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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 71 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 71/ मन्त्र 7
    ऋषिः - पराशरः शाक्तः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒ग्निं विश्वा॑ अ॒भि पृक्षः॑ सचन्ते समु॒द्रं न स्र॒वतः॑ स॒प्त य॒ह्वीः। न जा॒मिभि॒र्वि चि॑किते॒ वयो॑ नो वि॒दा दे॒वेषु॒ प्रम॑तिं चिकि॒त्वान् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निम् । विश्वाः॑ । अ॒भि । पृक्षः॑ । स॒च॒न्ते॒ । स॒मु॒द्रम् । न । स्र॒वतः॑ । स॒प्त । य॒ह्वीः । न । जा॒मिभिः॑ । वि । चि॒कि॒ते॒ । वयः॑ । नः॒ । वि॒दाः । दे॒वेषु॑ । प्रऽम॑तिम् । चि॒कि॒त्वान् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निं विश्वा अभि पृक्षः सचन्ते समुद्रं न स्रवतः सप्त यह्वीः। न जामिभिर्वि चिकिते वयो नो विदा देवेषु प्रमतिं चिकित्वान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निम्। विश्वाः। अभि। पृक्षः। सचन्ते। समुद्रम्। न। स्रवतः। सप्त। यह्वीः। न। जामिभिः। वि। चिकिते। वयः। नः। विदाः। देवेषु। प्रऽमतिम्। चिकित्वान् ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 71; मन्त्र » 7
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    यश्चिकित्वान् नोऽस्मान् देवेषु प्रमतिं विदा वयो विचिकिते तमग्निमिव विश्वाः पृक्षः पुत्र्यः कान्तयो वा समुद्रं स्रवतः सप्त प्राणान् यह्वीर्नेवाभिसचन्ते यतो वयं मूर्खाभिर्दुःखदाभिर्जामिभिर्वा सह न संवसेम ॥ ७ ॥

    पदार्थः

    (अग्निम्) विद्युतम् (विश्वाः) अखिलाः (अभि) अभितः (पृक्षः) याः पृचते विद्यासम्पर्कं कुर्वन्ति ताः पुत्र्यः (सचन्ते) समवयन्ति (समुद्रम्) अर्णवम् (न) इव (स्रवतः) प्राणान् (सप्त) प्राणापानव्यानोदानसमानसूत्रात्मकारणस्थान् (यह्वीः) महत्यो रुधिरविद्युदादिगतयः (न) निषेधे (जामिभिः) स्त्रीभिः (वि) विशेषे (चिकिते) ज्ञापयति (वयः) विज्ञानम् (नः) अस्मान् (विदाः) विज्ञापय (देवेषु) विद्वत्सु दिव्यगुणेषु वा (प्रमतिम्) प्रकृष्टं ज्ञानम् (चिकित्वान्) ज्ञानवान् ज्ञापको वा ॥ ७ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा समुद्रं नद्यः प्राणान् विद्युदादयश्च संयुञ्जन्ति तथैव मनुष्याः सर्वे पुत्रा कन्याश्च ब्रह्मचर्य्येण विद्याव्रते समाप्य युवाऽवस्थां प्राप्य विवाहादिना सन्तानानुत्पाद्य तेभ्यस्तथैव विद्यासुशिक्षा ग्राहयेयुरनेन समः कश्चिदधिक उपकारो न विद्यत इति ॥ ७ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    जो (चिकित्वान्) ज्ञानवान् ज्ञान का हेतु (नः) हम लोगों को (देवेषु) विद्वान् वा दिव्यगुणों में (प्रमतिम्) उत्तम ज्ञान को (विदाः) प्राप्त करता (वयः) जीवन का (विचिकिते) विशेष ज्ञान कराता है, उस (अग्निम्) अग्नि के समान विद्वान् (विश्वाः) सब (पृक्षः) विद्यासम्पर्क करनेवाले पुत्र वा दीप्ति (समुद्रम्) समुद्र वा (स्रवतः) नदी के समान शरीर को गमन कराते हुए (सप्त) सात अर्थात् प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान इन पाँच के और सू्त्ररूप आत्मा के समान सूत्रात्मकारणस्थ तथा (यह्वीः) रुधिर वा बिजुली आदि की गतियों के (न) समान (अभिसचन्ते) सम्बन्ध करती हैं, जिससे हम लोग मूर्ख वा दुःख देनेवाली (जामिभिः) स्त्रियों के साथ (न) नहीं बसें ॥ ७ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा तथा वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे समुद्र को नदी वा प्राणों को बिजुली आदि गति संयुक्त करती हैं, वैसे ही मनुष्य सब पुत्र वा कन्या ब्रह्मचर्य्य से विद्या वा व्रतों को समाप्त करके युवावस्थावाले होकर विवाह से सन्तानों को उत्पन्न कर उनको इसी प्रकार विद्या शिक्षा सदा ग्रहण करावें। पुत्रों के लिये विद्या की उत्तम शिक्षा करने के समान कोई बड़ा उपकार नहीं है ॥ ७ ॥

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    विषय

    ज्ञानप्रधान न कि भोगप्रधान जीवन

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र की समाप्ति पर कहे गये [राया यासत्] शब्दों का व्याख्यान करते हुए कहते हैं कि (अग्निम्) = इस प्रगतिशील जीव को (विश्वाः) = सब (पृक्षः) अन्न [नि० २/७] (अभिसचन्ते) = सब ओर से प्राप्त होते हैं । इसे किसी प्रकार से अन्नों की कमी नहीं होती । इसे उसी प्रकार अन्न प्राप्त होते हैं (न) = जैसेकि (सप्त) = सर्पणशील (यह्वीः) = महान् (स्रवतः) = नदियाँ (समुद्रम्) = समुद्र को प्राप्त होती हैं । २. (नः वयः) = हमारा जीवन (जामिभिः) = केवल सन्तानों को जन्म देनेवाली ज्ञानशून्य स्त्रियों के साथ ही (न विचिकते) = [कित् to live] नहीं बिता दिया जाता, अर्थात् केवल भोगविलास तक ही हम अपने जीवन को समाप्त नहीं कर देते । ३. (चिकित्वान्) = समझदार पुरुष (देवेषु) = विद्वानों में (प्रमतिम्) = प्रकृष्ट मति को (विदाः) = प्राप्त कराता है, विद्वानों के सम्पर्क में आकर वह अपने ज्ञान को बढ़ाने के लिए यत्नशील होता है । इस प्रकार इसका जीवन भोगप्रधान न बीतकर ज्ञानप्रधान ही बीतता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रगतिशील प्रभुभक्त को खान - पान की कमी नहीं रहती । यह भोगप्रधान जीवन न बिताकर ज्ञानियों के सम्पर्क में ज्ञान को बढ़ाने के लिए यत्नशील होता है ।

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    विषय

    समुद्र के समान आचार्य राजा और परमेश्वर

    भावार्थ

    ( स्रवतः ) झरने वाली (सप्त) देशों में सर्पण करने वाली, बहती २ ( यह्वीः ) बड़ी २ नदियां (समुद्रम् न ) जिस प्रकार समुद्र को प्राप्त होती हैं उसी प्रकार ( विश्वाः ) समस्त ( पृक्षः ) विद्याभिलाषी जन ( अग्निम् ) ज्ञानवान् आचार्य को ( अभि सचन्ते ) प्राप्त करते हैं और (विश्वाः पृक्षः) समस्त परस्पर सम्पर्क, परस्पर सहयोग से मिलकर एक हुई सेनाएं और संगठित प्रजाएं (अग्निं) अग्रणी नायक और सेनापति का (अभि सचन्ते) आश्रय लेती हैं । ( नः ) हमारा ( वयः ) सेना बल और अन्नादि ऐश्वर्य (जामिभिः) बन्धुओं द्वारा (न)(विचिकिते) जाना जाय, अर्थात् कोई हमारे बल और ऐश्वर्य का पार न पा सके । (चिकित्वान्) ज्ञानवान् पुरुष ( देवेषु ) विद्वानों और विजयी पुरुषों द्वारा उनके बल पर ( नः ) हमें ( प्रमतिम् ) उत्तम ज्ञान और स्तम्भन पति के बल (विदाः) प्राप्त करावें । परमेश्वर के पक्ष में—समुद्र का नदियों के समान समस्त भक्त जन ज्ञानवान् प्रभु का आश्रय लेते हैं। हमारा ज्ञान और आयु ( जामिभिः ) इन्द्रियों द्वारा व्यय न हो। वह ज्ञानी आत्मा (देवेषु) विद्वानों और प्राणों के आश्रय उत्तम ज्ञान प्राप्त करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पराशर ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१, ६, ७ त्रिष्टुप् । २, ५ निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ४, ८, १० विराट् त्रिष्टुप् । भूरिक् पंक्तिः ॥

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    विषय

    विषय (भाषा)- फिर वह परमेश्वर कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- यः चिकित्वान् नःअस्मान् देवेषु प्रमतिं विदा वयः वि चिकिते तम् अग्निम् इव विश्वाः पृक्षः पुत्र्यः कान्तयः वा समुद्रं स्रवतः सप्त प्राणान् यह्वीः न इव अभि सचन्ते यतः वयं मूर्खाभिः दुःखदाभिः जामिभिः वा सह न संवसेम ॥७॥

    पदार्थ

    पदार्थः- (यः)=जो, (चिकित्वान्) ज्ञानवान् ज्ञापको वा= ज्ञानवान् और ज्ञान प्रदान करनेवाला, (नः) अस्मान्=हमें, (देवेषु) विद्वत्सु दिव्यगुणेषु वा=विद्वानों में और दिव्य गुणों में, (प्रमतिम्) प्रकृष्टं ज्ञानम्= प्रकृष्ट ज्ञान को, (विदाः) विज्ञापय=प्रकट करता है, (वयः) विज्ञानम्=विशेष ज्ञान को, (वि) विशेषे= विशेष रूप से, (चिकिते) ज्ञापयति= प्रकट करता है, (तम्)=उसको, (अग्निम्) विद्युतम्=विद्युत् के, (इव)=समान, (विश्वाः) अखिलाः=समस्त, (पृक्षः) याः पृचते विद्यासम्पर्कं कुर्वन्ति ताः पुत्र्यः=संयमित कराने का कार्य और विद्या से सम्पर्क करानेवाले, (वा)=और, (कान्तयः)= मनभावन, (समुद्रम्) अर्णवम्=अन्तरिक्ष रूपी समुद्र को, (स्रवतः) प्राणान्=प्राणों का, (सप्त) प्राणापानव्यानोदानसमानसूत्रात्मकारणस्थान्=प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान, (प्राणान्)= प्राणों के, (यह्वीः) महत्यो रुधिरविद्युदादिगतयः= रुधिर, विद्युत् आदि गतियों के, (न) इव =समान, (अभि) अभितः= हर ओर से, (सचन्ते) समवयन्ति=आश्रय लेते हैं, (यतः)= क्योंकि, (वयम्)=हम, (मूर्खाभिः)=मूर्ख आदि के, (वा)=और, (दुःखदाभिः+जामिभिः)=दुख देनेवाली स्त्रियों के, (सह)=साथ, (न) निषेधे=नहीं, (संवसेम)=हम निवास करें ॥७॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में उपमा तथा वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे समुद्र को नदियां और प्राणों को विद्युत् आदि भी संयुक्त करती हैं, वैसे ही मनुष्य सब पुत्र और पुत्रियों को ब्रह्मचर्य्य से विद्या के व्रतवाला बनाने के पश्चात् युवा अवस्थावाले होने पर विवाह आदि से सन्तानों को उत्पन्न करके, उनको भी उसी प्रकार से विद्या और उत्तम शिक्षा सदा ग्रहण करायें, इसके समान कोई बड़ा उपकार नहीं होता है ॥७॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- (यः) जो (चिकित्वान्) ज्ञानवान् और ज्ञान प्रदान करनेवाला, (नः) हमें (देवेषु) विद्वानों में और दिव्य गुणों में, (प्रमतिम्) प्रकृष्ट ज्ञान और (वयः) विशेष ज्ञान को, (वि) विशेष रूप से (चिकिते) प्रकट करता है, (तम्) उसको (अग्निम्) विद्युत् के (इव) समान (विश्वाः) समस्त (पृक्षः) संयमित कराने का कार्य, विद्या से सम्पर्क करानेवाले हैं (वा) और (कान्तयः) मनभावन (समुद्रम्) अन्तरिक्ष रूपी समुद्र के, (स्रवतः) प्राण वायुओं के (सप्त) प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान नाम के [पाँच] (प्राणान्) प्राणों की और (यह्वीः) रुधिर, विद्युत् दो, [इस प्रकार कुल सात] और अन्य आदि गतियों के (न) समान (अभि) हर ओर से (सचन्ते) आश्रय लेते हैं। (यतः) क्योंकि (मूर्खाभिः) मूर्ख (वा) और (दुःखदाभिः+जामिभिः) दुख देनेवाली स्त्रियों के (सह) साथ (वयम्) हम (न+संवसेम) निवास न करें ॥७॥

    संस्कृत भाग

    अ॒ग्निम् । विश्वाः॑ । अ॒भि । पृक्षः॑ । स॒च॒न्ते॒ । स॒मु॒द्रम् । न । स्र॒वतः॑ । स॒प्त । य॒ह्वीः । न । जा॒मिभिः॑ । वि । चि॒कि॒ते॒ । वयः॑ । नः॒ । वि॒दाः । दे॒वेषु॑ । प्रऽम॑तिम् । चि॒कि॒त्वान् ॥ विषयः- पुनस्स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा समुद्रं नद्यः प्राणान् विद्युदादयश्च संयुञ्जन्ति तथैव मनुष्याः सर्वे पुत्रा कन्याश्च ब्रह्मचर्य्येण विद्याव्रते समाप्य युवाऽवस्थां प्राप्य विवाहादिना सन्तानानुत्पाद्य तेभ्यस्तथैव विद्यासुशिक्षा ग्राहयेयुरनेन समः कश्चिदधिक उपकारो न विद्यत इति ॥७॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जसे समुद्राला नदी किंवा प्राणांना विद्युत इत्यादी गतिसंयुक्त करतात तसेच माणसांनी सर्व पुत्र व कन्यांना ब्रह्मचर्यपूर्वक विद्या व व्रत संपवून युवावस्थेत विवाह करून संतान उत्पन्न करून त्यांना त्याचप्रकारे विद्या व शिक्षण सदैव द्यावे. पुत्रांना विद्या व उत्तम शिक्षण देण्याखेरीज कोणताही मोठा उपकार नाही. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    All foods, all that move and ripen go to Agni like the seven restless streams heading to the sea. The web of our life is incomprehensible to those on the move. May the Lord of Omniscience direct our will and intelligence and establish us among the wise and the brilliant sages of vision.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is Agni is taught further in the 7th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    As the flowing great rivers going to distant places attain the sea at the end, boys and girls desiring to acquire knowledge approach a learned Acharya (preceptor) who imparts education to them and increases their life (the movements of the circulation of blood and electricity go to seven Pranas i. e. Prana, apana, Udana, Samana, SutraAtma, Koorma (Subtle form).Let all receive gcod education from wise preceptors, so that we may not live with un-educated and paingiving women.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (पृचः) याः पृचते विद्यासम्पर्क कुर्वन्ति ता पुत्र्यः = The daughters who desire to acquire knowledge. (सप्त) प्राणापानव्यानोदान समान सूत्रात्मकारणस्थान् = Seven Pranas. (वयः) विज्ञानम् = knowledge (यह्वीः) महत्यो रुधिरविद्युदादिगतयः = Great movements of the blood and electricity etc.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the river go to the sea and as the movements of the electricity are united with the Pranas (vital breaths) in the same manner, men should give wisdom and good education to all their sons and daughters with Brahamacharya and after they finish their education and the vow of Brahamacharya and attain youth, they should get them married so that they may have good progeny. There is no greater benevolence than this on the part of the parents.

    Translator's Notes

    यह इति महन्नाम (निघ० ३-३ ) = Great. जामय:-स्त्रियः= Women as is clear in शोचन्ति जामयो यत्र विनश्यत्याशु तत्कुलम् ॥ (मनु०) = and other verses.

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    Subject of the mantra

    Then, what kind of that God is? This subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (yaḥ) =Those, (cikitvān) =who is knowledgeable and provides knowledge, (naḥ) =to us, (deveṣu)=In scholars and in divine qualities, (pramatim)= great knowledge and, (vayaḥ) =special knowledge, (vi) =especially, (cikite) =reveals, (tam) =to that, (agnim) =of electricity, (iva) =like, (viśvāḥ) =all, (pṛkṣaḥ) =the work of making one restrained, the one who brings one in touch with Vidya, (vā) =and, (kāntayaḥ)=pleasant, (samudram) =of the ocean of space, (sravataḥ) =of vital breath, (sapta) =named as prāṇa, pāna, vyāna, udāna and samāna, [pāṁca]=five, (prāṇān) =brath and, (yahvīḥ) rudhira and vidyut two,, [isa prakāra kula sāta] =thus toal seven movements, (na) =like, (abhi) =from every side, (sacante) =take shelter, (yataḥ) =because, (mūrkhābhiḥ) =fools etc., (vā)and, (duḥkhadābhiḥ+jāmibhiḥ) =of sorrow giving women, (saha) = in the company of, (vayam)=we, (na+saṃvasema) = should not live.

    English Translation (K.K.V.)

    The one, who is knowledgeable and provides knowledge, who especially reveals to us the divine and special knowledge in scholars and divine qualities, the work of controlling everything like electricity, the life of the ocean of space in the form of a person who connects us with knowledge, and the life of the ocean in the form of a pleasant space takes shelter from all sides, the five life forces of the vital breath, namely prāṇa, pāna, vyāna, udāna and samāna and similar names and rudhira and vidyut two, thus a total of seven are other movements. Because we should not live in the company of fools et cetera and women who cause pain.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There are paronomasia and simile as figurative in this mantra. Just as the oceans are united by rivers and the life-breaths by electricity etc., in the same way, after making all the sons and daughters to have vow for attaining knowledge through celibacy; after giving birth to children through marriage etc. when they are young, they (grand children) too are given vidya and good knowledge in the same way, there is no greater beneficence than this.

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