ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 71/ मन्त्र 5
म॒हे यत्पि॒त्र ईं॒ रसं॑ दि॒वे करव॑ त्सरत्पृश॒न्य॑श्चिकि॒त्वान्। सृ॒जदस्ता॑ धृष॒ता दि॒द्युम॑स्मै॒ स्वायां॑ दे॒वो दु॑हि॒तरि॒ त्विषिं॑ धात् ॥
स्वर सहित पद पाठम॒हे । यत् । पि॒त्रे । ई॒म् । रस॑म् । दि॒वे । कः । अव॑ । त्स॒र॒त् । पृ॒श॒न्यः॑ । चि॒कि॒त्वान् । सृ॒जत् । अस्ता॑ । धृष॒ता । दि॒द्युम् । अ॒स्मै॒ । स्वाया॑म् । दे॒वः । दु॒हि॒तरि॑ । त्विषि॑म् । धा॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
महे यत्पित्र ईं रसं दिवे करव त्सरत्पृशन्यश्चिकित्वान्। सृजदस्ता धृषता दिद्युमस्मै स्वायां देवो दुहितरि त्विषिं धात् ॥
स्वर रहित पद पाठमहे। यत्। पित्रे। ईम्। रसम्। दिवे। कः। अव। त्सरत्। पृशन्यः। चिकित्वान्। सृजत्। अस्ता। धृषता। दिद्युम्। अस्मै। स्वायाम्। देवः। दुहितरि। त्विषिम्। धात् ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 71; मन्त्र » 5
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 15; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 15; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः सूर्यवदध्यापकगुणा उपदिश्यन्ते ॥
अन्वयः
हे मनुष्याः ! यूयं तथा यद्यः कः पृशन्य अस्ता चिकित्वान् देवः सूर्यो महे पित्रे दिव ईम्रसमवसृजदीमन्धकारं च त्सरत्स्वायां दुहितरि त्विषिं धादथ दिद्युं धृषता सुखं दीयते तथा सर्वस्मै सुखं कुरुत ॥ ५ ॥
पदार्थः
(महे) विद्यया परिमाणेन महत् (यत्) यः (पित्रे) विद्याप्रकाशयोर्दानेन पालयित्रे (ईम्) प्राप्तव्यम् (रसम्) विद्यौषधिफलम् (दिवे) प्रकाशाय (कः) सुखदः (अव) विनिग्रहे (त्सरत्) विरुद्धं गच्छति (पृशन्यः) पर्शिता (चिकित्वान्) ज्ञानवान् ज्ञानहेतुर्वा (सृजत्) सृजति (अस्ता) प्रक्षेप्ता (धृषता) प्रागल्भ्येन (दिद्युम्) द्योतमानां विद्यां दीप्तिं वा (अस्मै) प्रयोजनाय (स्वायाम्) स्वकीयाम् (देवः) विद्याप्रकाशदाता (दुहितरि) कन्येव वर्त्तमानायामुषसि (त्विषिम्) विद्याप्रकाशं तेजो वा (धात्) दधाति ॥ ५ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। सर्वैर्मातापित्रादिभिर्मनुष्यैः स्वस्य स्वस्य सन्तानेषु विद्या स्थापनीया। यथा प्रकाशमयः सन् सूर्यः सर्वं प्रकाश्यानन्दयति तथैव विद्यायुक्ताः पुत्राः कन्याश्च सर्वाणि सुखानि ददति ॥ ५ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर सूर्य के समान अध्यापक के गुणों का उपदेश किया है ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! तुम लोगों को जैसे (यत्) जो (कः) सुखदाता (पृशन्यः) स्पर्श करने (अस्ता) फेंकने (चिकित्वान्) जानने (देवः) विद्या प्रकाश के देनेवाला सूर्य्य (महे) बड़े (पित्रे) प्रकाश के देने से पालन करनेवाले (दिवे) प्रकाश के लिये (ईम्) प्राप्त करने योग्य (रसम्) ओषधि के फल को (अवसृजत्) रचता (ईम्) (त्सरत्) अन्धकार को दूर करता (स्वायाम्) अपनी (दुहितरि) कन्या के समान उषा में (त्विषिम्) प्रकाश वा तेज को (धात्) धारण करता, उसके अनन्तर (दिद्युम्) दीप्ति की (धृषता) दृढ़ता से सुख देता है, वैसे किया करो ॥ ५ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। सब माता-पिता आदि मनुष्यों को अपने-अपने सन्तानों में विद्यास्थापन करना चाहिये। जैसे प्रकाशमान सूर्य सबको प्रकाश करके आनन्दित करता है, वैसे ही विद्यायुक्त पुत्र वा पुत्री सब सुखों को देते हैं ॥ ५ ॥
विषय
रस व अनासक्ति
पदार्थ
१. (यत्) = जब (महे) = उस महान् (दिवे) = प्रकाशमय (पित्रे) = सबके पालक प्रभु की प्राप्ति के लिए (ईम्) = निश्चय से (रसम्) = अपनी वाणी में माधुर्य को (कः) = उत्पन्न करता है । २. तथा (पृशन्यः) = [पृशन् - Attachment] आज तक संसार में आसक्त हुआ - हुआ यह (चिकित्वान्) = ज्ञानी बनकर, अपने अनुभव से संसार को समझकर (अवत्सरत्) = इस संसार के बन्धन से दूर होता है ३. तब (अस्मै) = इस साधक के लिए वे प्रभु (दिद्युम्) = दीप्यमान ज्ञान के वज्र को (सृजत्) = उत्पन्न करते हैं । इस (धृषता) - कामादि शत्रुओं का धर्षण करनेवाले ज्ञानवज्र से वह साधक (अस्ता) = शत्रुओं को परे फेंकनेवाला होता है । ४. जितना - जितना यह जीव शत्रुओं को परे फेंकनेवाला होता है, उतना - उतना ही (देवः) = वह ज्ञानज्योति से दीप्यमान प्रभु इस (स्वायां दुहितरि) = अपना प्रपूरण करनेवाले व्यक्ति में [दुह प्रपूरणे] (त्विषम्) = दीप्ति को, तेजस्विता को (धात्) = धारण करते हैं । ५. मन्त्रार्थ से यह स्पष्ट है कि [क] हम अपने जीवन में रस व माधुर्य को पैदा करें, [ख] संसार के तत्त्व को समझकर आसक्ति से ऊपर उठे, [ग] प्रभुकृपा से हमें ज्ञानवज्र प्राप्त होगा, और [घ] जितना - जितना इस वज्र से कामादि शत्रुओं का धर्षण करके हम अपना पूरण करेंगे उतना - उतना तेजस्वी बन पाएंगे ।
भावार्थ
भावार्थ - वाणी का माधुर्य व अनासक्ति हमें प्रभु की ओर ले - चलती है । कामादि शत्रुओं को जीतकर हम तेजस्वी बनते हैं ।
विषय
योगी, गृहपति, सूर्य और राजा का समान वर्णन
भावार्थ
मनुष्य ( यत् ) जब ( महे पित्रे ) सबसे बड़े पालक परमेश्वर के ( दिवे ) ज्ञान प्रकाश को प्राप्त करने के लिए ( ईम् ) प्राप्त करने योग्य साक्षात् ( रसम् ) रस रूप आत्मानन्द का ( कः ) सम्पादन करता है तब वह चिकित्वान् ( ज्ञानवान् ) होकर ( पृशन्यः ) परमेश्वर को स्पर्श करता हुआ अर्थात् उसका योगज आनन्द लेता हुआ (अवत्सरत्) बन्धन से मुक्त हो जाता है या अन्धकार को दूर करता है। (अस्ता) धनुर्धर जिस प्रकार (घृषता) प्रगल्भता से बाण फेंकता है उसी प्रकार (अस्ता) सब विषय वासनाओं को या कर्मबन्धनों को दूर फेंकनेहारा (घृषता) बाधक कारणों को पराजित करनेवाले सामर्थ्य से (अस्मै) साधक के इस हित के लिए (दिद्युम्) अज्ञान नाशक ज्ञान प्रकाश को ( सृजत् ) प्रदान करता है और ( देवः ) सूर्य जिस प्रकार ( दुहितरि ) अपनी कन्या के समान उषा में (त्विषिम् धात्) कान्ति को धारण कराता है और (देवः दुहितरि) कामनावान् पति अपने समस्त मनोरथों को पूर्ण करनेवाली अपनी भार्या में (त्विषिं धात्) तेज, अर्थात् वीर्य को धारण कराता है उसी प्रकार (देवः) दानशील ज्ञानों का प्रकाशक परमेश्वर या प्रकाश का द्रष्टा आत्मा ( स्वायाम् ) अपनी ( दुहितरि ) कन्या के समान अपने ही से उत्पन्न होनेवाली, सब संकल्पों को पूर्ण करनेवाली अथवा (दुहितरि) परमानन्द रस को दोहन करनेवाली चिति शक्ति में (त्विषिम्) कान्ति, प्रकाश, दीप्ति को (धात्) धारण कराता है। राजा के पक्ष में—(महे पित्रे दिवे) जैसे बड़े भारी जगत् के पालक आकाश या प्रकाश के लिए (पृशन्यः) क्षितिज को स्पर्श करनेवाला सूर्य ( ईम् रसं अवसृजत् ) इस प्रकाश को फेंकता और अन्धकार को दूर करता है वैसे ही (चिकित्वान्) प्रजापालक ज्ञानी पुरुष सबके पालक ज्ञान प्रकाश के लिए ( ईं रसम्) ऐसे बल को उत्पन्न करे और ( शत्रुम् अवत्सरत् ) शत्रु का दूर करें । ( अस्ता धृषता अस्मै दिद्युम् सृजत् ) धनुर्धर होकर प्रगल्भता से शत्रु पर बाण फेंकें। (देवः) दानशील या विजिगीषु राजा ( स्वायां दुहितरि ) अपने ऐश्वर्य को पूर्ण करनेवाली प्रजा में (त्विषिं) तेज पराक्रम को धारण करावे । और उसके आश्रय रहकर अपने में तेज में धारण करे । इति पञ्चदशो वर्गः ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पराशर ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१, ६, ७ त्रिष्टुप् । २, ५ निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ४, ८, १० विराट् त्रिष्टुप् । भूरिक् पंक्तिः ॥
विषय
विषय (भाषा)- फिर सूर्य के समान अध्यापक के गुणों का उपदेश किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे मनुष्याः ! यूयं तथा यत् यः कः पृशन्य अस्ता चिकित्वान् {यत्} देवः सूर्यः महे पित्रे दिव ईम् रसम् अव सृजत् ईम् अन्धकारं च त्सरत् स्वायां दुहितरि त्विषिं धात् अथ दिद्युं {अस्मै} धृषता सुखं दीयते तथा सर्वस्मै सुखं कुरुत ॥५॥
पदार्थ
पदार्थः- हे (मनुष्याः)= मनुष्यों ! (यूयम्)=तुम सब, (तथा)= और, (यत्) यः=जो, (कः) सुखदः=सुख देनेवाले, (पृशन्यः) पर्शिता=स्पर्श करनेवाला, (अस्ता) प्रक्षेप्ता=फेंक देनेवाला, (चिकित्वान्) ज्ञानवान् ज्ञानहेतुर्वा= ज्ञानवान्, (देवः) विद्याप्रकाशदाता= विद्या और प्रकाश का देनेवाला, (सूर्यः)= सूर्य, (महे) विद्यया परिमाणेन महत्=विद्या की दृष्टि से महान्, (पित्रे) विद्याप्रकाशयोर्दानेन पालयित्रे=विद्या को प्रकाशित करने और देनेवाले रक्षक, (दिवे) प्रकाशाय=प्रकाश के, (ईम्) प्राप्तव्यम्=प्राप्त करने योग्य, (रसम्) विद्यौषधिफलम् = विद्या के ओषधि रूप फल का, (अव) विनिग्रहेसृजत्= वश में करने के लिये, (सृजत्) सृजति= निर्माण करता है, (ईम्) प्राप्तव्यम्= प्राप्त करने योग्य, (च)=और, (अन्धकारम्) =अन्धकार के, (त्सरत्) विरुद्धं गच्छति= विरुद्ध जाता है, (स्वायाम्) स्वकीयाम्=अपनी, (दुहितरि) कन्येव वर्त्तमानायामुषसि=कन्या के समान उषा काल में, (त्विषिम्) विद्याप्रकाशं तेजो वा=विद्या के प्रकाश या तेज को, (धात्) दधाति=धारण करता है, (अथ) =इसके पश्चात्, (दिद्युम्) द्योतमानां विद्यां दीप्तिं वा= प्रकाशमान दीप्ति के, {अस्मै} प्रयोजनाय=लिये, (धृषता) प्रागल्भ्येन= दृढ़ संकल्प से, (सुखम्)= सुख, (दीयते)=प्रदान करता है, (तथा)=वैसे ही, (सर्वस्मै)=सबको, (सुखम्) =सुखी, (कुरुत)=कीजिये ॥५॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। सब माता-पिता आदि मनुष्यों के द्वारा अपने-अपने सन्तानों में विद्या स्थापित करनी चाहिये। जैसे प्रकाशमान होता हुआ सूर्य सबको प्रकाश करके आनन्दित करता है, वैसे ही विद्या से युक्त पुत्र और पुत्री सब सुखों को देते हैं ॥५॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (मनुष्याः) मनुष्यों ! (यूयम्) तुम सब (तथा) और (यत्) जो (कः) सुख देनेवाले, (पृशन्यः) स्पर्श करनेवाले, (अस्ता) फेंक देनेवाले, (चिकित्वान्) ज्ञानवान्, (देवः) विद्या और प्रकाश को देनेवाले, (सूर्यः) सूर्य, (महे) विद्या की दृष्टि से महान्, (पित्रे) विद्या को प्रकाशित करने और देनेवाले रक्षक, (दिवे) प्रकाश (ईम्) प्राप्त करने योग्य, (रसम्) विद्या के ओषधि रूप फल को (अव) वश में करने के लिये (सृजत्) निर्माण करता है। [जो] (ईम्) प्राप्त करने योग्य है (च) और (अन्धकारम्) अन्धकार के (त्सरत्) विरुद्ध जाता है, (स्वायाम्) अपनी (दुहितरि) कन्या के समान उषा काल में (त्विषिम्) विद्या के प्रकाश या तेज को (धात्) धारण करता है और (अथ) इसके पश्चात् (दिद्युम्) प्रकाशमान दीप्ति के {अस्मै} लिये (धृषता) दृढ़ संकल्प से (सुखम्) सुख (दीयते) प्रदान करता है, (तथा) वैसे ही (सर्वस्मै) सबको (सुखम्) सुखी (कुरुत) कीजिये ॥५॥
संस्कृत भाग
म॒हे । यत् । पि॒त्रे । ई॒म् । रस॑म् । दि॒वे । कः । अव॑ । त्स॒र॒त् । पृ॒श॒न्यः॑ । चि॒कि॒त्वान् । सृ॒जत् । अस्ता॑ । धृष॒ता । दि॒द्युम् । अ॒स्मै॒ । स्वाया॑म् । दे॒वः । दु॒हि॒तरि॑ । त्विषि॑म् । धा॒त् ॥ विषयः- पुनः सूर्यवदध्यापकगुणा उपदिश्यन्ते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। सर्वैर्मातापित्रादिभिर्मनुष्यैः स्वस्य स्वस्य सन्तानेषु विद्या स्थापनीया। यथा प्रकाशमयः सन् सूर्यः सर्वं प्रकाश्यानन्दयति तथैव विद्यायुक्ताः पुत्राः कन्याश्च सर्वाणि सुखानि ददति ॥५॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. सर्व माता-पिता यांनी आपल्या संतानांना विद्या द्यावी, जसे प्रकाशमान सूर्य सर्वांना प्रकाश देऊन आनंदित करतो, तसेच विद्यायुक्त पुत्र-पुत्री सर्वांना सुख देतात. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
It is the sun, self-refulgent giver of comfort and bliss, reaching all with its rays, knowing all and revealing all, who creates the nectar of life for the great fatherly lord of heaven, Agni, who radiates light like a mighty hero of the bow shooting arrows for the purpose of humanity, and who vests the light and splendour of the morning in its daughter, the dawn, dispelling the darkness. Who can get away from it or steal the light? None.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men, As the sun who is giver of happiness, the cause of obtaining knowledge and toucher of all objects through his rays, thrower of darkness, sends light which protects and dispels gloom, like the archer who sends a blazing arrow from his dreadful bow upon his enemy, bestows light upon the dawn who is like his daughter, in the same manner, a learned person gives knowledge to his daughter and thus makes her happy. You should also do like that.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(दिवे) प्रकाशाय = For light. (दिद्युम्) द्योतमानां विद्यां दीप्ति वा = Shining knowledge or splendour. (दुहितरि) कन्येव वर्तमानायाम् उषसि In the dawn which is like the daughter of the sun.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
All parents should properly educate their children. As the resplendent Sun gladdens all by bestowing light, in the same manner, educated sons and daughters give all happiness.
Subject of the mantra
Then he preached the qualities of the Sun like a preceptor.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (manuṣyāḥ) =humans, (yūyam) =all of you, (tathā) =and, (yat) =those, (kaḥ) =providers of delight,, (pṛśanyaḥ) =those touching, (astā) =those throw, (cikitvān) =knowledgeable, (devaḥ) =providers of vidya and light, (sūryaḥ) =Sun, (mahe) =great in view of vidya, (pitre) =the protector who reveals and imparts knowledge, (dive) =light, (īm) =attainable, (rasam)=to the curing reward of knowledge, (ava) =to control, (sṛjat) =produces, [jo]=that, (īm) = is attainable, (ca) =and, (andhakāram) =of darkness, (tsarat) =goes against, (svāyām) =own, (duhitari) =like a girl at dawn, (tviṣim) =the light or brilliance of knowledge, (dhāt) =possesses and, (atha) =afterwards, (didyum) =of resplendent, {asmai} =for, (dhṛṣatā) =by firm determination, (sukham) =delight, (dīyate) =provides, (tathā) =similarly, (sarvasmai) =to all, (sukham) =happy,(kuruta) make.
English Translation (K.K.V.)
O humans! All of you and those who provide happiness, touch, throw away, those who are knowledgeable, giver of knowledge and light. The Sun is great from the point of view of knowledge, is protector who illuminates and gives knowledge, is capable of getting light, is able to control the curing reward of knowledge. One who is attainable and goes against the darkness, embraces the light or brilliance of knowledge in the dawn like one's own daughter and after that provides happiness with determination for the resplendent brilliance, similarly make everyone happy.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. All parents and other human beings should establish education in their children. Just as the shining Sun makes everyone happy with its light, similarly a son and daughter endowed with knowledge give happiness to everyone.
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