ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 15/ मन्त्र 5
ऋषिः - शङ्खो यामायनः
देवता - पितरः
छन्दः - निचृदार्चीत्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
उप॑हूताः पि॒तर॑: सो॒म्यासो॑ बर्हि॒ष्ये॑षु नि॒धिषु॑ प्रि॒येषु॑ । त आ ग॑मन्तु॒ त इ॒ह श्रु॑व॒न्त्वधि॑ ब्रुवन्तु॒ ते॑ऽवन्त्व॒स्मान् ॥
स्वर सहित पद पाठउप॑ऽहूताः । पि॒तरः॑ । सो॒म्यासः॑ । ब॒र्हि॒ष्ये॑षु । नि॒ऽधिषु॑ । प्रि॒येषु॑ । ते । आ । ग॒म॒न्तु॒ । ते । इ॒ह । श्रि॒व॒न्तु॒ । अधि॑ । ब्रु॒व॒न्तु॒ । ते । अ॒व॒न्तु॒ । अ॒स्मान् ॥
स्वर रहित मन्त्र
उपहूताः पितर: सोम्यासो बर्हिष्येषु निधिषु प्रियेषु । त आ गमन्तु त इह श्रुवन्त्वधि ब्रुवन्तु तेऽवन्त्वस्मान् ॥
स्वर रहित पद पाठउपऽहूताः । पितरः । सोम्यासः । बर्हिष्येषु । निऽधिषु । प्रियेषु । ते । आ । गमन्तु । ते । इह । श्रिवन्तु । अधि । ब्रुवन्तु । ते । अवन्तु । अस्मान् ॥ १०.१५.५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 15; मन्त्र » 5
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 17; मन्त्र » 5
Acknowledgment
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 17; मन्त्र » 5
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(बहिर्ष्येषु प्रियेषु निधिषु-उपहूताः सोम्यासः पितरः) यज्ञसम्बन्धी स्वानुकूल दक्षिणरूप गौ आदि धनों के निमित्त निमन्त्रित जो सोमवान् सोमौषधिरससम्पादन आदि क्रिया में कुशल विद्वान् ज्ञानिजन हैं (ते-आगमन्तु ते-इह श्रुवन्तु ते-अधि ब्रुवन्तु-ते-अस्मान्-भवन्तु) वे विद्वान् यहाँ आवें, हमारे प्रश्नों को सुनें, उपदेश दें या समाधान करें, इस प्रकार श्रवण और उपदेश से हमारी रक्षा करें ॥५॥
भावार्थ
यज्ञ में क्रियाकुशल विद्वानों को निमन्त्रित करना तथा उनसे अपने विविध प्रश्नों का समाधान और उपदेश सुनना चाहिये और सत्कारार्थ इच्छानुकूल गौ आदि पदार्थ दक्षिणा में देने चाहियें ॥५॥
विषय
पितरों का आगमन
पदार्थ
[१] हमारे से (सोम्यासः) = अत्यन्त विनीत स्वभाव वाले निरभिमान (पितरः) = पितर (उपहूताः) = पुकारे गये हैं। हमने प्रभु से प्रार्थना की है कि हमें सोम्य पितर प्राप्त हों । इन्हें हमने (बर्हिषि) = यज्ञ के निमित्त पुकारा है। स्वयं यज्ञशील होते हुए ये हमें भी यज्ञमय जीवनवाला बनाते हैं। हम इन यज्ञों के निमित्त इन्हें पुकारते हैं जो (एषु प्रियेषु निधिषु) = ये हमारे प्रिय निधि हैं । यज्ञ कोई घाटे का सौदा नहीं है, यह तो एक प्रिय धन का विनियोग है। 'देहि मे ददामि ते' हम अग्नि को देते हैं, अग्नि हमें देता है । 'अग्निहोत्रं स्वयं वर्षं' अग्निहोत्र तो स्वतः सिद्ध वर्षा है । अग्निहोत्र से वर्षा होकर खूब अन्न की उत्पत्ति होती है। अग्नि अन्नाद है तो आद्य अन्न को प्राप्त भी कराती है । एवं यज्ञ हमारे प्रिय निधि हैं । इन्हीं यज्ञों की प्रवृत्ति को उत्पन्न करने के लिये हम उन पितरों को चाहते हैं जो कि यज्ञशील होते हुए अत्यन्त सोम्य व विनीत हैं । [२] (ते) = वे पितर (इह) = यहाँ हमारे घरों में (आगमन्तु) = आयें । (ते) = वे (इह) = यहाँ (श्रुवन्तु) = हमारी समस्याओं को सुनें और (ते) = वे (अस्मान्) = हमें (अधिब्रुवन्तु) = आधिक्येन उपदेश दें। इस अर्थ में स्पष्ट है कि पितर घरों में आते हैं और वे हमें उपदेश व परामर्श देकर हमारी समस्याओं को सुलझाने के लिये यत्नशील होते हैं। वैदिक मर्यादा के अनुसार पुत्र के सन्तान को देखकर पिता, जो लगभग ५१ साल के हैं, वानप्रस्थ बन जाते हैं। इनके भी पिता, जो लगभग ७६ वर्ष के हैं, वे भी वन में हैं, और इनके भी पिता, जो लगभग १०० वर्ष के हैं, वे भी सम्भवतः वन में अभी जीवित ही हैं। एवं ये 'पिता, पितामह और प्रपितामह' वनों में रहनेवाले पितर हैं। जब कभी इनके सन्तान किन्हीं घर की समस्याओं को सुलझाने के लिये इन्हें आमन्त्रित करते हैं तो ये आते हैं, सन्तानों की बात को सुनते हैं और उनकी समस्याओं को सुलझाने के लिये उन्हें उचित उपदेश व आदेश देते हैं । यही 'पितरों का आना व सन्तानों द्वारा उनके उचित आदर का होना' वैदिक श्राद्ध है। यह जीवित पितरों के साथ ही सम्बद्ध है । इसीलिये प्रपितामह से ऊपर जो पितर हैं, जो समान्यतः १२६ वर्ष के होने चाहिएँ, उनका वेद में उल्लेख ही नहीं, उनके जीवित होने का सम्भव कम ही है ।
भावार्थ
भावार्थ- हम वनस्थ पिता, पितामह, प्रपितामह आदि को आमन्त्रित करें। वे आकर हमें उपदेश व परामर्श दें ।
विषय
सौम्य पितृगण उनके कर्त्तव्य।
भावार्थ
(सोम्यासः पितरः) सोम, अन्न, जल, ओषधि, ऐश्वर्यादि के योग्य (पितरः) माता पिता, गुरुजन (बर्हिष्येषु) यज्ञोपयोगी (प्रियेषु) तृप्तिदायक, (निधिषु) नियम से धारण करने योग्य पदार्थों के निमित्त (उप-हूताः) आदर पूर्वक बुलाये हों। (ते) वे (इह आगमन्तु) यहां आवें। (ते इह अधि श्रुवन्तु) वे यहां अध्यक्ष होकर हमारे वचन सुनें। और (ते अस्मान् अवन्तु) वे हमारी रक्षा और हम से प्रेम करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शंखो यामायन ऋषिः। पितरो देवताः॥ छन्द:- १, २, ७, १२–१४ विराट् त्रिष्टुप्। ३,९,१० त्रिष्टुप्। ४, ८ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ६ निचृत् त्रिष्टुप्। ५ आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। ११ निचृज्जगती॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(बर्हिष्येषु प्रियेषु निधिषु-उपहूताः सोम्यासः पितरः) यज्ञसम्बन्धिषु स्वानुकूलेषु दक्षिणारूपगवादिधनेषु निमन्त्रिताः सोमसम्पादिनः सोमवन्तः सोमौषधिरससम्पादनादिक्रियाकुशलाः ज्ञानिजनाः सन्ति “तद्ये सोमेनेजानास्ते पितरः सोमवन्तः” [श०२।६।१।७] (ते-आगमन्तु ते इह श्रुवन्तु ते-अधि ब्रुवन्तु ते-अस्मान् अवन्तु) पूर्वोक्तास्ते विद्वांस इहात्रागच्छन्तु श्रुवन्त्वस्मत्प्रश्नान् शृण्वन्त्वधि ब्रुवन्तु पश्चादुपदिशन्त्वित्थं श्रवणोपदेशाभ्यामस्मान् रक्षन्तु ॥५॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Senior venerable sages eminent in the science of soma and yajnic production of the dearest valuable wealth forms for peace and progress, invoked and invited with reverence, pray, come here to the yajna, listen to our ideas and words, speak, consider and discuss, and protect and promote us with knowledge.
मराठी (1)
भावार्थ
यज्ञात क्रियाकुशल विद्वानांना निमंत्रित केले पाहिजे किंवा त्यांच्याकडून आपल्या विविध प्रश्नांचे समाधान व उपदेश ऐकले पाहिजे, तसेच त्यांच्या सत्कारार्थ इच्छानुकूल गायी इत्यादी पदार्थ दक्षिणेच्या रूपाने दिले पाहिजेत. ॥५॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal