ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 15/ मन्त्र 2
इ॒दं पि॒तृभ्यो॒ नमो॑ अस्त्व॒द्य ये पूर्वा॑सो॒ य उप॑रास ई॒युः । ये पार्थि॑वे॒ रज॒स्या निष॑त्ता॒ ये वा॑ नू॒नं सु॑वृ॒जना॑सु वि॒क्षु ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒दम् । पि॒तृऽभ्यः॑ । नमः॑ । अ॒स्तु॒ । अ॒द्य । ये । पूर्वा॑सः । ये । उप॑रासः । ई॒युः । ये । पार्थि॑वे । रज॑सि । आ । निऽस॑त्ताः । ये । वा॒ । नू॒नम् । सु॒ऽवृ॒जना॑सु । वि॒क्षु ॥
स्वर रहित मन्त्र
इदं पितृभ्यो नमो अस्त्वद्य ये पूर्वासो य उपरास ईयुः । ये पार्थिवे रजस्या निषत्ता ये वा नूनं सुवृजनासु विक्षु ॥
स्वर रहित पद पाठइदम् । पितृऽभ्यः । नमः । अस्तु । अद्य । ये । पूर्वासः । ये । उपरासः । ईयुः । ये । पार्थिवे । रजसि । आ । निऽसत्ताः । ये । वा । नूनम् । सुऽवृजनासु । विक्षु ॥ १०.१५.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 15; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
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अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(पितृभ्यः-इदं नमः अस्तु) सूर्यरश्मियों के लिए यज्ञ हो (अद्य ये पूर्वासः-ये उपरासः-ईयुः-ये पार्थिवे रजसि आ निषत्ता ये वा नूनं सुवृजनासु विक्षु) आज जो पूर्वदिशासम्बन्धी सूर्यरश्मियाँ प्राप्त होती हैं तथा जो पश्चिम दिशा में वर्तमान हैं या जो किरणें पृथिवी के अन्दर और जो आकाश में रहनेवाले लोकों या प्राणीवर्ग में वर्तमान हैं, उन सभी किरणों को उपयोगी बनाने के लिये यज्ञ है ॥२॥
भावार्थ
सूर्य के पूर्व पश्चिम रूप उदयास्त मार्ग से प्राप्त किरणों तथा पृथिवी के अन्दर पार्थिव वस्तुओं और आकाशस्थ पदार्थों से प्राप्त रश्मियों को यज्ञक्रिया से उपयोगी बनाना चाहिये ॥२॥
विषय
पितरों के लिये नमस्कार
पदार्थ
[१] (अद्य) = आज (पितृभ्यः इदं नमः अस्तु) = पितरों के लिये यह नमस्कार हो। (ये) = जो पितर (पूर्वासः) = अपना पूरण करनेवाले हैं (ये उ) = और जो (परासः) = उत्कृष्ट जीवन वाले हैं। अथवा जो हमारे जीवनों में (द्यूर्वासः) = पहले (ईयुः) = आते हैं (ये उ परास:) = और जो हमारे जीवनों के पिछले भागों में आते हैं। अर्थात् माता, पिता, आचार्य व अतिथि इन सबके लिये हम नमस्कार करते हैं। [२] उन पितरों के लिये हम नमस्कार करते हैं (ये) = जो कि (पार्थिवे रजसि) = इस पार्थिवलोक में (आनिषता:) = सर्वथा उपविष्ट हैं अर्थात् इस शरीर पर जिनका पूर्ण प्रभुत्व है। [३] (ये वा) = और जो (नूनम्) = निश्चय से (सुवृजनासु) = उत्तमता से, पूर्णरूप से पाप का वर्जन करनेवाली प्रजाओं में हैं, जिनकी गिनती निष्पाप धार्मिक लोगों में होती है।
भावार्थ
भावार्थ - शरीर पर पूर्ण प्रभुत्व वाले निष्पाप पितरों के लिये हमारा नमस्कार हो ।
विषय
प्रजा-पालक जनों के कर्त्तव्य।
भावार्थ
(ये पूर्वासः) जो पूर्व, विद्या आदि शुभ गुणों में पूर्ण, और (ये उपरासः) सर्वोपरि विद्यमान अथवा (ये पूर्वासः, ये उ परासः) जो हमसे पूर्व और जो हमारे उपरान्त या बाद के (अद्य ईयुः) आज, अब हमें प्राप्त हैं (ये पार्थिवे) जो पार्थिव लोक, इस भूलोक पर (आ निषत्ताः) सब ओर उत्तम पदों पर विराजमान हैं और (ये वा) जो निश्चय करके (सु-वृजनासु) शत्रु और प्रजा के दुःखों को दूर करने वाली, उत्तम बलशालिनी सेनाओं में अध्यक्ष होकर विराजते हैं उन (पितृभ्यः इदं नमः अस्तु) प्रजापालक जनों को यह इस प्रकार का अन्न, वेतन, भृति, दण्ड, शासन-अधिकार और आदर-वचन प्राप्त हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शंखो यामायन ऋषिः। पितरो देवताः॥ छन्द:- १, २, ७, १२–१४ विराट् त्रिष्टुप्। ३,९,१० त्रिष्टुप्। ४, ८ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ६ निचृत् त्रिष्टुप्। ५ आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। ११ निचृज्जगती॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(पितृभ्यः-इदं नमः अस्तु) सूर्यरश्मिभ्य इदं नमोऽयं यज्ञोऽस्तु। “यज्ञो वै नमः” [श०२।४।२।२४] कतमेभ्यः ? (अद्य ये पूर्वासः-ये-उपरासः ईयुः-ये-पार्थिवे रजसि-आ निषत्ता ये वा नूनं सुवृजनासु विक्षु) अद्यास्मिन्दिनेऽद्यतने ये पूर्वदिशासम्बन्धिनः सूर्यरश्मय ईयुः प्राप्ताः सन्ति ये-उपरासः-पश्चिमदिशामीयुः प्रतिगताः सूर्यरश्मयो ये पार्थिवे रजसि-पृथिवीलोके पृथिवीतले वा सम्प्रविष्टा रश्मयः। “लोका रजांस्युच्यन्ते” [निरु०४।१९] ये वा सुवृजनासु सुस्पष्टं निर्मलं वृजनमन्तरिक्षमाकाशं यासां तासु-अन्तरिक्षवासिनीषु विक्षु प्रजासु समन्तात्प्रविष्टाः सन्ति तेभ्यः सूर्यरश्मिभ्यः पूर्वोक्तो यज्ञोऽस्तु “वृजनमन्तरिक्षम्” [उणादि० दयानन्दः] ॥२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Let this yajnic homage today be for the sun rays and pranic energies radiating from the east and west, for the energies which abide in the earthly sphere and in space and skies, and for the energy which vibrates in the living forms of nature anywhere and in humanity.
मराठी (1)
भावार्थ
सूर्याच्या पूर्व-पश्चिम उदयास्त मार्गाने प्राप्त किरणांना व पृथ्वीतील पार्थिव वस्तू व आकाशातील पदार्थांपासून प्राप्त रश्मींना यज्ञक्रियेने उपयोगी बनविले पाहिजे. ॥२॥
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