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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 71 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 71/ मन्त्र 8
    ऋषिः - पराशरः शाक्तः देवता - अग्निः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आ यदि॒षे नृ॒पतिं॒ तेज॒ आन॒ट्छुचि॒ रेतो॒ निषि॑क्तं॒ द्यौर॒भीके॑। अ॒ग्निः शर्ध॑मनव॒द्यं युवा॑नं स्वा॒ध्यं॑ जनयत्सू॒दय॑च्च ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । यत् । इ॒षे । नृ॒ऽपति॑म् । तेजः॑ । आन॑ट् । शुचि॑ । रेतः॑ । निऽसि॑क्तम् । द्यौः । अ॒भीके॑ । अ॒ग्निः । शर्ध॑म् । अ॒न॒व॒द्यम् । युवा॑नम् । सु॒ऽआ॒ध्य॑म् । ज॒न॒य॒त् । सू॒दय॑त् । च॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ यदिषे नृपतिं तेज आनट्छुचि रेतो निषिक्तं द्यौरभीके। अग्निः शर्धमनवद्यं युवानं स्वाध्यं जनयत्सूदयच्च ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। यत्। इषे। नृऽपतिम्। तेजः। आनट्। शुचि। रेतः। निऽसिक्तम्। द्यौः। अभीके। अग्निः। शर्धम्। अनवद्यम्। युवानम्। सुऽआध्यम्। जनयत्। सूदयत्। च ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 71; मन्त्र » 8
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 16; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे युवते ! त्वं यथा द्यौरग्निरभीके इषे यन् निषिक्तं शुचि रेतस्तेजश्चानट् समन्तात् प्रापयति तेन युक्ता त्वं तथा शर्धमनवद्यं स्वाध्यं युवानं नृपतिं विद्वांसं स्वयंवरविवाहेन प्राप्यापत्यान्याजनयद् दुःखं सूदयच्च ॥ ८ ॥

    पदार्थः

    (आ) समन्तात् (यत्) यः (इषे) इच्छापूर्त्तये (नृपतिम्) राजानम् (तेजः) प्रागल्भ्यम् (आनट्) व्याप्नोति। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदं श्नम् च। (शुचि) पवित्रम् (रेतः) वीर्य्यमुदकं वा। रेत इत्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) (निषिक्तम्) संस्थापितम् (द्यौः) प्रकाशः (अभीके) संग्रामे। अभीक इति संग्रामनामसु पठितम्। (निघं०२.१७) (अग्निः) विद्युत् (शर्धम्) बलिनम् (अनवद्यम्) अनिन्दितम् (युवानम्) (स्वाध्यम्) सुष्ठु समन्ताद् विद्याऽधीयते यस्मिन् यस्यां तं वा (जनयत्) (सूदयत्) सूदयेत् (च) समुच्चये ॥ ८ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। न सर्वैर्मनुष्यैः कदाचित्सुविद्या शरीरबलाभ्यां विना व्यावहारिकपारमार्थिकसुखे प्राप्येते। न खलु सन्तानेभ्यो विद्यादानेन विना मातापित्रादयोऽनृणा भवितुं शक्नुवन्तीति वेद्यम् ॥ ८ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह अध्यापक कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे युवते ! जैसे (द्यौः) प्रकाशस्वरूप (अग्निः) विद्युत् (अभीके) संग्राम में (इषे) इच्छा की पूर्णता के लिये (यत्) जो (निषिक्तम्) स्थापन किये हुए (शुचि) पवित्र (रेतः) वीर्य और (तेजः) प्रगल्भता को (आनट्) प्राप्त करती है, उससे युक्त तू वैसे (शर्धम्) बली (अनवद्यम्) निन्दारहित (युवानम्) युवावस्थावाले (स्वाध्यम्) उत्तम विद्यायुक्त विद्वान् (नृपतिम्) मनुष्यों में राजमान पति को स्वेच्छा से प्रसन्नतापूर्वक प्राप्त हो के (आजनयत्) सन्तानों को उत्पन्न (च) और अविद्या दुःख को (सूदयत्) दूर कर ॥ ८ ॥

    भावार्थ

    सब मनुष्यों जो जानना चाहिये कि कभी उत्तम विद्या वा प्रदीप्त अग्नि के समान विद्वान् के सङ्ग के विना व्यवहार और परमार्थ के सुख प्राप्त नहीं होते और अपने सन्तानों को विद्या देने के विना माता-पिता आदि कृतकृत्य नहीं हो सकते ॥ ८ ॥

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    विषय

    तेजस्वितामय सुन्दर जीवन

    पदार्थ

    १. (यत्) = जब (नृपतिम्) = ‘ना चासौ पतिश्च’ प्रगतिशील व इन्द्रियों के स्वामी व्यक्ति को (इषे) = अन्न पाचन के लिए (आनट्) = जाठरग्निरूप (तेजः) = तेज (आ) = सर्वथा प्राप्त होता है । यह (रेतः) = शक्ति (अभीके) = संग्राम में (द्यौः) = [दिव् - विजिगीषा] सब काम - क्रोधादि शत्रुओं को जीतने की कामनावाली होती है । संक्षेप में [क] नृपति को अन्नपाचन के लिए जाठराग्नि को तेज प्राप्त होता है, [ख] अन्नपरिपाक से उत्पन्न शक्ति उसके शरीर में ही सिक्त होती है, [ग] इस शक्ति से यह क्रोधादि पर विजय पाता है । २. पूर्वोक्त तीन पद रखनेवाला (अग्निः) = प्रगतिशील जीव को अपने को (शर्धम्) = बलवान् (अनवद्यम्) = प्रशस्त जीवनवाला (युवानम्) = तरुण अथवा बुराइयों से अपने को दूर करनेवाला तथा अच्छाइयों को अपने से मिलानेवाला (स्वाध्यम्) = शोभनयज्ञ व शोभन कर्मोंवाला (जनयत्) = बनाता है (च) = और (सूदयत्) = अपने को सदा यज्ञादि उत्तम कर्मों में प्रेरित करता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - अग्नि - प्रगतिशील जीव तेजस्विता का सम्पादन करके अपने जीवन को प्रशस्त बनाता है ।

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    विषय

    गृहपति और राजा का समान वर्णन ।

    भावार्थ

    ( यत् तेजः ) जो तेज या ओज, आग्नेय तत्व, (नृपतिम्) शरीर में, जीवन के रक्षा करनेवाले, या प्राणों के पालन करनेवाले पुरुष को (इषे) अन्न के खाने पचाने तथा कामना और संकल्प करने के लिये ( आ आनट् ) प्राप्त होता है वही ( शुचि ) अति शुद्ध ( रेतः ) वीर्य ( अभीके ) स्त्रीपुरुष के परस्पर संग काल में ( निषिक्तम् ) गर्भ में स्थापित किया जाता है । तभी ( द्यौः ) तेजस्वी सूर्य के समान ( अग्निः ) अग्नि के समान कामना से युक्त पुरुष (शर्धम्) वीर्यवान् (अनवद्यम्) दोष रहित (युवान) हृष्ट पुष्ट, युवा होने वाले ( स्वाध्यम् ) उत्तम गुणों और कर्मों को धारण करने वाले, अथवा उत्तम ध्यान ज्ञान वाले, पुत्र को ( जनयत् ) उत्पन्न करता है और (सूदयत्) उसको उत्तम मार्ग में प्रेरित करता है । राजा के पक्ष में—( इषे ) सबको शासन करने के लिये ( नृपतिं ) राजा को शुद्ध शासन, बल अभिषेक द्वारा प्राप्त हो । वह अग्रणी । तेजस्वी, युद्ध में अनिन्दनीय, उत्तम बलवान्, युवा पुरुषों को पैदा करे और उनको ठीक राह पर चलावे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पराशर ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१, ६, ७ त्रिष्टुप् । २, ५ निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ४, ८, १० विराट् त्रिष्टुप् । भूरिक् पंक्तिः ॥

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    विषय

    विषय- फिर वह अध्यापक कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे युवते ! त्वं यथा द्यौः अग्निः अभीके इषे यत् निषिक्तं शुचि रेतः तेजः च आनट् समन्तात् प्रापयति तेन युक्ता त्वं तथा शर्धम् अनवद्यं स्वाध्यं युवानं नृपतिं विद्वांसं स्वयंवरविवाहेन प्राप्य अपत्यानि आजनयद् दुःखं सूदयत् च ॥८॥

    पदार्थ

    पदार्थः- हे (युवते)= युवती! (त्वम्)= तुम, (यथा)=जिस प्रकार से, (द्यौः) प्रकाशः= प्रकाश और, (अग्निः) विद्युत्= विद्युत् की, (अभीके) संग्रामे= संग्राम में, (इषे)=कामना करते हो, (यत्)=जो, (निषिक्तम्) संस्थापितम्=संग्रह किया हुआ, (शुचि) पवित्रम्=पवित्र, (रेतः) वीर्य्यमुदकं वा=वीर्य या जल है, (च)=और, (तेजः) प्रागल्भ्यम्=तेज, (आनट्) व्याप्नोति=व्याप्त होता है और, (समन्तात्)=हर ओर से, (प्रापयति)= प्राप्त कराया जाता है, (तेन)=उससे, (युक्ता)= युक्त होकर, (त्वम्)= तुम, (तथा)=वैसे ही, (शर्धम्) बलिनम्=बलवान्, (अनवद्यम्) अनिन्दितम्= निन्दा रहित, (स्वाध्यम्) सुष्ठु समन्ताद् विद्याऽधीयते यस्मिन् यस्यां तं वा= उत्तम और हर ओर से विद्या का अध्ययन करनेवाले, (युवानम्)=युवा, (नृपतिम्) राजानम् =राजा, (विद्वांसम्)=विद्वान् को, (स्वयंवरविवाहेन)= स्वयंवर विवाह से, (प्राप्य) =प्राप्त करके, (अपत्यानि)=सन्तानें, (आ) समन्तात्= अच्छे प्रकार से, (जनयत्)=उत्पन्न कीजिये, (च) समुच्चये=और, (दुःखम्)=दुःख को, (सूदयत्) सूदयेत्=दूर करें ॥८॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। सब मनुष्यों को कभी उत्तम विद्या, शरीर और बल के विना व्यावहारिक व पारमार्थिक सुख प्राप्त नहीं होते हैं। न ही, सन्तानों को विद्या देने के विना माता, पिता आदि के ऋणों से मुक्त नहीं हो सकते हैं, ऐसा जानना चाहिए ॥८॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (युवते) युवती! (त्वम्) तुम (यथा) जिस प्रकार से (द्यौः) प्रकाश और (अग्निः) विद्युत् की (अभीके) संग्राम में (इषे) कामना करती हो। (यन्) जो (निषिक्तम्) संग्रह किया हुआ (शुचि) पवित्र (रेतः) वीर्य या जल है (च) और (तेजः) तेज (आनट्) व्याप्त होता है और (समन्तात्) हर ओर से (प्रापयति) प्राप्त कराया जाता है, (तेन) उससे (युक्ता) युक्त होकर (त्वम्) तुम (तथा) वैसे ही (शर्धम्) बलवान्, (अनवद्यम्) निन्दा रहित, (स्वाध्यम्) उत्तम और हर ओर से विद्या का अध्ययन करनेवाले (युवानम्) युवा (विद्वांसम्) विद्वान् (नृपतिम्) राजा को, (स्वयंवरविवाहेन) स्वयंवर विवाह से (प्राप्य) प्राप्त करके (अपत्यानि) सन्तानें (आ) अच्छे प्रकार से (जनयत्) उत्पन्न कीजिये (च) और (दुःखम्) दुःख को (सूदयत्) दूर कीजिये ॥८॥

    संस्कृत भाग

    आ । यत् । इ॒षे । नृ॒ऽपति॑म् । तेजः॑ । आन॑ट् । शुचि॑ । रेतः॑ । निऽसि॑क्तम् । द्यौः । अ॒भीके॑ । अ॒ग्निः । शर्ध॑म् । अ॒न॒व॒द्यम् । युवा॑नम् । सु॒ऽआ॒ध्य॑म् । ज॒न॒य॒त् । सू॒दय॑त् । च॒ ॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। न सर्वैर्मनुष्यैः कदाचित्सुविद्या शरीरबलाभ्यां विना व्यावहारिकपारमार्थिकसुखे प्राप्येते। न खलु सन्तानेभ्यो विद्यादानेन विना मातापित्रादयोऽनृणा भवितुं शक्नुवन्तीति वेद्यम् ॥८॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सर्व माणसांनी हे जाणावे की उत्तम विद्या शरीरबलयुक्त प्रदीप्त अग्नीप्रमाणे विद्वानांच्या संगतीशिवाय कधी व्यवहार व परमार्थाचे सुख प्राप्त होत नाही व आपल्या संतानांना विद्या दिल्याखेरीज माता-पिता इत्यादी कृतकृत्य होऊ शकत नाहीत. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    When pure light and lustre, living and sanctified, come to the ruling soul for the fulfilment of desire and perfection, then Agni creates the strong, praiseworthy, healthy and self-dependent youth, perfects and guides him in the battle of life.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O young woman, as the glorious electricity causes pure virility and vigour for the fulfilment of noble desires in the battle, so thou should be endowed with that vigour and should marry a robust, irreproachable, intelligent, learned young protector of the people as thy husband according to the law of Svayamvara (Mutual choice) should beget virile children and dispel all misery.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (द्यौ:) प्रकाश: = Light, here radiant or glorious. (अभीके) संग्रामे अभीक इति संग्राम नाम (निध०२.१७) (अग्निः) विद्युत् = Electricity.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should know well that none can get worldly and strength. The parents cannot be free from their debts without giving proper education to their children.

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    Subject of the mantra

    Then, what kind of preceptor is he?This subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (yuvate) =maiden, (tvam)=you, (yathā) =in the manner, (dyauḥ) =light and, (agniḥ) =of electricity, (abhīke) =in the battle, (iṣe) =desire, (yan) =which, (niṣiktam) = accumulated, (śuci) =sacred, (retaḥ) =is vigour, (ca) =and, (tejaḥ) =brilliance, (ānaṭ) =pevades and, (samantāt) =from every side, (prāpayati) =gets attained, (tena) =by that, (yuktā) =having possessed, (tvam) =you, (tathā) =similarly, (śardham) =strong, (anavadyam) =blameless, (svādhyam) =The best and the one who studies knowledge from all sides, (yuvānam) =young, (vidvāṃsam) =scholar, (nṛpatim) =to king,, (svayaṃvaravivāhena) = through the public choice of a husband marriage, (prāpya) =by obtaining, (apatyāni) =children, (ā) =well, (janayat) =give birth to, (ca) =and, (duḥkham) =sorrow, (sūdayat) =remove.

    English Translation (K.K.V.)

    O maiden! The way you wish for light and electricity in battle. Being filled with the sacred vigour that is accumulated and is full of radiance and is made to be obtained from all sides, you get yourself married through svayaṃvara (the public choice of a husband) marriage to a strong, blameless, excellent and young learned king who studies knowledge from all sides. By attaining it, give birth to good children and remove sorrow.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    O maiden! The way you wish for light and electricity in battle. Being filled with the sacred vigour that is accumulated and is full of radiance and is made to be obtained from all sides, you get yourself married through svayaṃvara (the public choice of a husband) marriage to a strong, blameless, excellent and young learned king who studies knowledge from all sides. By attaining it, give birth to good children and remove sorrow.

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