Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 71 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 71/ मन्त्र 3
    ऋषिः - पराशरः शाक्तः देवता - अग्निः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    दध॑न्नृ॒तं ध॒नय॑न्नस्य धी॒तिमादिद॒र्यो दि॑धि॒ष्वो॒३॒॑ विभृ॑त्राः। अतृ॑ष्यन्तीर॒पसो॑ य॒न्त्यच्छा॑ दे॒वाञ्जन्म॒ प्रय॑सा व॒र्धय॑न्तीः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दध॑न् । ऋ॒तम् । ध॒नय॑न् । अ॒स्य॒ । धी॒तिम् । आत् । इत् । अ॒र्यः । द॒धि॒ष्वः॑ । विऽभृ॑त्राः । अतृ॑ष्यन्तीः । अ॒पसः॑ । य॒न्ति । अच्छ॑ । दे॒वान् । जन्म॑ । प्रय॑सा । व॒र्धय॑न्तीः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दधन्नृतं धनयन्नस्य धीतिमादिदर्यो दिधिष्वो३ विभृत्राः। अतृष्यन्तीरपसो यन्त्यच्छा देवाञ्जन्म प्रयसा वर्धयन्तीः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दधन्। ऋतम्। धनयन्। अस्य। धीतिम्। आत्। इत्। अर्यः। दिधिष्वः। विऽभृत्राः। अतृष्यन्तीः। अपसः। यन्ति। अच्छ। देवान्। जन्म। प्रयसा। वर्धयन्तीः ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 71; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 15; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    यथा पुरुषा ब्रह्मचर्यं सेवित्वा विद्वांसो भवन्ति तथा स्त्रियोऽपि भवेयुरित्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    या विभृत्रा दिधिष्वोऽतृष्यन्त्यो वर्धयन्त्यः कुमार्यो देवान् प्राप्यार्य्य इदिव ऋतं धनयन्नादस्य धीतिं दधन् प्रयसाऽपसो देवाञ्जन्माच्छादयन्ति। ता विदुष्यो भूत्वा वेदादिषु सर्वाणि सुखानि प्राप्नुवन्ति ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (दधन्) दधीरन् (ऋतम्) सत्यं विज्ञानम् (धनयन्) विद्यादिधनं कुर्युः (अस्य) ब्रह्मचर्य्यस्य धर्मस्य विद्यादिधनस्य वा (धीतिम्) धारणम् (आत्) अनन्तरम् (इत्) इव (अर्य्यः) वैश्यः (दिधिष्वः) धारयन्त्यः (विभृत्राः) विशिष्टानि भृत्राणि धारणानि यासां ताः (अतृष्यन्तीः) तृष्णादिदोषरहिताः (अपसः) कर्माणि। अत्र लिङ्गव्यत्ययः। (यन्ति) प्राप्नुवन्ति वा (अच्छ) सम्यग्रीत्या (देवान्) विदुषो दिव्यान् गुणान् वा (जन्म) विद्याजननम् (प्रयसा) येन प्रीणन्ति तृप्यन्ति कामयन्ते वा शिष्टान् विदुषः शुभान् गुणांस्तेन सह वर्त्तमानाः (वर्धयन्तीः) उन्नयन्त्यः ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यथा वैश्या धर्मं धृत्वा धनमर्जयन्ति तथैव कन्या विवाहात् प्राक् सुब्रह्मचर्य्येणाप्ता विदुष्योऽध्यापिकाः प्राप्य पूर्णां सुशिक्षां विद्यां चादायाथ विवाहं कृत्वा प्रजासुखं स्वार्जयेयुः। नहि विद्याध्ययनस्य समयो विवाहादर्वागस्ति न खलु कस्यचित्पुरुषस्य स्त्रिया वा विद्याग्रहणेऽनधिकारोऽस्ति ॥ ३ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (4)

    विषय

    जैसे ब्रह्मचर्याश्रम का सेवन करके पुरुष विद्वान् होते हैं, वैसे स्त्रियों को भी होना योग्य है, यह विषय कहा है ॥

    पदार्थ

    जो (विभृत्राः) विशेष धारण करनेवाली (दिधिष्वः) भूषण आदि से युक्त (अतृष्यन्तीः) तृष्णा आदि दोषों से पृथक् (वर्धयन्तीः) उन्नति करनेवाली कुमारी कन्या (देवान्) दिव्य गुणों को प्राप्त होकर (अर्य्यः) वैश्य के (इत्) समान (ऋतम्) सत्य विज्ञान को (धनयन्) विद्याधनयुक्त कर (आत्) इसके अनन्तर (अस्य) ब्रह्मचर्य की (धीतिम्) धारणा को (दधन्) धारण कर (प्रयसा) अन्न के समान वर्त्तमान (अपसः) कर्म्म (देवान्) विद्वान् (जन्म) और विद्या की प्राप्ति को (अच्छ) अच्छे प्रकार (यन्ति) प्राप्त होती हैं, वेदादि शास्त्रों में विद्वान् होकर सब सुखों को प्राप्त होती हैं ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे वैश्य लोग धर्म्म के अनुकूल धन का संचय करते हैं, वैसे ही कन्या विवाह से पहले ब्रह्मचर्यपूर्वक पूर्ण विद्वान् पढ़ानेवाली स्त्रियों को प्राप्त हो पूर्णशिक्षा और विद्या का ग्रहण तथा विवाह करके प्रजासुख को सम्पादन करे। विवाह के पीछे विद्याध्ययन का समय नहीं समझना चाहिये। किसी पुरुष वा स्त्री को विद्या के पढ़ने का अधिकार नहीं है, ऐसा किसी को नहीं समझना चाहिये, किन्तु सर्वथा सबको पढ़ने का अधिकार है ॥ ३ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    मार्ग

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र में कहा था कि प्रभु के स्तोता ज्ञान के प्रकाश में मार्ग को देखते हैं । वह मार्ग यह है - ये लोग (ऋतम्) = ऋत को (दधन्) = धारण करते हैं । जो ठीक है उसी का पालन करते हैं । प्रत्येक कार्य को ठीक समय व ठीक स्थान पर करते है [ऋत - Right]| ऋत शब्द यज्ञ के लिए भी प्रयुक्त होता है । ये यज्ञ को धारण करते हैं । यज्ञात्मक जीवन बिताते हुए २. (अस्य) = इस प्रभु के (धीतिम्) = ध्यान को (धनयन्) = [धनमकुर्वन्] अपना धन बनाते हैं, प्रभु - ध्यान ही इनका धन हो जाता है । ३. (आत् इत्) = ऐसा करने के अनन्तर ये (अर्यः) =स्वामी बनते हैं, इन्द्रियों के अधिष्ठाता होते हैं, (दिधिष्वः) = मन को स्थान में धारण करनेवाले होते हैं, (विभृत्राः) = ज्ञान का भरण करनेवाले बनते हैं । इस प्रकार इन्द्रियों, मन व बुद्धि को स्वाधीन करके उन्हें ठीक मार्ग से कार्यों में व्याप्त करते हैं । ४. (अतृष्यन्तीः) = अब विषयों की प्यास से ऊपर उठे हुए ये लोग (अपसः अच्छ यन्ति) = कर्मों की ओर चलनेवाले होते हैं, सदा अपने कर्तव्यपालन का ध्यान करते हैं । ५. इस प्रकार (प्रयसा) = प्रकृष्ट यत्न के द्वारा अथवा हवि के द्वारा - दानपूर्वक अदन के द्वारा ये (देवान्) = दिव्य गुणों को तथा (जन्म) = मानवोचित विकासों को (वर्धयन्तीः) = अपने अन्दर बढ़ानेवाले होते हैं । (प्रयस्) = प्रयत्न व हवि दिव्यगुणों के विकास का साधन होता हैं और हमें विकसित जीवनवाला बनाता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - ऋत का धारण, प्रभु - ध्यान को ही धन समझना, जितेन्द्रिय, एकाग्र मन व ज्ञान का धारण करनेवाला बनना, विषयतृष्णा से ऊपर उठना, कर्तव्य का पालन व यत्नपूर्वक दिव्यगुणों का विकास, यही मार्ग है ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    वैश्यों के समान स्त्रियों का कर्तव्य

    भावार्थ

    (अर्यः) स्वामी, वैश्यगण जिस प्रकार (धनयन्) धन का संग्रह करते हैं और उस की वृद्धि करते हैं और लोभ से स्वयं उसका भोग न कर के साधु सज्जनों और सन्तानों पर व्यय कर देते हैं उसी प्रकार ( अर्यः ) विद्याभिलाषिणी कन्याएं और गृह की स्वामिनी, (दिधिष्वः) ज्ञान ऐश्वर्य और पति को धारण करने वाली, (विभृत्राः) विविध उपायों से प्रजाओं का भरण पोषण करने में कुशल होकर ( ऋतम् ) सत्य वेद ज्ञान को (दधन् ) धारण करें और ( धनयन् ) धन का लाभ करें या उसे धन के समान सञ्चय करें और ( आत् इत् ) बाद में भी ( धीतिम् ) उसका अध्ययन और चिन्तन तथा स्मरण और पोषण करें। वे ( अतृष्यन्तीः ) तृष्णा से या लोलुपता से धन का लोभ न करती हुई ( अच्छ ) अच्छी प्रकार ( देवान् ) विद्वान् पुरुषों को और ( जन्म ) अपने उत्पन्न हुए पुरुषों को ( प्रयसा ) उत्तम ज्ञान और अन्न से ( वर्धयन्तीः ) बढ़ाती हुई (अपसः) उत्तम कर्मों और फलों को ( यन्ति ) प्राप्त हों ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पराशर ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१, ६, ७ त्रिष्टुप् । २, ५ निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ४, ८, १० विराट् त्रिष्टुप् । भूरिक् पंक्तिः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    विषय (भाषा)- जैसे ब्रह्मचर्य आश्रम का अनुसरण करके पुरुष विद्वान् होते हैं, वैसे स्त्रियों को भी होना चाहिए, इस मन्त्र में यह विषय कहा है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- याः विभृत्राः दिधिष्वः अतृष्यन्त्यः वर्धयन्त्यः कुमार्यः देवान् प्राप्य अर्य्यः इत् इव ऋतं धनयन् आत् अस्य धीतिं दधन् प्रयसा अपसः {यन्ति} {अच्छ} देवान् जन्म आच्छादयन्ति। ता विदुष्यः भूत्वा वेद आदिषु सर्वाणि सुखानि प्राप्नुवन्ति ॥३॥

    पदार्थ

    पदार्थः- (याः)=जो, (विभृत्राः) विशिष्टानि भृत्राणि धारणानि यासां ताः= विशेष रूप से भरण पोषण करनेवाले गुणों को, (दिधिष्वः) धारयन्त्यः=धारण करते हुए, (अतृष्यन्त्यः) तृष्णादिदोषरहिताः= तृष्णा आदि दोषों से रहित, (वर्धयन्त्यः) उन्नयन्त्यः=उन्नति करते हुए, (कुमार्यः)=तरुण अवस्था से, (देवान्)=देवत्व को, (प्राप्य)=प्राप्त करके, (अर्य्यः) वैश्यः= वैश्य के, (इत्) इव =समान, (ऋतम्) सत्यं विज्ञानम्=विशेष सत्य ज्ञान का, (धनयन्) विद्यादिधनं कुर्युः= विद्या आदि को धन बनाने के, (आत्) अनन्तरम्=पश्चात्, (अस्य) ब्रह्मचर्य्यस्य धर्मस्य विद्यादिधनस्य वा=ब्रह्मचर्य धर्म के विद्या आदि धन को, (धीतिम्) धारणम्=धारण, (दधन्) दधीरन्= धारण करें, (प्रयसा) येन प्रीणन्ति तृप्यन्ति कामयन्ते वा शिष्टान् विदुषः शुभान् गुणांस्तेन सह वर्त्तमानाः=शिष्ट विद्वानों को प्रसन्न करनेवाले उत्तम गुणों के साथ, (अपसः) कर्माणि=कर्मों को, {यन्ति} प्राप्नुवन्ति वा=प्राप्त करते हैं,{अच्छ} सम्यग्रीत्या=अच्छे प्रकार से, (देवान्) विदुषो दिव्यान् गुणान् वा=विद्वानों या देवों के गुणों से, (जन्म) विद्याजननम्=विद्या के जन्म को, (आच्छादयन्ति)=[जीवन में] आच्छादित करते हैं, (ता) =वे, (विदुष्यः)=विद्वान्, (भूत्वा)=होकर, (वेद) =वेद, (आदिषु)= आदि [विद्याओं में], (सर्वाणि)=समस्त, (सुखानि) =सुख, (प्राप्नुवन्ति)=प्राप्त करते हैं ॥३॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे वैश्य धर्म को धारण करके धन को अर्जित करते हैं, वैसे ही कन्या विवाह से पहले अच्छे प्रकार से ब्रह्मचर्य प्राप्त करके, विवाह करके अपने लिये सन्तान का सुख अर्जित करे। विद्या अध्ययन का समय विवाह आदि का समय नहीं है, निश्चित रूप से किसी पुरुष और स्त्री का विद्या ग्रहण के समय इसका, अर्थात् विवाह का अधिकार नहीं है॥३॥

    विशेष

    वैश्य- वैदिक परम्परा और मनुसमृति के अनुसार समाज को कार्य और व्यवहार के आधार पर चार वर्णों में बांटा गया है। ये हैं- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। इनमें वैश्य का कर्म है पशुओं का पालन-पोषण, सुपात्रों को दान देना, यज्ञ करना, विधिवत अध्ययन करना, व्यापार करना, धन कमाना, खेती आदि करना।

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- (याः) जो [कन्यायें] (विभृत्राः) विशेष रूप से भरण पोषण करनेवाले गुणों को (दिधिष्वः) धारण करते हुए, (अतृष्यन्त्यः) तृष्णा आदि दोषों से रहित, (वर्धयन्त्यः) उन्नति करते हुए (कुमार्यः) तरुण अवस्था से (देवान्) देवत्व को (प्राप्य) प्राप्त करके (अर्य्यः) वैश्य के (इत्) समान, (ऋतम्) विशेष सत्य ज्ञान के (धनयन्) विद्या आदि को धन बनाने के (आत्) पश्चात् (अस्य) ब्रह्मचर्य धर्म के विद्या आदि धन को (धीतिम्+दधन्) धारण करें। [वे] (प्रयसा) शिष्ट विद्वानों को प्रसन्न करनेवाले उत्तम गुणों के साथ (अपसः) कर्मों को {यन्ति} प्राप्त करती हैं। {अच्छ} अच्छे प्रकार से (देवान्) विद्वानों या देवों के गुणों से (जन्म) विद्या के जन्म को (आच्छादयन्ति) [जीवन में] आच्छादित करती हैं। (ता) वे (विदुष्यः) विदुषी (भूत्वा) होकर (वेद) वेद (आदिषु) आदि [विद्याओं में] (सर्वाणि) समस्त (सुखानि) सुख (प्राप्नुवन्ति) प्राप्त करती हैं ॥३॥

    संस्कृत भाग

    दध॑न् । ऋ॒तम् । ध॒नय॑न् । अ॒स्य॒ । धी॒तिम् । आत् । इत् । अ॒र्यः । द॒धि॒ष्वः॑ । विऽभृ॑त्राः । अतृ॑ष्यन्तीः । अ॒पसः॑ । य॒न्ति । अच्छ॑ । दे॒वान् । जन्म॑ । प्रय॑सा । व॒र्धय॑न्तीः ॥ विषयः- यथा पुरुषा ब्रह्मचर्यं सेवित्वा विद्वांसो भवन्ति तथा स्त्रियोऽपि भवेयुरित्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। यथा वैश्या धर्मं धृत्वा धनमर्जयन्ति तथैव कन्या विवाहात् प्राक् सुब्रह्मचर्य्येणाप्ता विदुष्योऽध्यापिकाः प्राप्य पूर्णां सुशिक्षां विद्यां चादायाथ विवाहं कृत्वा प्रजासुखं स्वार्जयेयुः। नहि विद्याध्ययनस्य समयो विवाहादर्वागस्ति न खलु कस्यचित्पुरुषस्य स्त्रिया वा विद्याग्रहणेऽनधिकारोऽस्ति ॥३॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे वैश्य लोक धर्मानुकूल धनाचा संचय करतात तसा कन्यांनी पूर्ण विदुषी अध्यापिकेकडून पूर्ण शिक्षण व विद्या ग्रहण करून विवाह करावा व संतानोत्पत्ती करावी. विवाहानंतर विद्याध्ययनाची आवश्यकता नाही असे समजू नये. कोणत्याही पुरुष-स्त्रीला विद्याध्ययनाचा अधिकार नाही असे समजू नये, तर सर्वांना सदैव शिकण्याचा अधिकार आहे. ॥ ३ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Holding on to Truth and Dharma, wielding the knowledge and power of Agni, lord of light, then possessing wealth as the Vaishyas, giving nourishment and help without thirst or selfishness, doing good acts with generosity of giving food and social service and promoting nobilities, specially children, the people and specially Brahmacharinis move on in life with grace.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    As men become learned by observing Brahmacharya, so girls should also be is taught in the third Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Those girls who are particularly virtuous and are endowed with many good attributes like truthfulness, purity and humility etc. who are free from greed, get good knowledge from the wise preceptors and earn the wealth of true wisdom observing this Brahamacharya, Dharma (righteousness and growing harmoniously.) Doing noble deeds and taking suitable nourishing food etc. they bear good virtues and after marriage give birth to highly learned persons. Having become well-versed in the Vedas and other Shastras, they enjoy all happiness.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (धीतिम्) धारणम् = Observing or upholding. (अर्यः) वैश्यः = Businessman. (प्रयसा) येन प्रीणन्ति तृप्यन्ति कामयन्ते वा शिष्टान् विदुषः शुभान गुणान् तेन सह = With food and noble desire of acquiring good virtues and good learned men.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There is Upamalankara or simile used in the Mantra. As business men earn money bp righteous honest means, in the same manner, the girls acquire good education and wisdom before marriage sitting at the feet of learned lady teachers who are true in mind, word and deed. They should then marry and earn the happiness of their children. The period for study is not after but before the marriage. There is is no prohibition for acquiring knowledge for any male or female in the world.

    Translator's Notes

    धीतिम् is derived from ध्यै चिन्तायाम् डु धाञ् धारण पोषणयो the meaning of धारण observing or upholding प्रीन-तर्पणे कान्तौ hence the two meanings above given by Rishi Dayananda Sarasvati. प्रय इति अन्न नाम (निघ० २.७)

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject of the mantra

    Just as men become scholars after following celibacy righteous order of life, women should also become scholars, this topic is discussed in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (yāḥ) =Those [kanyāyeṃ]=gorls, (vibhṛtrāḥ)=especially nourishing properties, (didhiṣvaḥ)= possessing, (atṛṣyantyaḥ)=free from vices like craving, (vardhayantyaḥ)=making progress, (kumāryaḥ)=from young age, (devān) =to divinity, (prāpya) =having obtained, (aryyaḥ)=of vaiśya, (it) =like, (ṛtam)=of special knowledge, (dhanayan)= to acquire knowledge etc. into wealth, (āt) =afterwards, (asya) =celibacy attribute of knowledge etc. as wealth, (dhītim+dadhan) =possess, [ve]=they, (prayasā) =with excellent qualities pleasing to learned scholars, (apasaḥ) =to deeds, {yanti} =obtain, {accha} =well, (devān)= by the qualities of scholars or deities, (janma) =Vidya's birth, (ācchādayanti)=cover, [jīvana meṃ] =in life, (tā) =they, (viduṣyaḥ)=scholars, (bhūtvā) =being, (veda) =veda, (ādiṣu) =etc., [vidyāoṃ meṃ]=in the knowledge of, (sarvāṇi) =all, (sukhāni) =happiness, (prāpnuvanti) =attain.

    English Translation (K.K.V.)

    Those girls who, possessing the qualities that are especially nourishing, free from vices like craving etc., progressing, attaining divinity from a young age, like vaiśya, after acquiring wealth, special knowledge of true knowledge, etc., acquire the knowledge of the attribute of celibacy. She achieves deeds with noble qualities that please the learned scholars. In a good way, the qualities of scholars or deities cover the birth of knowledge in their life. Being a scholar, she attains all the happiness in the knowledge of Vedas et cetera.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is simile as a figurative in this mantra. Just as vaiśya s acquire wealth by following the attribute, similarly a girl should attain celibacy before marriage and earn the happiness of having children for herself after getting married. The time of studying education is not the time for marriage etc., certainly no man or woman has the right to marry at the time of acquiring education.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    Vaiśya- According to Vedic tradition and Manusmriti, society is divided into four classes on the basis of work and behavior. These are-brāhmaṇa, kṣatriya, vaiśya and śūdra. Among these, the duties of a vaiśya are rearing animals, giving donations to the deserving, performing yajna, studying properly, doing business, earning money and farming et cetera.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top