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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 15 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 15/ मन्त्र 13
    ऋषिः - शङ्खो यामायनः देवता - पितरः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ये चे॒ह पि॒तरो॒ ये च॒ नेह याँश्च॑ वि॒द्म याँ उ॑ च॒ न प्र॑वि॒द्म । त्वं वे॑त्थ॒ यति॒ ते जा॑तवेदः स्व॒धाभि॑र्य॒ज्ञं सुकृ॑तं जुषस्व ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । च॒ । इ॒ह । पि॒तरः॑ । ये । च॒ । न । इ॒ह । यान् । च॒ । वि॒द्म । यान् । ऊँ॒ इति॑ । च॒ । न । प्र॒ऽवि॒द्म । त्वम् । वे॒त्थ॒ । यति॑ । ते । जा॒त॒ऽवे॒दः॒ । स्व॒धाभिः॑ । य॒ज्ञम् । सुऽकृ॑तम् । जु॒ष॒स्व॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये चेह पितरो ये च नेह याँश्च विद्म याँ उ च न प्रविद्म । त्वं वेत्थ यति ते जातवेदः स्वधाभिर्यज्ञं सुकृतं जुषस्व ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । च । इह । पितरः । ये । च । न । इह । यान् । च । विद्म । यान् । ऊँ इति । च । न । प्रऽविद्म । त्वम् । वेत्थ । यति । ते । जातऽवेदः । स्वधाभिः । यज्ञम् । सुऽकृतम् । जुषस्व ॥ १०.१५.१३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 15; मन्त्र » 13
    अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 19; मन्त्र » 3
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (ये च पितरः-इह ये च न-इह यान् च विद्म यान्-उ च न प्रविद्म) जो सूर्यरश्मियाँ इस यज्ञगृह या यज्ञकाल में हैं या जो यहाँ नहीं हैं तथा जिन किरणों को प्रतिदिन उपयोग द्वारा जानते हैं अथवा जिनको हम नहीं भी जानते हैं, (जातवेदः-यति त्वं वेत्थ स्वधाभिः सुकृतं यज्ञं जुषस्व) उन सभी को हे अग्निदेव ! तू प्राप्त करता है अतएव उन सब में इस सुसम्पादित हमारे यज्ञ को अपनी धारणशक्तियों से पहुँचा दे ॥१३॥

    भावार्थ

    अग्नि में किया हुआ यज्ञ अपने घर, दूसरे के घर तथा वर्तमान समय और दूसरे समय एवं विज्ञात और अविज्ञात सूर्य की किरणों को प्राप्त होता है ॥१३॥

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    विषय

    पितृ-यज्ञ

    पदार्थ

    [१] (ये) = जो (च) = और (पितरः) = पितर (इह) = यहाँ घर पर ही हैं, (ये च) = और जो वनस्थ हो जाने के कारण (इह न) = यहाँ घर पर नहीं हैं। (यान् च) = और जिनको (विद्म) = हम अच्छी प्रकार जानते हैं, क्योंकि उनसे हमने अध्ययन किया है सो वे आचार्य तो हमारे परिचित हैं ही । (यान् उ च) = और जिनको निश्चय से (न प्रविद्म) = हम नहीं जानते, अर्थात् जो 'यत्र सायं गृहमुनि' घूमते-घामते आज हमारे घर पर आ उपस्थित हुए हैं, जिनसे हमारा पूर्व परिचय नहीं है, सब अतिथियों का परिचय सम्भव भी तो नहीं। [२] परन्तु परिचित हों व अपरिचित, इस समय तो, हे (जातवेदः) = नैत्यिक स्वाध्याय के द्वारा विचारशील पुरुष (त्वं वेत्थ) = आप जानते ही हो कि (ते यति) = वे जितने हैं । उनकी संख्या को आप सम्यक् जानते ही हो । आप (स्वधाभिः) = अन्नों के द्वारा (सुकृतम्) = बड़ी सुन्दरता से समादित (यज्ञम्) = पितृयज्ञ का (जुषस्व) = सेवन करें। अर्थात् उन सब पितरों को बड़े आदर से आप भोजन कराएँ। यह पितृयज्ञ भी पंच महायज्ञों में अपना विशिष्ट स्थान रखता है । इसके होने पर घरों में सदाचार की प्रेरणा सदा प्राप्त होती रहती है और किसी प्रकार के पतन की आशंका नहीं रहती। [३] जो पितर वनस्थ भी होते हैं वे समय-समय पर सन्तानों से आमन्त्रित होने पर घरों पर आते हैं, और उन सन्तानों की समस्याओं को सुलझाने का प्रयत्न करते हैं। आचार्यों को भी ये कभी-कभी आमन्त्रित करते ही हैं और संन्यासी तो घूमते-फिरते अतिथिरूपेण आ ही जाते हैं। इन सब पितरों को स्वधा के द्वारा तृप्त करना ही पितृयज्ञ है।

    भावार्थ

    भावार्थ - घर में आये हुए पितरों का अन्न द्वारा सत्कार करना 'पितृयज्ञ' है। प्रत्येक गृहस्थ का यह आवश्यक कर्तव्य है ।

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    विषय

    अग्नि दग्ध, अग्निदग्ध, पितरों का विवेचन।

    भावार्थ

    (ये च इह पितरः) जो यहां पिता, पालक गुरुजन हैं, (ये च न इह) और जो यहां नहीं हैं। (यान् च विद्म) और जिनको हम जानते हैं और (यान् उ च न प्र-विद्म) जिनको हम नहीं जानते हैं, हे (जात-वेदः) विद्यावन् ! ऐश्वर्यवन् ! (यति) यदि (ते) उनको (त्वं वेत्थ) तू जानता है तो (स्वधाभिः) अन्न जलों, वेतनों सहित (सुकृतं) उत्तम रीति से किये (यज्ञं जुषस्व) यज्ञ, दान का सेवन कर, उनको भी आदर पूर्वक अन्नादि प्रदान कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शंखो यामायन ऋषिः। पितरो देवताः॥ छन्द:- १, २, ७, १२–१४ विराट् त्रिष्टुप्। ३,९,१० त्रिष्टुप्। ४, ८ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ६ निचृत् त्रिष्टुप्। ५ आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। ११ निचृज्जगती॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (ये च पितरः इह ये च न-इह यान्-च विद्म यान्-उ च न प्रविद्म) ये च पितरः सूर्यरश्मय इहात्राऽस्मद्गृहे ये च नेह नात्र याँश्च सूर्यरश्मीन् विद्म वयं जानीमो यान् उ-यानपि न प्रविद्म न जानीमः (जातवेदः-यति त्वं वेत्थ स्वधाभिः सुकृतं यज्ञं जुषस्व) हे जातेषु विद्यमानाग्ने ! यति-यावतस्त्वं वेत्थ लब्धवान् तान् सर्वानपि रश्मीन् स्वधाभिः स्वधारणशक्तिभिरिमं सुकृतं सुसम्पादितं यज्ञं प्रापय ॥१३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Jataveda, all pervasive all knowing Agni, those sun rays which are here, those which are not here, those which we know of and those which we do not know of, you know them all and, as far as you pervade and know, pray accept our oblations of yajna with pleasure, make them good, and turn them to universal power and goodness by radiant rays of the sun for the benefit of all humanity and all life on earth.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    यज्ञाग्नी आमच्या घरी, दुसऱ्याच्या घरी, वर्तमानकाळी व इतर वेळी विज्ञात व अविज्ञात सूर्याच्या किरणांना प्राप्त होतो. ॥१३॥

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