ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 15/ मन्त्र 6
आच्या॒ जानु॑ दक्षिण॒तो नि॒षद्ये॒मं य॒ज्ञम॒भि गृ॑णीत॒ विश्वे॑ । मा हिं॑सिष्ट पितर॒: केन॑ चिन्नो॒ यद्व॒ आग॑: पुरु॒षता॒ करा॑म ॥
स्वर सहित पद पाठआ॒ऽअच्य॑ । जानु॑ । द॒क्षि॒ण॒तः । नि॒ऽसद्य॑ । इ॒मम् । य॒ज्ञम् । अ॒भि । गृ॒णी॒त॒ । विश्वे॑ । मा । हिं॒सि॒ष्ट॒ । पि॒त॒रः॒ । केन॑ । चि॒त् । नः॒ । यत् । वः॒ । आगः॑ । पु॒रु॒षता॑ । करा॑म ॥
स्वर रहित मन्त्र
आच्या जानु दक्षिणतो निषद्येमं यज्ञमभि गृणीत विश्वे । मा हिंसिष्ट पितर: केन चिन्नो यद्व आग: पुरुषता कराम ॥
स्वर रहित पद पाठआऽअच्य । जानु । दक्षिणतः । निऽसद्य । इमम् । यज्ञम् । अभि । गृणीत । विश्वे । मा । हिंसिष्ट । पितरः । केन । चित् । नः । यत् । वः । आगः । पुरुषता । कराम ॥ १०.१५.६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 15; मन्त्र » 6
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
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अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(पितरः-जानु-आच्य विश्वे दक्षिणतः-निषद्य ) हे विद्वान् लोगो ! दोनों जानुओं को आसन की विधि से फैलाकर तुम सब दक्षिण दिशा या दक्षिण भाग में बैठकर इस यज्ञ को स्वीकार करो, क्योंकि विद्वानों के वामपार्श्व में बैठने का शिष्टाचार है अथवा यज्ञ में ब्रह्मा का आसन दक्षिण में होता है (यद्-वः-आगः पुरुषता कराम केनचित्-नः-मा हिंसिष्ट) और जो तुम्हारे प्रति हम कोई शिष्टाचार या दक्षिणा आदि में मनुष्य होने से गलती करें, तो उस किसी भी गलती के कारण तुम लोग हिंसा नहीं करते हो, यह हम जानते हैं ॥६॥
भावार्थ
विद्वानों को दक्षिणभाग में आसन पर बिठलाकर यज्ञ का आरम्भ करना चाहिये।अपनी भूल के सम्भव होने से उनसे नम्रतापूर्वक गलती को स्वीकार करना चाहिये ॥६॥
विषय
यज्ञ का उपदेश
पदार्थ
[१] पिछले मन्त्र के अनुसार पितर घरों पर आयें और (जानु आच्य) = घुटनों को संगत रूप में पृथ्वी पर स्थापित करके अर्थात् घुटने मिलाकर भूमि पर स्थित होकर, (दक्षिणतः निषद्य) = दक्षिण की ओर बैठकर अर्थात् हमारे दाहिने बैठकर, (विश्वे) = सब पितर (इमं यज्ञं अभिगृणीत) = इस यज्ञ का हमें उपदेश करें। घुटने मिलाकर भूमि पर बैठने से वात पीड़ायें सामान्यतः नहीं होती। ये होती प्रायः बड़ी ही उमर में हैं । सो पितरों के लिये यह आसन उपयुक्ततम है। आदर देने के लिये हम इन पितरों को दक्षिणपार्श्व में बिठाते हैं। ये पितर हमें यज्ञों का उपदेश करें। [२] घर पर आये हुए पितरों के विषय में कुछ हम गलती भी कर बैठें तो हम चाहते हैं कि वो पितर हमारे से अप्रसन्न न हो जाएँ । हे (पितरः) = मान्य पितरो ! (पुरुषता) = एक अल्पज्ञ पुरुष के नाते (यत्) = जो भी (वः) = आपके विषय में (आग:) = अपराध कराम कर बैठें उस (केनचित्) = किसी भी अपराध से (न:) = हमें (माहिंसिष्ट) = हिंसित मत करिये। आप हमारे से रुष्ट न हों, आप की कृपा हमारे पर बनी ही रहे ।
भावार्थ
भावार्थ - पितर आयें संगतजानुक होकर वे हमारे दाहिने बैठें और हमें कर्तव्य कर्मों का उपदेश दें।
विषय
माता, पिता, गुरुओं का ज्ञानोपदेश का कर्त्तव्य। उनका आदरणीय स्थान।
भावार्थ
हे (पितरः) माता पिता, गुरु जनों के तुल्य प्रजापालक जनो ! (विश्वे) आप सब लोग (दक्षिणतः) दाएं ओर (जानु आच्य) गोड़े सिकोड़ कर (नि-सद्य) विराज कर (इमं यज्ञम् अभि गृणीत) इस यज्ञ वा उपास्य प्रभु को लक्ष्य कर उपदेश कीजिये। (यद् वः) जो आप लोगों के प्रति हम (पुरुषता आगः कराम) मनुष्य होने के कारण अपराध कर दें (केन चित्) किसी भी कारण से (नः मा हिंसिष्ट) आप लोग हमें पीड़ित न करें। गुरुजनों को आदरार्थ दक्षिण अर्थात् दायें हाथ बैठाना चाहिये।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शंखो यामायन ऋषिः। पितरो देवताः॥ छन्द:- १, २, ७, १२–१४ विराट् त्रिष्टुप्। ३,९,१० त्रिष्टुप्। ४, ८ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ६ निचृत् त्रिष्टुप्। ५ आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। ११ निचृज्जगती॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(पितरः-जानु-आच्य विश्वे दक्षिणतः-निषद्य-इमं यज्ञम्-अभिगृणीत) हे पितरो विद्वांस उभे जानुनी प्रसार्यासनं विधायेत्यर्थः। जानु “सुपां सुलुक् पूर्वसवर्ण०” [अष्टा०७।१।६९] अनेन द्विवचनप्रत्ययस्य लुक्। यूयं सर्वे दक्षिणायां दिशि दक्षिणपार्श्वे वा निषद्य स्थित्वेमं यज्ञं स्वीकुरुत ‘विदुषां वामपार्श्वे स्थेयमिति शिष्टाचारः। ब्रह्मासनं च दक्षिणायां कल्प्यते’। (यद् वः आगः पुरुषता कराम केनचित्-नः मा हिंसिष्ट) यद्वो युष्माकमपराधं सत्कारे दक्षिणायां वा पुरुषतया कराम कुर्मः। अत्र सामान्ये काले लोट् शप् च विकरणव्यत्ययेन। केनचिदप्यपराधेनास्मान् मा हिंस्थेति वयं जानीमः ॥६॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O saviour sages of the world, with knees bent in honour of the vedi, please sit on our right, accept and accomplish the yajna with specific words, and if we happen to transgress some manners or ritual, or are impertinent to you because, after all, we are human, pray be kind and do not in any way hurt or punish us.
मराठी (1)
भावार्थ
विद्वानांना दक्षिण भागात आसनावर बसवून यज्ञाचा आरंभ केला पाहिजे. आपली चूक असल्यास त्यांच्यासमोर नम्रतापूर्वक चूक स्वीकारली पाहिजे. ॥६॥
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