ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 71/ मन्त्र 4
मथी॒द्यदीं॒ विभृ॑तो मात॒रिश्वा॑ गृ॒हेगृ॑हे श्ये॒तो जेन्यो॒ भूत्। आदीं॒ राज्ञे॒ न सही॑यसे॒ सचा॒ सन्ना दू॒त्यं१॒॑ भृग॑वाणो विवाय ॥
स्वर सहित पद पाठमथी॑त् । यत् । ई॒म् । विऽभृ॑तः । मा॒त॒रिश्वा॑ । गृ॒हेऽगृ॑हे । श्ये॒तः । जेन्यः॑ । भूत् । आदी॑म् । राज्ञे॑ । न । सही॑यसे । सचा॑ । सन् । आ । दू॒त्य॑म् । भृग॑वाणः । वि॒वा॒य॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
मथीद्यदीं विभृतो मातरिश्वा गृहेगृहे श्येतो जेन्यो भूत्। आदीं राज्ञे न सहीयसे सचा सन्ना दूत्यं१ भृगवाणो विवाय ॥
स्वर रहित पद पाठमथीत्। यत्। ईम्। विऽभृतः। मातरिश्वा। गृहेऽगृहे। श्येतः। जेन्यः। भूत्। आदीम्। राज्ञे। न। सहीयसे। सचा। सन्। आ। दूत्यम्। भृगवाणः। विवाय ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 71; मन्त्र » 4
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 15; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 15; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्ताः कथंभूता भवेयुरित्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
भृगवाण इव गृहीतविद्याः कुमार्य्यो यथायं विभृतः श्येतो जेन्यो मातरिश्वा यद्दूत्यं तदाविवाय गृहेगृह ईम्प्राप्तमग्निं मथीदात् सहीयसे राज्ञे नेम् सचा सन् भूत् तथैव विद्यायोगेन सुखकारिण्यो भवन्तु ॥ ४ ॥
पदार्थः
(मथीत्) मथति (यत्) (ईम्) प्राप्तमग्निम् (विभृतः) विविधद्रव्यविद्याधारकाः (मातरिश्वा) यो मातर्यन्तरिक्षे श्वसिति स वायुः (गृहेगृहे) प्रतिगृहम् (श्येतः) प्राप्तः (जेन्यः) विजयहेतुः। अत्र बाहुलकादौणादिक एन्यप्रत्ययो डिच्च। (भूत्) भवति (आत्) अनन्तरम् (ईम्) विजयप्रापिका सेना (राज्ञे) नृपतये (न) इव (सहीयसे) यशसा सोढे (सचा) सङ्गत्या (सन्) वर्त्तमानः (आ) समन्तात् (दूत्यम्) दूतस्य भावः कर्म वा (भृगवाणः) भृज्जति पदार्थविद्ययानेकान् पदार्थानिति भृगवाणस्तद्वत् (विवाय) संवृणोति ॥ ४ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। न खलु विद्या ग्रहणेन विना स्त्रीणां किंचिदपि सुखं भवति यथाऽगृहीतविद्याः पुरुषाः सुलक्षणा विदुषीः स्त्रियः पीडयन्ति, तथैव विद्याशिक्षारहिताः स्त्रियः स्वान् पतीन् पीडयन्ति तस्माद्विद्याग्रहणानन्तरमेव परस्परं प्रीत्या स्वयंवरविधानेन विवाहं कृत्वा सततं सुखयितव्यम् ॥ ४ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर उन स्त्रियों को कैसा होना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
(भृगवाणः) अनेकविध पदार्थविद्या से पदार्थों को व्यवहार में लानेहारों के तुल्य विद्याग्रहण की हुई कन्याओ ! जैसे यह (विभृतः) अनेक प्रकार की पदार्थ विद्या का धारण करनेवाला (श्येतः) प्राप्त होने का (जेन्यः) और विजय का हेतु तथा (मातरिश्वा) अन्तरिक्ष में सोने आदि विहारों का करनेवाला वायु (यत्) जो (दूत्यम्) दूत का कर्म है, उसको (आ विवाय) अच्छे प्रकार स्वीकार करता और (गृहे-गृहे) घर-घर अर्थात् कलायन्त्रों के कोठे-कोठे में (ईम्) प्राप्त हुए अग्नि को (मथीत्) मथता है (आत्) अथवा (सहीयसे) यश सहनेवाले (राज्ञे) राजा के लिये (न) जैसे (ईम्) विजय सुख प्राप्त करानेवाली सेना (सचा) सङ्गति के साथ (सन्) वर्त्तमान (भूत्) होती है, वैसे विद्या के योग से सुख करानेवाली होओ ॥ ४ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। विद्या-ग्रहण के विना स्त्रियों को कुछ भी सुख नहीं होता। जैसे अविद्याओं का ग्रहण किये हुए मूढ़ पुरुष उत्तम लक्षण युक्त विद्वान् स्त्रियों को पीड़ा देते हैं, वैसे विद्या शिक्षा से रहित स्त्री अपने विद्वान् पतियों को दुःख देती हैं। इससे विद्या-ग्रहण के अनन्तर ही परस्पर प्रीति के साथ स्वयंवर विधान से विवाह कर निरन्तर सुखयुक्त होना चाहिये ॥ ४ ॥
विषय
वैश्वानर अग्नि का प्राण द्वारा मन्थन
पदार्थ
१. (यत्) = जब (ईम्) = निश्चय से (बिभृतः) = शरीर में ‘प्राणापान - व्यान - समान - उदान’ आदि रूप से विभक्त होकर धारण किया गया यह (मातरिश्वा) = वायु (मथीत्) = अग्नि का मन्थन करता है, अर्थात् प्राणवायु से जाठराग्नि प्रदीप्त की जाती है । जाठराग्नि ही सबका हित करनेवाली होने से वैश्वानर अग्नि कही गई हैं । यह प्राणापान से युक्त होकर ही चतुर्विध अन्न का पाचन करती है । २. एवं वायु जब इस जाठराग्नि को मन्थन द्वारा प्रचण्ड बनाता है तो यह (गृहे गृहे ) = प्रत्येक शरीररूप गृह में (श्येतः) = [श्यैङ् गतौ] गतिवाली होती है और (जेन्यः) = रोगों व मलों का पराजय करनेवाली (भूत्) = होती है । ३. (आत् ईम्) = अब निश्चय से यह (भृगवाणः) = [भ्रस्ज पाके] रोगों का भून डालनेवाली अग्नि (सचा सन्) = सदा इस प्राणवायु के साथ होती हुई (दूत्यम्) = शत्रु - सन्तानरूप कार्य को (आविवाय) = सम्यक् प्राप्त करती है । जाठराग्नि ठीक हो, प्राणायाम की साधना चलती हो तो फिर रोगों की आशंका नहीं रहती । यह अग्नि रोग - पराभव के लिए इस प्रकार सहायक होती है (न) = जैसेकि (सहीयसे राज्ञे) = शत्रु - पराभवकारी राजा के लिए उसका सैन्य सहायक होता है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणायाम द्वारा जाठराग्नि प्रदीप्त होकर रोगरूप शत्रुओं का पराभव करती है, जैसेकि बलवान् राजा के लिए उसका सैन्य शत्रुओं का पराभव करता है ।
विषय
तीव्र वायु के समान वीर राजा के कर्तव्य ।
भावार्थ
( यत् ) जिस प्रकार (विभृतः) विशेष बल को धारण करनेवाला या विविध प्रजाओं का पालक पोषक नली आदि द्वारा विशेष उपाय से धारण किया जाकर ( मातरिश्वा ) वायु (ईम्) इस अग्नि को (मथीत् ) मथता है, नाना प्रकार से तीव्र करता है, तब वह ( गृहे गृहे ) घर २ में ( श्येतः ) श्वेत, शुभ्रवर्ण का होकर ( जेन्यः ) प्रकट होता, प्रकाशित होता है। तभी वह ( भृगवाणः ) भूनने वाला तीव्र अग्नि के रूप में होकर ( दूत्यं आविवाय ) तोप क्रिया को प्रकट करता है । उसी प्रकार (विभृतः) विशेष एवं विविध प्रजाओं का पोषक और विशेष रूप से धारित और पोषित (मातरिश्वा) पृथिवी पर वेग से प्रयाण करनेवाला राजा ( ईम् ) इस अग्रणी नायक को (मथीत्) मथे, प्रकट करे । अर्थात् संघर्ष या प्रतिस्पर्द्धा द्वारा जो सबसे अधिक उत्तम सिद्ध हो उसको अग्रणी सेनापति बनावे । वह ( गृहे गृहे ) प्रत्येक स्वीकार करने और प्रजा और देश को अपने वश करने के अधिकार पर (श्येतः) अति प्रबल और सम्पन्न होकर (जेन्यः) विजयशील ( भूत् ) हो । (आत् ईम्) अनन्तर (भृगवाणः) सब पदार्थों को भून देने वाले, अग्नि के समान शत्रुओं को पीड़ित करने में समर्थ होकर राजा (ईम्) उस नायक को (सचा सन्) समवाय बल से प्राप्त होकर (सहीयसे राज्ञे न) राजा के समान प्रबल राष्ट्र के विजय के लिए (दूत्यम्) दूत अर्थात् अपने प्रतिनिधि के कार्य पर (आ विवाय) स्थापित करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पराशर ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१, ६, ७ त्रिष्टुप् । २, ५ निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ४, ८, १० विराट् त्रिष्टुप् । भूरिक् पंक्तिः ॥
विषय
विषय (भाषा)- फिर उन स्त्रियों को कैसा होना चाहिये, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- भृगवाणः इव गृहीतविद्याः कुमार्य्यः यथा अयं विभृतः श्येतः जेन्यः मातरिश्वा यत् दूत्यं तदा विवाय गृहे गृहे ईम् प्राप्तम् अग्निं मथीत् आत् सहीयसे राज्ञे न ईम् सचा {आ} सन् भूत् तथा एव विद्या योगेन सुखकारिण्यः भवन्तु ॥४॥
पदार्थ
पदार्थः- (भृगवाणः) भृज्जति पदार्थविद्ययानेकान् पदार्थानिति भृगवाणस्तद्वत्=पदार्थ विद्या से अनेक पदार्थों को भून देनेवाले के, (इव)=समान, (गृहीतविद्याः)= ग्रहण की हुई विद्या से, (कुमार्य्यः)=तरुण कन्यायें, (यथा)=जैसे, (अयम्)=इस, (विभृतः) विविधद्रव्यविद्याधारकाः=विविध पदार्थों को धारण करनेवाले, (श्येतः) प्राप्तः=प्राप्त करके, (जेन्यः) विजयहेतुः=विजय के लिये, (मातरिश्वा) यो मातर्यन्तरिक्षे श्वसिति स वायुः=वायु जिससे माता अन्तरिक्ष में सांस लेते हैं, (यत्) =जो, (दूत्यम्) दूतस्य भावः कर्म वा= संदेश वाहक का भाव या कर्म है, (तदा)=तब, (विवाय) संवृणोति =एकत्रित करके, (गृहेगृहे) प्रतिगृहम्=प्रत्येक घर में, (ईम्) प्राप्तमग्निम् =प्राप्त अग्नि को, (मथीत्) मथति=मथता है, (आत्) अनन्तरम्=इसके पश्चात्, (सहीयसे) यशसा सोढे=यश से सहन करता है, (राज्ञे) नृपतये=राजा के, (न) इव=समान, (ईम्) विजयप्रापिका सेना=विजय प्राप्त करानेवाली सेना, (सचा) सङ्गत्या= सङ्गति करके, {आ} समन्तात्=हर ओर से, (सन्) वर्त्तमानः=उपस्थित, (भूत्) भवति=होता है, (तथा)=वैसे, (एव)=ही, (विद्या)= विद्या के, (योगेन)=योग से,(सुखकारिण्यः)= सुखकारी, (भवन्तु)=होओ ॥४॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। विद्या के ग्रहण किये विना स्त्रियों को कुछ भी सुख नहीं होता है। जैसे विद्या को ग्रहण न किये हुए पुरुष उत्तम लक्षण से युक्त विदुषी स्त्रियों को पीड़ा देते हैं, वैसे ही विद्या और शिक्षा से रहित स्त्रियां अपने पतियों को पीड़ा देती हैं। इसलिये विद्या को ग्रहण के पश्चात् ही परस्पर प्रीति के साथ स्वयंवर विधान से विवाह कर निरन्तर सुखी होना चाहिये ॥४॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- (भृगवाणः) पदार्थ विद्या से अनेक पदार्थों को भून देनेवाले के (इव) समान (गृहीतविद्याः) ग्रहण की हुई विद्या से, (कुमार्य्यः) तरुण कन्यायें (यथा) जैसे (अयम्) इस (विभृतः) विविध पदार्थों को धारण करनेवाले को (श्येतः) प्राप्त करके (जेन्यः) विजय के लिये (मातरिश्वा) वायु जिससे माता अन्तरिक्ष में सांस लेते हैं और (यत्) जो [वायु] (दूत्यम्) संदेश वाहक का भाव या कर्म है, [उस वायु को] (तदा) तब (विवाय) एकत्रित करके (गृहेगृहे) प्रत्येक घर में (ईम्) प्राप्त अग्नि को [इससे] (मथीत्) मथता है। (आत्) इसके पश्चात् (सहीयसे) यश को सहन करनेवाले (राज्ञे) राजा के (न) समान (ईम्) विजय प्राप्त करानेवाली सेना की (सचा) सङ्गति करके {आ} हर ओर से (सन्) उपस्थित (भूत्) होता है, (तथा) वैसे (एव) ही (विद्या) विद्या के (योगेन) योग से [तुम तरुण कन्या](सुखकारिण्यः) सुखकारी (भवन्तु) होओ ॥४॥
संस्कृत भाग
मथी॑त् । यत् । ई॒म् । विऽभृ॑तः । मा॒त॒रिश्वा॑ । गृ॒हेऽगृ॑हे । श्ये॒तः । जेन्यः॑ । भूत् । आदी॑म् । राज्ञे॑ । न । सही॑यसे । सचा॑ । सन् । आ । दू॒त्य॑म् । भृग॑वाणः । वि॒वा॒य॒ ॥ विषयः- पुनस्ताः कथंभूता भवेयुरित्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। न खलु विद्या ग्रहणेन विना स्त्रीणां किंचिदपि सुखं भवति यथाऽगृहीतविद्याः पुरुषाः सुलक्षणा विदुषीः स्त्रियः पीडयन्ति, तथैव विद्याशिक्षारहिताः स्त्रियः स्वान् पतीन् पीडयन्ति तस्माद्विद्याग्रहणानन्तरमेव परस्परं प्रीत्या स्वयंवरविधानेन विवाहं कृत्वा सततं सुखयितव्यम् ॥४॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. विद्या ग्रहण केल्याखेरीज स्त्रियांना थोडेही सुख मिळत नाही. अविद्यायुक्त मूढ पुरुष उत्तम लक्षणयुक्त स्त्रियांना त्रास देतात तसे विद्या शिक्षणानेरहित स्त्रिया आपल्या विद्वान पतींना दुःख देतात. त्यामुळे विद्याग्रहणानंतरच परस्पर प्रीतीने स्वयंवर विधानाने विवाह करून निरंतर सुखी झाले पाहिजे. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
If the wind, bearing the wealth of agni, and others were to chum out and produce fire and electricity which then emerges bright and victorious in every home, then the scholars of science would refine and develop it for the purpose of communication and transport and use it as ambassador for the grand ruling power and order of the society between one people and another in friendship.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should the girls or women be is taught in the fourth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
As when the diffusive vital air excites Agni (fire), it becomes bright and manifest in every house, performing the function of a messenger, as a prince who has become a friend sends an ambassador to his more powerful conqueror, in the same manner, maidens who have received good education like a scientist experimenting on various objects should be givers of happiness to all by their knowledge.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(मातरिश्वा) यो मातरि अन्तरिक्षे श्वसिति सः मातरिश्वा वायुः | = Air. (ईम्) विजयप्रापिका सेना = Army causing victory over the enemy. (ईम् इति पदनाम पद -गतौ अत्र प्राप्त्यर्थग्रहणम् ) (भृगवाण:) भृज्जति पदार्थविद्यया अनेकान् पदार्थान् इति भृगवाणः तद्वत् । = Like a great scientist.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Women can never enjoy happiness without acquiring knowledge or education. As un-educated husbands annoy or cause pain to their well-educated cultured wives, in the same way, un-educated un-cultured wives annoy their husbands. Therefor men and women should marry each other according to the system of Svayambara (choice) based upon mutual love) and then should enjoy happiness.
Subject of the mantra
Then, how those women should be? This has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(bhṛgavāṇaḥ)=One who can fry many things through material science, (iva) =like, (gṛhītavidyāḥ) =by the knowledge acquired, (kumāryyaḥ)=young girls, (yathā) =like, (ayam)=this, (vibhṛtaḥ) =one who holds various things, (śyetaḥ) =obtaining, (jenyaḥ) =for victory, (mātariśvā) in the mother space through which we breathe and, (yat) =that, [vāyu]=air, (dūtyam) =It is the feeling or action of the messenger, [usa vāyu ko]=to that air, (tadā) =then, (vivāya) =having collected, (gṛhegṛhe) =in every house, (īm) =to the fire available, [isase]=by this, (mathīt) =churns, (āt) =afterwards, (sahīyase)=who endures fame, (rājñe) =of king, (na) =like, (īm) =of the conquering army, (sacā) =having accompanied, {ā} =from every side, (san) =present, (bhūt) =is, (tathā) similarly, (eva) =only, (vidyā) =of knowledge, (yogena)=with the help of, [tuma taruṇa kanyā]= you young girls, (sukhakāriṇyaḥ)=pleasurable, (bhavantu) =be.
English Translation (K.K.V.)
From material knowledge, like the one who roasts many things, from the knowledge acquired, like the young girls who possess these various things, for victory, like air in the mother space through which we breathe and that air is the feeling or action as messenger carrier, That air is then collected and used to churn the fire found in every house. After this, like a king who endures fame and is present from all sides in the company of an army that achieves victory, in the same way you young girls become pleasurable with the help of knowledge.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Women do not get any happiness without acquiring knowledge. Just as men who have not acquired knowledge torment wise women with good qualities, similarly women who are devoid of knowledge and education torment their husbands. Therefore, only after attaining knowledge they should get married with mutual love and remain happily married as per the svayaṃvara (girl choosing her husband) ritual.
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