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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 71 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 71/ मन्त्र 9
    ऋषिः - पराशरः शाक्तः देवता - अग्निः छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    मनो॒ न योऽध्व॑नः स॒द्य एत्येकः॑ स॒त्रा सूरो॒ वस्व॑ ईशे। राजा॑ना मि॒त्रावरु॑णा सुपा॒णी गोषु॑ प्रि॒यम॒मृतं॒ रक्ष॑माणा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मनः॑ । न । यः । अध्व॑नः । स॒द्यः । एति॑ । एकः॑ । स॒त्रा । सूरः॑ । वस्वः॑ । ई॒शे॒ । राजा॑ना । मि॒त्रावरु॑णा । सु॒पा॒णी इति॑ सु॒ऽपा॒णी । गोषु॑ । प्रि॒यम् । अ॒मृत॑म् । रक्ष॑माणा ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मनो न योऽध्वनः सद्य एत्येकः सत्रा सूरो वस्व ईशे। राजाना मित्रावरुणा सुपाणी गोषु प्रियममृतं रक्षमाणा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मनः। न। यः। अध्वनः। सद्यः। एति। एकः। सत्रा। सूरः। वस्वः। ईशे। राजाना। मित्रावरुणा। सुपाणी इति सुऽपाणी। गोषु। प्रियम्। अमृतम्। रक्षमाणा ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 71; मन्त्र » 9
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 16; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    विद्यया किं प्राप्नोतीत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे स्त्रीपुरुषो ! युवां यथा विद्वान् मनो न सूर इव विमानादियानैरध्वनः पारं सद्य एति य एकः सत्रा वस्व ईशे तथा गोषु प्रियममृतं रक्षमाणा सुपाणी मित्रावरुणौ राजा नेव भूत्वा धर्मार्थकाममोक्षान् साध्नुयाताम् ॥ ९ ॥

    पदार्थः

    (मनः) सङ्कल्पविकल्पात्मिकान्तःकरणवृत्तिः (न) इव (यः) विद्वान् (अध्वनः) मार्गान् (सद्यः) शीघ्रम् (एति) गच्छति (एकः) असहायः (सत्रा) सत्यान् गुणकर्मस्वभावान् (सूरः) प्राणिगर्भविमोचिका प्राणस्थविद्युदिव (वस्वः) वसूनि (ईशे) ऐश्वर्ययुक्तो भवति (राजाना) प्रकाशमानौ सभाविद्याध्यक्षौ (मित्रावरुणा) यः सर्वमित्रः सर्वेश्वरश्च तौ (सुपाणी) शोभनाः पाणयो व्यवहारा ययोस्तौ (गोषु) पृथिवीराज्येषु (प्रियम्) प्रीतिकरम् (अमृतम्) सर्वसुखप्रापकत्वेन दुःखविनाशकम् (रक्षमाणा) यौ रक्षतस्तौ। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदम् ॥ ९ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा मनुष्या न विद्याविद्वत्सङ्गाभ्यां विना विमानादीन् रचयित्वा तत्र स्थित्वा देशान्तरेषु सद्यो गमनागमने सत्यविज्ञानमुत्तमद्रव्यप्राप्तिर्धार्मिको राजा च राज्यं भावयितुं शक्नुवन्ति तथा स्त्रीपुरुषेषु विद्या बलोन्नत्या विना सुखवृद्धिर्न भवति ॥ ९ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    विद्या से क्या प्राप्त होता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे स्त्रीपुरुषो ! तुम विद्वान्मनुष्य जैसे (मनः) सङ्कल्पविकल्परूप अन्तःकरण की वृत्ति के (न) समान वा (सूरः) प्राणियों के गर्भों को बाहर करनेहारी प्राणस्थ बिजुली के तुल्य विमान आदि यानों से (अध्वनः) मार्गों को (सद्यः) शीघ्र (एति) जाता और (यः) जो (एकः) सहायरहित एकाकी (सत्रा) सत्य गुण, कर्म और स्वभाववाला (वस्वः) द्रव्यों को शीघ्र (ईशे) प्राप्त करता है, वैसे (गोषु) पृथिवीराज्य में (प्रियम्) प्रीतिकारक (अमृतम्) सब सुखों-दुःखों के नाश करनेवाले अमृत की (रक्षमाणा) रक्षा करनेवाले (सुपाणी) उत्तम व्यवहारों से युक्त (मित्रावरुणौ) सबके मित्र सब से उत्तम (राजाना) सभा वा विद्या के अध्यक्षों के सदृश हो के धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को सिद्ध किया करो ॥ ९ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे मनुष्य विद्या और विद्वानों के संग के विना विमानादि यानों को रच और उनमें स्थित होकर देश-देशान्तर में शीघ्र जाना-आना, सत्य विज्ञान, उत्तम द्रव्यों की प्राप्ति और धर्मात्मा राजा राज्य के सम्पादन करने को समर्थ नहीं हो सकते, वैसे स्त्री और पुरुषों में निरन्तर विद्या और शरीरबल की उन्नति के विना सुख की बढ़ती कभी नहीं हो सकती ॥ ९ ॥

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    विषय

    अमृतरक्षण

    पदार्थ

    १. गतमन्त्रानुसार तेजस्विता को व्याप्त करनेवाला व्यक्ति वह होता है (यः) = जो (सूरः) = बुद्धिमान् (मनः न) = मन के अनुसार (अध्वनः) = [अध्वनः पारम्] मार्ग के पार को (सद्यः एति) = शीघ्रता से प्राप्त होता है, (एकः) = यह अकेला ही कर्तव्य - मार्ग पर आगे बढ़ता है, औरों के चलने की प्रतीक्षा नहीं करता । और चल रहे हैं या नहीं यह नहीं देखता रहता, बड़ी स्फूर्ति के साथ अपने कर्तव्यों का पालन करता है । (सत्रा) = एक होता हुआ भी यह अपने को परमात्मा के साथ [सत्रा - सह] अनुभव करता है । इसी से तो यह अव्याकुलता के साथ आगे बढ़ता है । (वस्वः ईशे) = यह सब वसुओं का ईश बनता है । प्रभु को अपना मित्र जानते हुए कर्तव्यपथ पर आगे बढ़ते जाना ही तो वसुओं की प्राप्ति का मार्ग है । २. एक घर में उपर्युक्त वृत्तिवाले पति - पत्नी (राजाना) = [क] इन्द्रियों के शासक होते हैं, [ख] दीप्त जाननेवाले होते हैं, [ग] व्यवस्थित [Regulated] क्रियावाले होते हैं । ये (मित्रावरुणा) = प्राणापान की साधनावाले अथवा सबसे प्रेम करनेवाले व द्वेष से दूर रहनेवाले होते हैं । (सुपाणी) = उत्तम हाथोंवाले, अर्थात् हाथों से सदा उत्तम कर्मों को उत्तमता से करनेवाले होते हैं । ये पति - पत्नी (गोषु) = अपनी इन्द्रियों में (प्रियम् )- आनन्द के जनक (अमृतम्) = अमृतत्त्व को (रक्षमाणा) = रक्षित करनेवाले होते हैं, अर्थात् इनकी इन्द्रियाँ विषय - वासनाओं के पीछे नहीं भागती, उनमें आसक्त नहीं होती, अतः एक आनन्द की अनुभूति का कारण बनती हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम अपने कर्तव्य - पथ पर आगे बढ़ें । इस बात का ध्यान करें कि हमारी इन्द्रियाँ विषय - प्रवण न हो जाएँ ।

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    विषय

    शूरवीर और ज्ञानी का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( यः ) जो शूरवीर राजा और ज्ञानी विद्वान् ( मनः ) मन के समान तीव्र होकर ( एकः ) अकेला ही (सद्यः) शीघ्र ही (अध्वनः) युद्ध के मार्ग के समान इस संसार के आवागमन के मार्ग को भी ( एति ) पार कर जाता है और जो दूसरा (सूरः) सूर्य के समान तेजस्वी पुरुष (सत्रा) एक ही साथ सत्य गुणों और ( वस्वः ) ऐश्वर्यो का ( ईशे ) स्वामी हो जाता है । वे दोनों ( मित्रावरुणा ) शरीर में प्राण और अपान के समान राष्ट्र में रहते हुए मित्र, सबका स्नेही, ज्ञानवान् ब्राह्मण और ‘वरुण’ दुष्टों का वारक क्षत्रिय दोनों (राजाना) गुणों से प्रकाशमान् मन्त्री और राजा, ( सुपाणी ) उत्तम बलवान् बाहुओं वाले अथवा श्रेष्ठ व्यवहारों में कुशल, ( गोषु ) गौओं में ( प्रियम् अमृतम् ) तृप्तिकारी दुग्ध रस के समान ( गोषु ) विद्वानों और प्राणों में प्रिय, अमृत, आत्मज्ञान या आत्मतत्व के समान ( गोषु ) भूमियों में और प्रजाओं में (प्रियम्) सबको तृप्त करने वाले ( अमृतम् ) जल और अन्न की ( रक्षमाणा ) रक्षा करते हुए रहें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पराशर ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१, ६, ७ त्रिष्टुप् । २, ५ निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ४, ८, १० विराट् त्रिष्टुप् । भूरिक् पंक्तिः ॥

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    विषय

    विषय (भाषा)- विद्या से क्या प्राप्त होता है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे स्त्रीपुरुषौ ! युवां यथा विद्वान् मनः न सूरः इव विमानादियानैः अध्वनः पारं सद्यः एति यः एकः सत्रा वस्वः ईशे तथा गोषु प्रियम् अमृतं रक्षमाणा सुपाणी मित्रावरुणौ {राजाना} न इव भूत्वा धर्मार्थकाममोक्षान् साध्नुयाताम् ॥९॥

    पदार्थ

    पदार्थः- हे (स्त्रीपुरुषौ)= स्त्री और पुरुषों ! (युवाम्)=तुम दोनों, (यथा)=जैसे, (विद्वान्) = विद्वान्, (मनः) सङ्कल्पविकल्पात्मिकान्तःकरणवृत्तिः = अपने मन में सङ्कल्प और विकल्प करने के व्यवहारवाले के, (न) इव=समान, (सूरः) प्राणिगर्भविमोचिका प्राणस्थविद्युदिव= प्राणियों के गर्भ में आने से छुटकारा दिलानेवाले और प्राण में स्थित विद्युत् के, (इव)=समान, (विमानादियानैः)= विमान आदि यानों से, (अध्वनः) मार्गान्=मार्गों को, (सद्यः) शीघ्रम्=शीघ्र, (पारम्)=पार, (एति) गच्छति=जाता है। (यः) विद्वान्= विद्वान्, (एकः) असहायः=अकेला, (सत्रा) सत्यान् गुणकर्मस्वभावान्=सत्यगुण, कर्म और स्वभाव से, (वस्वः) वसूनि=निवास और, (ईशे) ऐश्वर्ययुक्तो भवति = ऐश्वर्य युक्त होता है, (तथा)=वैसे ही, (गोषु) पृथिवीराज्येषु=पृथिवी के राज्यों में, (प्रियम्) प्रीतिकरम्= मनभावन,(अमृतम्) सर्वसुखप्रापकत्वेन दुःखविनाशकम्=समस्त सुखों को प्राप्त कराने से दुःख का विनाश करनेवाले, (रक्षमाणा) यौ रक्षतस्तौ =रक्षा करनेवाले, (सुपाणी) शोभनाः पाणयो व्यवहारा ययोस्तौ=उत्तम हाथों से व्यवहार करनेवाले, (मित्रावरुणा) यः सर्वमित्रः सर्वेश्वरश्च तौ=सब के मित्र ईश्वर दोनों, (राजाना) प्रकाशमानौ सभाविद्याध्यक्षौ= प्रकाशमान सभा और विद्या के अध्यक्ष के, (न) इव=समान, (भूत्वा)=होकर, (धर्मार्थकाममोक्षान्)= धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, [इन चार पुरुषार्थों को],(साध्नुयाताम्)=सिद्ध कीजिये ॥९॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे मनुष्य विद्या और विद्वानों की संगति के विना विमान आदि यानों को रच करके और उनमें बैठकर विभिन्न देशों में शीघ्रता से आवागमन नहीं कर सकता है। सत्य विशेष ज्ञान, उत्तम द्रव्यों को प्राप्त किया हुआ धार्मिक राजा भी राज्य के राजा के रूप में शासन करने में समर्थ हो सकता है, वैसे ही स्त्री और पुरुषों में विद्या और शरीरबल की उन्नति के विना सुख की वृद्धि नहीं हो सकती है ॥९॥

    विशेष

    अनुवादक की टिप्पणी-पुरुषार्थ- वैदिक शास्त्रों के अनुसार पुरुषार्थ है- एक मानवीय वस्तु: जैसे इच्छा की संतुष्टि, धन की प्राप्ति, कर्तव्य का निर्वहन, और अंतिम मुक्ति।

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (स्त्रीपुरुषौ) स्त्री और पुरुषों ! (युवाम्) तुम दोनों, (यथा) जैसे (विद्वान्) विद्वान् (मनः) अपने मन में सङ्कल्प और विकल्प करने के व्यवहारवाले के (न) समान (सूरः) प्राणियों के गर्भ में आने से छुटकारा दिलानेवाले और प्राण में स्थित विद्युत् के (इव) समान, (विमानादियानैः) विमान आदि यानों द्वारा (अध्वनः) मार्गों को (सद्यः) शीघ्र (पारम्) पार (एति) जाता है। (यः) विद्वान् (एकः) अकेला (सत्रा) सत्य गुण, कर्म और स्वभाव से (वस्वः) निवास और (ईशे) ऐश्वर्य युक्त होता है, (तथा) वैसे ही (गोषु) पृथिवी के राज्यों में (प्रियम्) मनभावन, (अमृतम्) समस्त सुखों को प्राप्त कराने से दुःख का विनाश करनेवाले, (रक्षमाणा) रक्षा करनेवाले, (सुपाणी) उत्तम हाथों से व्यवहार करनेवाले, (मित्रावरुणा) सब के मित्र और ईश्वर दोनों, (राजाना) प्रकाशमान सभा और विद्या के अध्यक्ष के (न) समान (भूत्वा) होकर (धर्मार्थकाममोक्षान्) धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, [इन चार पुरुषार्थों को] (साध्नुयाताम्) सिद्ध कीजिये ॥९॥

    संस्कृत भाग

    मनः॑ । न । यः । अध्व॑नः । स॒द्यः । एति॑ । एकः॑ । स॒त्रा । सूरः॑ । वस्वः॑ । ई॒शे॒ । राजा॑ना । मि॒त्रावरु॑णा । सु॒पा॒णी इति॑ सु॒ऽपा॒णी । गोषु॑ । प्रि॒यम् । अ॒मृत॑म् । रक्ष॑माणा ॥ विषयः- विद्यया किं प्राप्नोतीत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा मनुष्या न विद्याविद्वत्सङ्गाभ्यां विना विमानादीन् रचयित्वा तत्र स्थित्वा देशान्तरेषु सद्यो गमनागमने सत्यविज्ञानमुत्तमद्रव्यप्राप्तिर्धार्मिको राजा च राज्यं भावयितुं शक्नुवन्ति तथा स्त्रीपुरुषेषु विद्या बलोन्नत्या विना सुखवृद्धिर्न भवति ॥९॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जशी माणसे विद्या व विद्वानांच्या संगतीशिवाय विमान इत्यादी याने तयार करून त्यांच्यात स्थित होऊन देशदेशांतरी तात्काळ गमनागमन, सत्य विज्ञान, उत्तम द्रव्यांची प्राप्ती व धार्मिक राजा राज्याचे संपादन करण्यास समर्थ होऊ शकत नाही. तसेच स्त्री-पुरुषात निरंतर विद्या व शरीरबलाची वाढ झाल्याखेरीज सुखाची वृद्धी होऊ शकत नाही. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    The sun that instantly goes on its course in orbit all by itself as at the speed of mind and rules over all the Vasus, and Mitra and Varuna, brilliant powers of universal love and justice of the Divine with hands of generosity, which protect and promote the cherished immortal values of life on earths as milk in the cows: all this is the gift of Agni.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What is attained by knowledge is taught in the ninth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O man and woman, a learned scientist goes across the path leading to distant places quickly like the mind and the electricity with the help of aircrafts etc. Without depending upon others, being self-reliant, he becomes the master of true virtues, actions, good temper and wealth. You should become like the President of the Assembly and educational council on account of good dealings, protecting with the lovely nectar (ambrosia) of knowledge.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (सत्रा) सत्यान् गुणकर्मस्वभावान् = True virtues, actions and good temperament. (राजानौ) प्रकाशमानौ सभाविद्याध्यक्षौ = glorious President of the Assembly and educational council. (सुपाणी) शोभना: पाणय: व्यवहाराः ययोः तौ = Men of good dealings.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As men cannot construct aeroplanes and other vehicles and go to distant places, acquire scientific and other knowledge and wealth and a king can not govern without education and association with noble persons, in the same manner, husbands and wives cannot attain happiness without the development of knowledge and strength.

    Translator's Notes

    सत्रेति सत्यनाम (निघ० ३.१०) राजू-दीप्तौ, पण व्यवहारे स्तुतौ च Hence the meanings of the words as given above by Rishi Dayananda.

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    Subject of the mantra

    What is gained through knowledge has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (strīpuruṣau) =women and men, (yuvām) =both of you, (yathā) =like, (vidvān) =scholar, (manaḥ) =one who has the habit of making resolutions and choices in his mind, (na) =like, (sūraḥ)= the one who frees the living beings from coming into the womb and is the one who protects the electricity present in the soul, (iva) =like, (vimānādiyānaiḥ)=by aircraft etc., (adhvanaḥ) =by roads, (sadyaḥ) =fast, (pāram) =across, (eti) =goes, (yaḥ) =scholar, (ekaḥ) =alone, (satrā)=y true qualities, actions and nature, (vasvaḥ) =abode and, (īśe)= is full of opulence, (tathā) =similarly, (goṣu)= in the kingdoms of the earth, (priyam)=pleasing, (amṛtam) =the one who destroys sorrow by making one attain all happiness, (rakṣamāṇā) =protector, (supāṇī)= those who deal with good hands, (mitrāvaruṇā) =both everyone's friend and God, (rājānā) =the President of the luminous Assembly and knowledge, (na) =like, (bhūtvā) =being, (dharmārthakāmamokṣān) dharma (righteousness), artha (wealth), kāma (action) and mokṣa (salvation), [ina cāra puruṣārthoṃ ko]=to these four efforts, (sādhnuyātām) =accomplish.

    English Translation (K.K.V.)

    O women and men! Both of you, like a scholar who has the practice of making resolutions and choices in his mind, who frees living beings from coming into the womb and like the electricity present in the life, quickly goes across the paths through vehicles like aircraft etc. learned man alone is blessed with abode and opulence by virtue of his qualities, actions and nature, similarly, he is the one who is pleasing in the kingdoms of the earth, who destroys sorrows by providing all the happiness, who protects, who behaves with good hands, who is both the friend of all and God, Accomplish these four efforts of dharma (righteousness), artha (wealth), kāma (action) and mokṣa (salvation), by being like the President of the luminous Assembly and knowledge.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is silent vocal simile as a figurative in this mantra.Like without knowledge and the company of scholars, man cannot travel quickly between different countries by creating vehicles like planes and sitting in them. A righteous king who has acquired special knowledge of truth and good things can also be capable of ruling as the king of the kingdom, similarly happiness cannot increase among men and women without the advancement of knowledge and physical strength.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    Puruṣārtha- According to Vedic scriptures is- A human object: as the gratification of desire, acquirement of wealth, discharge of duty, and final emancipation.

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