ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 15/ मन्त्र 8
ऋषिः - शङ्खो यामायनः
देवता - पितरः
छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ये न॒: पूर्वे॑ पि॒तर॑: सो॒म्यासो॑ऽनूहि॒रे सो॑मपी॒थं वसि॑ष्ठाः । तेभि॑र्य॒मः सं॑ररा॒णो ह॒वींष्यु॒शन्नु॒शद्भि॑: प्रतिका॒मम॑त्तु ॥
स्वर सहित पद पाठये । नः॒ । पूर्वे॑ । पि॒तरः॑ । सो॒म्यासः॑ । अ॒नु॒ऽऊ॒हि॒रे । सो॒म॒ऽपी॒थम् । वसि॑ष्ठाः । तेभिः॑ । य॒मः । स॒म्ऽर॒रा॒णः । ह॒वींषि॑ । उ॒शन् । ए॒शत्ऽभिः॑ । प्र॒ति॒ऽका॒मम् । अ॒त्तु॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ये न: पूर्वे पितर: सोम्यासोऽनूहिरे सोमपीथं वसिष्ठाः । तेभिर्यमः संरराणो हवींष्युशन्नुशद्भि: प्रतिकाममत्तु ॥
स्वर रहित पद पाठये । नः । पूर्वे । पितरः । सोम्यासः । अनुऽऊहिरे । सोमऽपीथम् । वसिष्ठाः । तेभिः । यमः । सम्ऽरराणः । हवींषि । उशन् । एशत्ऽभिः । प्रतिऽकामम् । अत्तु ॥ १०.१५.८
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 15; मन्त्र » 8
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
Acknowledgment
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(ये पूर्वे सोम्यासः पितरः सोमपीथं वसिष्ठाः-नः-अनूहिरे) जो पूर्वकालीन सूर्योदय के साथ ही उदय होनेवाली वसन्त ऋतु के तुल्य रससम्पादन करनेवाली किरणें सूर्य का अत्यन्त आश्रय लेनेवाली हम को कार्यों में प्रेरित करती हैं (तेभिः-उषद्भिः-संरराणः-यमः-उशन् हवींषि प्रतिकामम्-अत्तु) उन देदीप्यमान रश्मियों के साथ सम्यक् रम्यमाण सूर्य तेज से देदीप्यमान होता हुआ अग्नि में डाली हुई हवियों का हमारी इच्छाओं की पूर्ति के लिये ग्रहण करता है ॥८॥
भावार्थ
प्रातःकाल की सूर्यरश्मियाँ यज्ञ में उपयुक्त हुई-हुई हमारे अन्दर कार्य-कुशलता की प्रेरणा करती हैं और उदयकाल का सूर्य भी हमारी मानस प्रसन्नता और शारीरिक सुखजीवनी का हेतु बनता है ॥८॥
विषय
रमण व प्रतिकाम अदन
पदार्थ
[१] (ये) = जो (नः) = हमारे (पूर्वे) = अपना पूरण करनेवाले, गृहस्थ में रागादि के रूप में उत्पन्न हो गई कमियों को दूर करके संन्यास की तैयारी करनेवाले (पितरः) = हमारे पितर (सोम्यासः) = अत्यन्त सोम्य स्वभाव के हैं, (सोमपीथं अनूहिरे) = सोम के पान का धारण करनेवाले हैं । अर्थात् शरीर में सोम का रक्षण करनेवाले हैं। (वसिष्ठाः) = काम-क्रोध को वशीभूत करके अत्यन्त उत्तम निवास वाले बने हैं । [२] (तेभि) = इन पितरों के साथ (यमः) = नियन्त्रण में रहनेवाला विद्यार्थी से (रराण:) = क्रीड़ा करता हुआ, क्रीड़ा-क्रीड़ा में ही सब कुछ सीखता हुआ, (हवींषि उशन्) = हवियों को चाहता हुआ, (उशद्भिः) = हित को चाहनेवाले आचार्यों के साथ (प्रतिकामम्) = जब-जब शरीर को इच्छा से, अर्थात् आवश्यकता का अनुभव हो, तब-तब (अत्तु) = भोजन को खाये । [३] यहाँ दो बातें स्पष्ट है- पहली तो यह कि पढ़ाने का प्रकार इतना रुचिकर हो कि विद्यार्थियों को पढ़ाई खेल-सी प्रतीत हो। दूसरी बात यह कि हम भोजन तभी करें जब कि शरीर को आवश्यकता हो। और वह भी त्यागपूर्वक । यज्ञ करके यज्ञशेष को खाने से ' त्यक्तेन भुञ्जीथा: ' इस शास्त्र का प्रमाण हो जाता है । और साथ ही शरीर नीरोग बना रहता है।
भावार्थ
भावार्थ- हमें पितर रोचकता से ज्ञान के देनेवाले हों। हम हवि की कामना करें। आवश्यकता के अनुसार ही हम खानेवाले बनें।
विषय
ज्ञानी सोम्य पितर, उनके कर्त्तव्य। यम, नव गृहस्थ।
भावार्थ
(नः) हमारे (ये) जो (पूर्वे) पूर्व विद्यमान, वृद्ध, विद्या आदि गुणों में पूर्ण (सोम्यासः पितरः) अन्न, ओषधि, ऐश्वर्य शिष्यपुत्रादि के योग्य हितैषी (वसिष्टाः) उत्तम ‘वसु’ अर्थात् अन्यों को बसाने वाले होकर (सोमपीथं अनु ऊहिरे) सोम अर्थात् शिष्यादि से पालन करने योग्य ज्ञान को प्रतिदिन धारण करते वा तर्क द्वारा विवेचन करते हैं (तेभिः उशद्भिः) उन प्रिय गुरु जनों के साथ जनों के साथ (सं-रराणः यमः) अच्छी प्रकार सुख पूर्वक रहता हुआ यमनियमों का पालक शिष्य वा नवगृहस्थ (प्रतिकामम् उशन्) प्रत्येक उत्तम पदार्थ को चाहता हुआ (हवींषि अत्तु) उत्तम अन्नों का उपभोग करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शंखो यामायन ऋषिः। पितरो देवताः॥ छन्द:- १, २, ७, १२–१४ विराट् त्रिष्टुप्। ३,९,१० त्रिष्टुप्। ४, ८ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ६ निचृत् त्रिष्टुप्। ५ आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। ११ निचृज्जगती॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(ये पूर्वे सोम्यासः पितरः सोमपीथं वसिष्ठाः नः-अनूहिरे) ये पूर्वे प्रातस्तनाः सूर्योदयकालप्रमाणाः सोमसम्पादिनो रससम्पादिनः-वसन्तर्तुवत् सूर्यरश्मयः सोमस्य पीथं रसस्य पातारं सूर्यं वसिष्ठाः-वस्तृतमाः-अस्माननूहन्तेऽनुवितर्कयन्ति कार्येषु प्रेरयन्ति “यद्वै नु श्रेष्ठस्तेन वसिष्ठोऽथो यद्वस्तृतमो वसति ते नो एव वसिष्ठाः” [श०८।१।१६] (तेभिः-उषद्भिः-संरराणः-यमः-उशन् हवींषि प्रतिकामम्-अत्तु) तैर्दीप्यमानै रश्मिभिः संरममाणो यमः-सूर्यः “यमो रश्मिभिरादित्यः” [निरु०१२।२९] दीप्यमानो हवींष्यग्नौ प्रक्षिप्तानि हव्यानि वस्तूनि-अस्मत्कामनानुसारमत्तु गृह्वातु-गृह्वाति ॥८॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Those eastern lights of the dawn which awaken and inspire us bear pranic energies radiant and replete with life energy of the sun, treasure source of living soma. May the sun shining and rejoicing with those very bright rays accept and revitalise our oblations offered into the holy fire at dawn.
मराठी (1)
भावार्थ
प्रात:काळच्या सूर्य रश्मी यज्ञात उपयुक्त असून, आमच्यात कार्यकुशलतेची प्रेरणा निर्माण करतात. व उदयकाळाचा सूर्यही आमच्या मानसिक प्रसन्नता व शारीरिक सुखाचा हेतू बनतो. ॥८॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal