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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 15 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 15/ मन्त्र 9
    ऋषिः - शङ्खो यामायनः देवता - पितरः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ये ता॑तृ॒षुर्दे॑व॒त्रा जेह॑माना होत्रा॒विद॒: स्तोम॑तष्टासो अ॒र्कैः । आग्ने॑ याहि सुवि॒दत्रे॑भिर॒र्वाङ्स॒त्यैः क॒व्यैः पि॒तृभि॑र्घर्म॒सद्भि॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । त॒तृ॒षुः । दे॒व॒त्रा । जेह॑मानाः । हो॒त्रा॒ऽविदः॑ । स्तोम॑ऽतष्टासः । अ॒र्कैः । आ । अ॒ग्ने॒ । या॒हि॒ । सु॒ऽवि॒दत्रे॑भिः । अ॒र्वाङ् । स॒त्यैः । क॒व्यैः । पि॒तृऽभिः॑ । घ॒र्म॒सत्ऽभिः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये तातृषुर्देवत्रा जेहमाना होत्राविद: स्तोमतष्टासो अर्कैः । आग्ने याहि सुविदत्रेभिरर्वाङ्सत्यैः कव्यैः पितृभिर्घर्मसद्भि: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । ततृषुः । देवत्रा । जेहमानाः । होत्राऽविदः । स्तोमऽतष्टासः । अर्कैः । आ । अग्ने । याहि । सुऽविदत्रेभिः । अर्वाङ् । सत्यैः । कव्यैः । पितृऽभिः । घर्मसत्ऽभिः ॥ १०.१५.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 15; मन्त्र » 9
    अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (ये देवत्रा जेहमानाः-होत्राविदः-स्तोमतष्टासः-अर्कैः-तातृषुः) जो सूर्य की किरणें देवत्व को प्राप्त होती हुई तीक्ष्णता के कारण प्राण्यङ्गों में घुसती हुई प्राणों को स्वेदन से संशोधित करती हुई जलों के आकर्षण के लिये तृषित हुई भूमि पर गिरती हैं (सुविदत्रेभिः-सत्यैः कव्यैः घर्मसद्भिः-पितृभिः-अग्ने-आयाहि) उचित विज्ञानलाभ जिनसे हो सकता हो, ऐसी उन मध्याह्नगत किरणों के साथ यह अग्नि वृष्टिनिमित्त यज्ञ में प्राप्त होती है ॥९॥

    भावार्थ

    मध्याह्नकाल में सूर्य की किरणें प्राणियों के अङ्ग-अङ्ग में घुस जाती हैं और प्राणों का शोधन करती हैं। इनका विज्ञान के द्वारा उपयोग होना चाहिये ॥९॥

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    विषय

    पितरों के लक्षण

    पदार्थ

    [१] पितर वे हैं (ये) = जो कि (तातृषुः) = भ्रमणमात्र के हित के लिये अत्यन्त पिपासित होते हैं, (देवत्रः जेहमानाः) = देवों में क्रमश: जानेवाले होते हैं, अर्थात् निरन्तर दैवी सम्पत्ति के अर्जन में लगे हैं। (होत्राविदः) = अग्निहोत्र को खूब समझनेवाले हैं। (अर्कैः) = मन्त्रों के द्वारा स्तोमतष्टांसः - प्रभु स्तोत्रों को करनेवाले हैं। [२] प्रभु कहते हैं कि हे अग्ने प्रगतिशील जीव ! तुम इन (सुविदत्रेभिः) = उत्तम ज्ञान के द्वारा त्राण करनेवाले, (सत्यैः) = सदा सत्य को अपनानेवाले, (कव्यैः) = [कवेर्यद स्वार्थे] क्रान्तदर्शी तत्त्वज्ञानी, (घर्मसद्भिः) = यज्ञों में आसीन होनेवाले (पितृभिः) = पितरों के द्वारा (अर्वाड्) = हमारे सम्मुख (आयाहि) = प्राप्त हो । अर्थात् इन पितरों के सम्पर्क में आकर ही आगे और आगे बढ़ता हुआ जीव प्रभु को प्राप्त करनेवाला होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - पितर वे ही हैं जो लोकहित के लिये प्रबल कामना वाले, यज्ञशील, प्रभुस्तवन, परायण, ज्ञानी, सत्यवादी, तत्त्वदर्शी हैं। इनके सम्पर्क में आनेवाला ही, पुरुष ज्ञानी बनकर प्रभु को प्राप्त करता है ।

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    विषय

    वेदज्ञ विद्वान् पितर, उनकी सेवा।

    भावार्थ

    (ये) जो (होत्रा-विदः) अग्निहोत्र, दान और ‘होत्रा’ अर्थात् वेदवाणी को जानने हारे (स्तोम-तष्टासः) वेद के सूक्तों को खोल २ कर बतलाने वाले, विद्वान् पुरुष (देवत्रा) विद्या के इच्छुक शिष्यों को (जेहमानाः) प्राप्त होकर उनके लिये (तातृषुः) धनादि चाहते हैं उन (अर्कैः) अर्चनीय (सुविदत्राभिः) उत्तम ज्ञानवान् (सत्यैः) सत्यभाषी, सज्जन, (कव्यैः) क्रान्तदर्शी, (धर्म-सद्भिः) तेजस्वी, तपस्वी, यज्ञस्थ, (पितृभिः) पितृवत् पूज्य गुरुजनों सहित हे, (अग्ने) तू विनीत शिष्य ! हे उत्तम नायक ! तू सबके (अर्वाङ् आयाहि) समक्ष आ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शंखो यामायन ऋषिः। पितरो देवताः॥ छन्द:- १, २, ७, १२–१४ विराट् त्रिष्टुप्। ३,९,१० त्रिष्टुप्। ४, ८ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ६ निचृत् त्रिष्टुप्। ५ आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। ११ निचृज्जगती॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (ये देवत्रा जेहमानाः होत्राविदः स्तोमतष्टासः-अर्कैः-तातृषुः) ये सूर्यरश्मयो देवान् गच्छन्तो देवत्वं द्युस्थानत्वं प्राप्नुवन्तः, “देवो दानाद्वा दीपनाद्वा द्योतनाद्वा द्युस्थानो भवतीति वा” [निरु०७।१५] होत्राविदः-अङ्गचेतकाः “होत्रा अङ्गानि” [गोपथ ३।६।६] स्तोमतष्टासः स्तोमा प्राणास्तष्टाः शोधिता यैस्ते “प्राणा वै स्तोमाः [श०८।४।१।४] अद्भिस्तृष्यन्ति जलमाकर्षितुं पृथिवीं पतन्ति “आपो वा अर्कः” [श०१०।४।१।२३] हेतौ तृतीया (सुविदत्रेभिः-सत्यैः कव्यैः-घर्मसद्भिः पितृभिः-अग्ने-अर्वाङ्-आयाहि) कल्याणी विद्या येषां तैः सत्यैः सत्सु विद्यमानेषु भवैर्व्याप्तैः कव्यैः-सूर्यान्तभवैः “असौ वा आदित्यः कविः” [श०६।७।२।४] घर्मसद्भिः-अहः सद्भिर्मध्यन्दिनं प्राप्नुवद्भिः “तप्त इव वै घर्मः” [श०१४।३।१।३३] किरणैः सहाग्ने-आयाह्यत्र यज्ञे वृष्टिनिमित्तमायाहि प्राप्नुहि ॥९॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Those bright rays of the dawn, divine, sharp and inspiring, invigorating, which come to earth thirsting for holy food and water, with those very rays, generous, truly divine, poetically sublime and soul satisfying, conveying pranic energies with morning, mid-day and evening warmth and heat of the day, O yajna fire, come and bless our yajna for the gift of rain.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    मध्याह्नकाळी सूर्य किरणे प्राण्यांच्या अंगांगात घुसतात व प्राणांना शुद्ध करतात. त्यांचा विज्ञानाद्वारे उपयोग करून घेतला पाहिजे. ॥९॥

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