ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 15/ मन्त्र 4
ऋषिः - शङ्खो यामायनः
देवता - पितरः
छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
बर्हि॑षदः पितर ऊ॒त्य१॒॑र्वागि॒मा वो॑ ह॒व्या च॑कृमा जु॒षध्व॑म् । त आ ग॒ताव॑सा॒ शंत॑मे॒नाथा॑ न॒: शं योर॑र॒पो द॑धात ॥
स्वर सहित पद पाठबर्हि॑ऽसदः । पि॒त॒रः॒ । ऊ॒ती । अ॒र्वाक् । इ॒मा । वः॒ । ह॒व्या । च॒कृ॒म॒ । जु॒षध्व॑म् । ते । आ । ग॒त॒ । अव॑सा । शम्ऽत॑मेन । अथ॑ । नः॒ । शम् । योः । अ॒र॒पः । द॒धा॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
बर्हिषदः पितर ऊत्य१र्वागिमा वो हव्या चकृमा जुषध्वम् । त आ गतावसा शंतमेनाथा न: शं योररपो दधात ॥
स्वर रहित पद पाठबर्हिऽसदः । पितरः । ऊती । अर्वाक् । इमा । वः । हव्या । चकृम । जुषध्वम् । ते । आ । गत । अवसा । शम्ऽतमेन । अथ । नः । शम् । योः । अरपः । दधात ॥ १०.१५.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 15; मन्त्र » 4
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 17; मन्त्र » 4
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अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 17; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(बर्हिषदः पितरः-ऊती-अर्वाक्-वः-इमा हव्या-चकृम जुषध्वम्) यज्ञासन पर बैठे हुए हे विद्वानो ! हम अपनी रक्षा के लिये तुम्हारे वास्ते होम की वस्तुओं को तैयार करते हैं, इनको तुम अग्नि में डालकर काम में लाओ (ते शंतमेन-अवसा-आगत नः-अरपः शंयोः-दधात) वे तुम विद्वानो ! सुखमय रक्षण के कारण सदा प्राप्त हुआ करो और हमारे लिये शुद्धभाव, रोगनिवृत्ति और भय के दूरीकरण का उपाय करते रहो ॥४॥
भावार्थ
यज्ञ में विद्वानों को निमन्त्रित करके उनसे अपनी रोगनिवृत्ति और आपत्तियों से बचने के लिये कुछ न कुछ ज्ञान प्राप्त करना चाहिये ॥४॥
विषय
शान्ति - निर्भयता व निर्दोषता
पदार्थ
[१] (बर्हिषदः) = यज्ञों में आसीन होनेवाले (पिता:) = रक्षक लोगो ! (अती) = हमारे रक्षण के हेतु से (अर्वाक्) = आप हमें समीपता से प्राप्त होइये । (इमा हव्या) = इन हव्य पदार्थों को हम (वः चक्रमा) = आपके लिये संस्कृत करते हैं। (जुषध्वम्) = आप उन वस्तुओं का प्रीतिपूर्वक सेवन करिये । वस्तुतः 'माता-पिता की सेवा करना, उनको खिलाकर ही खाना' यह पितृयज्ञ है और यही एक गृहस्थ का प्रत्यक्ष धर्म है। ये पितर अपने क्रियात्मक उदाहरण से हमारे जीवनों में यज्ञ को प्रेरित करते हैं। स्वयं यज्ञशील होते हुए वे हमें यज्ञशील बनाते हैं । [२] हे पितरो ! (ते) = वे आप लोग (शन्तमेन) = अत्यन्त शान्ति को देनेवाले (अवसा) = रक्षण से (आगत) = हमें प्राप्त होइये । (अथा) = और (नः) = हमारे लिये (शंयोः) = शान्ति को तथा भयों के यावन [पृथक् करण] को, और (अरपः) = निर्दोषता को (दधात) = धारण करिये।
भावार्थ
भावार्थ- हमें पितरों का आदर करना चाहिए। ये यज्ञशील पितर हमारा रक्षण करते हुए हमें 'शान्ति - निर्भयता व निर्दोषता' प्राप्त कराते हैं।
विषय
आदरणीय जनों के उचित आदर का उपदेश। बर्हिषद् पितृगण
भावार्थ
हे (बर्हि-षदः पितरः) यज्ञ में विराजने वाले गुरु जनो ! आप लोगों की (ऊती अर्वाक्) हमारे प्रति सदा रक्षा, प्रीति और प्रसन्नता हो। (इमा हव्या) इन स्वीकारने, खाने और दान देने योग्य अन्न, वस्त्र, धनादि पदार्थों को हम (वः) आप लोगों के निमित्त (चकृम) समर्पण करते हैं। (ते) वे आप लोग (आगत) आइये, (अथ) और (शन्तमेन अवसा) अति शान्तिदायक, रक्षा, प्रीति आदि से (नः शंयोः) हमें शान्ति सुख प्राप्ति और हमारे दुःख का नाश (दधात) करो। और (अरपः दधात) पापों को दूर करो और पुण्यों को शुभ कर्मों को प्राप्त कराओ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शंखो यामायन ऋषिः। पितरो देवताः॥ छन्द:- १, २, ७, १२–१४ विराट् त्रिष्टुप्। ३,९,१० त्रिष्टुप्। ४, ८ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ६ निचृत् त्रिष्टुप्। ५ आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। ११ निचृज्जगती॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(बर्हिषदः पितरः ऊती-अर्वाक्-वः-इमा हव्या-चकृम जुषध्वम्) यज्ञासन उपविष्टा ऊती-ऊत्यै-अस्मद्रक्षायै “सुपां सुपो भवन्ति” [अष्टा०७।१।३९ वार्तिकम्] विभक्तिव्यत्ययः। अत्र यज्ञे युष्मभ्यमिमानि हव्यानि कुर्मः सम्पादयामः सज्जीकुर्मो यूयं जुषध्वमग्नौ प्रक्षेपार्थं प्रयुङ्ध्वम् (ते शंतमेन-अवसा-आगत नः अरपः शंयोः दधात) ते यूयं विद्वांसः सुखमयेन रक्षणेन सदैव प्राप्नुत, अस्मभ्यं पापरहितं भावं रोगाणां शमनं यावनं च भयानां धारयत, तथा च निरुक्तम् [४।११] ॥४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O parental powers of humanity, scholars of the science of atmospheric and environmental management of the globe, for all round peace and protection of life here and hereafter, we have prepared these yajnic materials for you for homage which please accept and use with love and faith. O masters, come always with peaceful modes of universal protection, bear and bring us showers of peace and freedom from sin, violence and fear.
मराठी (1)
भावार्थ
यज्ञात विद्वानांना निमंत्रित करून त्यांच्याकडून आपला रोग दूर करावा व आपत्तीपासून वाचावे यासाठी काही ना काही ज्ञान प्राप्त करावे. ॥४॥
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