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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 15 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 15/ मन्त्र 12
    ऋषिः - शङ्खो यामायनः देवता - पितरः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    त्वम॑ग्न ईळि॒तो जा॑तवे॒दोऽवा॑ड्ढ॒व्यानि॑ सुर॒भीणि॑ कृ॒त्वी । प्रादा॑: पि॒तृभ्य॑: स्व॒धया॒ ते अ॑क्षन्न॒द्धि त्वं दे॑व॒ प्रय॑ता ह॒वींषि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । अ॒ग्ने॒ । ई॒ळि॒तः । जा॒त॒ऽवे॒दः॒ । अवा॑ट् । ह॒व्यानि॑ । सु॒र॒भीणि॑ । कृ॒त्वी । प्र । अ॒दाः॒ । पि॒तृऽभ्यः॑ । स्व॒धया॑ । ते । अ॒क्ष॒न् । अ॒द्धि । त्वम् । दे॒व॒ । प्रऽय॑ता । ह॒वींषि॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वमग्न ईळितो जातवेदोऽवाड्ढव्यानि सुरभीणि कृत्वी । प्रादा: पितृभ्य: स्वधया ते अक्षन्नद्धि त्वं देव प्रयता हवींषि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । अग्ने । ईळितः । जातऽवेदः । अवाट् । हव्यानि । सुरभीणि । कृत्वी । प्र । अदाः । पितृऽभ्यः । स्वधया । ते । अक्षन् । अद्धि । त्वम् । देव । प्रऽयता । हवींषि ॥ १०.१५.१२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 15; मन्त्र » 12
    अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (जातवेदः-अग्ने त्वम्-ईडितः-हव्यानि सुरभीणि कृत्वी-अवाट्) सब उत्पन्न पदार्थों में विद्यमान अग्ने ! तू यज्ञ में प्रेरित प्रज्वलित होकर हव्य वस्तुओं को सुगन्धवाली बना कर वहन करती है (देव प्रयता हवींषि-त्वम्-अधि पितृभ्यः प्रादाः स्वधया ते-अक्षन्) हे अग्निदेव ! दी हुई उन हव्य वस्तुओं को खा, अर्थात् सूक्ष्म बना और पुनः सूर्यरश्मियों के सुपुर्द कर, वे भी अपनी धारणशक्ति से सूक्ष्म करके सर्वत्र फैला दें ॥१२॥

    भावार्थ

    अग्नि में हव्य वस्तु अति सुगन्ध को प्राप्त होती है और पुनः अग्नि में सूक्ष्म होकर किरणों के आधार पर और भी सूक्ष्म बन कर फैल जाती है ॥१२॥

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    विषय

    'अग्नि' की दिनचर्या

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = प्रगतिशील जीव ! (त्वम्) = तू (ईडितः) [ईडा संजाता अस्य इति, ईडा+इतच् ] = उपासना वाला बनता है प्रात:काल उठकर सबसे प्रथम तू प्रभु का उपासन करता है। वस्तुत: हमें जीवन के प्रत्येक दिन को प्रभु के उपासन से ही प्रारम्भ करना चाहिये तथा दिन की समाप्ति व रात्रि का प्रारम्भ भी प्रभु उपासन से ही होना चाहिए। [२] उपासन के बाद तू नैत्यिक स्वाध्याय के द्वारा (जातवेदः) = [जातः वेदो यस्य] विकसित ज्ञानवाला बनता है । उपासना की तरह स्वाध्याय में भी हमें किसी प्रकार से भी प्रमाद नहीं करना चाहिए। [३] स्वाध्याय के बाद तू (सुरभीणिः) = सुगन्धित हव्यानि हव्य पदार्थों को (कृत्वी) = सम्यक् बनाकर के (अवाट्) = अग्नि के लिये प्राप्त कराता है । अर्थात् शुद्ध सुगन्धित गोघृत व उत्तम सामग्री से तू नैत्यिक अग्निहोत्र को करता है । [४] अब अग्निहोत्र कर चुकने पर तू (पितृभ्यः प्रादा:) = अपने वृद्ध माता-पिता के लिये भोजन को देता है । और (ते) = वे पितर (स्वधया) = आत्म-धारण के हेतु से अर्थात् शरीर के धारण के लिये आवश्यक मात्रा में (अक्षन्) = उस भोजन को खाते हैं। [५] इस प्रकार पितृयज्ञ को करके हे (देव) = दिव्य गुणों से सम्पन्न अग्ने ! (त्वम्) = तू भी (प्रयता) = पवित्र हवींषि देवयज्ञ व पितृयज्ञ से अवशिष्ट हव्य पदार्थों को (अद्धि) = सेवन करनेवाला बन। यह यज्ञशेष तेरे लिये अमृत हो, अमृत का सेवन करता हुआ तू सचमुच 'देव' बन ।

    भावार्थ

    भावार्थ - एक आर्यपुरुष की दिनचर्या का क्रम 'उपासना, स्वाध्याय, अग्निहोत्र, पितृयज्ञ व स्वयं भी यज्ञशेष का सेवन' है। इस क्रम का अनुष्ठान करता हुआ वह देव बनता है।

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    विषय

    अग्नि तेजस्वी राजा। उसका पितरों, प्रजा-पालक अध्यक्षों को देह-पोषणार्थ देने योग्य वेतन, स्वधा का देना।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) तेजस्विन् ! हे (जातवेदः) धन, ऐश्वर्य और ज्ञान, विद्या में प्रसिद्ध ! (त्वम् ईडितः) तू स्तुतिपात्र और सर्वप्रिय होकर (हव्यानि) खाने और ग्रहण करने योग्य पदार्थों को (सुरभीणि कृत्वी) उत्तम गन्ध युक्त और उत्तम बलप्रद करके (अवाट्) प्रदान कर। तू (पितृभ्यः प्रादाः) उस प्रकार के ही अन्न अपने पालक गुरुजनों को भी आदरपूर्वक प्रदान कर। (ते) वे उस अन्न का (स्वधया) ‘स्व-धा’ अर्थात् अपने शरीर के पोषण धारण के निमित्त ही (अक्षन्) प्राप्त करें। और (त्वं) तू भी हे (देव) दानशील ! विनीत ! (प्रयता हवींषि) अपने गुरुजनों से प्रदान किये अन्नों को (अद्धि) भोजन किया कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शंखो यामायन ऋषिः। पितरो देवताः॥ छन्द:- १, २, ७, १२–१४ विराट् त्रिष्टुप्। ३,९,१० त्रिष्टुप्। ४, ८ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ६ निचृत् त्रिष्टुप्। ५ आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। ११ निचृज्जगती॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (जातवेदः-अग्ने त्वम्-ईडितः हव्यानि सुरभीणि कृत्वी-अवाट् ) हे जातेषु विद्यमानाग्ने ! यज्ञाग्ने ! त्वं यज्ञे-अध्येषितः प्रेरितः सन् हव्यानि वस्तूनि सुगन्धीनि कृत्वी-कृत्वाऽवाड्-ऊढवान् ( देव प्रयता हवींषि त्वम्-अद्धि पितृभ्यः प्रादाः स्वधया ते अक्षन्) हे अग्निदेव ! दत्तानि हव्यानि वस्तूनि त्वमद्धि-भक्षय सूक्ष्मी-कुरु, सूर्यरश्मिभ्यः प्रादाः-देहि ते च रश्मयः स्वधया स्वधारणशक्त्याऽक्षन् भक्षयन्तु सूक्ष्मीकृत्य प्रसारयन्त्विति यावत् ॥१२॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O divine fire present in everything born, lighted, raised and developed to flaming power, you catalyse refine and energise the holy materials to tremendous power and fragrance. O brilliant divinity, consume the materials offered, feed them to the sun rays, and may they too further refine, energise and spread them all around in space for creative purposes of nature for life on earth.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    अग्नीमध्ये हव्य वस्तू अति सुगंध प्राप्त करतात व पुन्हा अग्नीत सूक्ष्म बनून किरणांच्या आधारे अधिक सूक्ष्म बनून पसरतात. ॥१२॥

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