtuous, learned preacher of truth, being present with the blessings of all, destroys the darkness of ignorance and always gives light of the sun in the form of knowledge in the souls of ignorant people, is called ' āpta'. (2)- Puruṣārtha- According to Vedic scriptures, there are four efforts – Dharma (rihjteousness), Artha(wealth), Kama(desire) and Moksha(salvation).
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