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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 15 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 15/ मन्त्र 7
    ऋषिः - शङ्खो यामायनः देवता - पितरः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आसी॑नासो अरु॒णीना॑मु॒पस्थे॑ र॒यिं ध॑त्त दा॒शुषे॒ मर्त्या॑य । पु॒त्रेभ्य॑: पितर॒स्तस्य॒ वस्व॒: प्र य॑च्छत॒ त इ॒होर्जं॑ दधात ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आसी॑नासः । अ॒रु॒णीना॑म् । उ॒पऽस्थे॑ । र॒यिम् । ध॒त्त॒ । दा॒शुषे॑ । मर्त्या॑य । पु॒त्रेभ्यः॑ । पि॒त॒रः॒ । तस्य॑ । वस्वः॑ । प्र । य॒च्छ॒त॒ । ते । इ॒ह । ऊर्ज॑म् । द॒धा॒त॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आसीनासो अरुणीनामुपस्थे रयिं धत्त दाशुषे मर्त्याय । पुत्रेभ्य: पितरस्तस्य वस्व: प्र यच्छत त इहोर्जं दधात ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आसीनासः । अरुणीनाम् । उपऽस्थे । रयिम् । धत्त । दाशुषे । मर्त्याय । पुत्रेभ्यः । पितरः । तस्य । वस्वः । प्र । यच्छत । ते । इह । ऊर्जम् । दधात ॥ १०.१५.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 15; मन्त्र » 7
    अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अरुणीनाम्-उपस्थे-आसीनासः पितरः-दाशुषे मर्त्याय रयिं धत्त) उषा सम्बन्धी प्रकाशधाराओं के उपरिभाग पर संस्थित सूर्यरश्मियाँ यजमान मनुष्य के लिये बल को धारण कराती हैं (तस्य पुत्रेभ्यः-वस्वः प्रयच्छत) और उसके पुत्रों के लिये भी शुद्ध प्राणों का दान करती हैं (ते-इह-उर्जं दधात) वे सूर्यरश्मियाँ इस प्रकार दोनों यजमान और उसकी सन्तति में जीवनरस को धारण कराती हैं ॥७॥

    भावार्थ

    यज्ञ सेवन करनेवाले मनुष्य तथा उनकी सन्तति में जीवनरस बल और प्राणशक्तियों का सूर्य की रश्मियाँ वास कराती हैं ॥७॥

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    विषय

    पुत्रों को सत्परामर्श

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र में वनस्थ 'पिता, पितामह व प्रपितामह' आदि पितरों के घर पर आने का संकेत था । ये पितर सन्तानों के आमन्त्रण पर उनकी समस्याओं को सुलझाने के उद्देश्य से घरों पर आते हैं। ये पितर (अरुणीनाम्) = [अरुणो गाव उपसाम्] उषाकालों की अरुण किरणों के प्रकाश के होने पर (उपस्थे आसीनासः) = उपासना में आसीन होते हैं । इस प्रकार प्रातः प्रभु उपासन में आसीन होनेवाले पितरो ! (दाशुषे मर्त्याय) = अपना समर्पण करनेवाले मनुष्य के लिये (रयिं धत्त) = ऐश्वर्य को धारण करिये। यदि घर में भाई परस्पर संघर्ष में आ जायें और न्यायालय में एक दूसरे को अभियुक्त करने पर तुल जायें, तो घर की सम्पत्ति की इति श्री ही हो जाए। सन्तानों के पुकारने पर पितर आते हैं । पुत्र उनके प्रति अपना अर्पण कर देते हैं कि 'जो कुछ पिताजी निर्णय करेंगे वह ठीक है'। इस प्रकार प्रतिज्ञा पत्र लिख देनेवाले सन्तान ही 'दाश्वान् मर्त्य' हैं। इन्होंने पिताजी पर सब कुछ छोड़ दिया है। [२] ऐसा होने पर हे (पितरः) = पितरो ! आप (पुत्रेभ्यः) = सन्तानों के लिये (तस्य) = उस (वस्वः) = धन का (प्रयच्छत) = दान करो जो कि न्यायालयों में ही समाप्त हो जाना था । यदि ये पितर निर्णय न कर देते घर का सारा धन अभियोग में ही व्ययित हो जाता। [३] इस प्रकार पितरों के निर्देश से धन का अपव्यय होने से तो बचाव हुआ ही, साथ ही भाइयों के मेल बने रहने से घर की शक्ति भी बढ़ गई । सो कहते हैं कि (ते) = वे आप (इह) = इस घर में (ऊर्जम्) = बल व प्राण शक्ति को (दधात) = धारण करिये। एक और एक मिलकर ये भाई ग्यारह हो गये हैं । एवं पितरों ने घर को श्री व शक्ति सम्पन्न बना दिया है।

    भावार्थ

    भावार्थ - पितर प्रातः ही प्रभु उपासन में बैठते हैं। ये सन्तानों के कलहों को समाप्त करके घर में 'वसु व ऊर्ज' की स्थापना करते हैं।

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    विषय

    प्रजापालक जनों के कर्तव्य।

    भावार्थ

    हे (पितरः) पालक जनो ! (अरुणीनाम् उपस्थे) सब ओर उत्तम रूप, कान्ति आदि से चमकने वाली, भूमियों प्रजाओं और सहचारिणियों के समीप (आसीनासः) विराजते हुए आप लोग (दाशुषे मर्त्याय) दानशील मनुष्य के उपकारार्थ उसके (रयिं धत्त) दातव्य धन को धारण करो और कालान्तर में (तस्य पुत्रेभ्यः) उसके ही पौत्रों के उपकारार्थ (वस्वः प्रयच्छत) उस धन का प्रदान करें। (ते) वे आप लोग (इह ऊर्जं दधात) इस यज्ञ में बल आधान करें, अधिकार धारण करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शंखो यामायन ऋषिः। पितरो देवताः॥ छन्द:- १, २, ७, १२–१४ विराट् त्रिष्टुप्। ३,९,१० त्रिष्टुप्। ४, ८ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ६ निचृत् त्रिष्टुप्। ५ आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। ११ निचृज्जगती॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अरुणीनाम्-उपस्थे-आसीनासः पितरः-दाशुषे मर्त्याय रयिं धत्त तस्य पुत्रेभ्यः-वस्वः प्रयच्छत ते-इह-ऊर्जम् दधात) “अरुण्यो गाव उषसाम्” [निघं०२।२८] इति प्रामाण्यात्। अरुणीनामुषोऽन्तर्गत-प्रकाशधाराणामुपस्थ उपस्थाने-उपरिभागे संलग्नाः संस्थिताः सूर्यरश्मयो यजमानाय मनुष्याय रयिम्-वीर्यं बलमित्यर्थः “वीर्यं वै रयिः” [श०१३।४।२।१३] धत्त धारयन्तु। पुरुषव्यत्ययः। तस्य सन्तानेभ्यः प्राणान् प्रयच्छत-प्रयच्छन्तु ददतु। “प्राणा वाव वसवः” [छान्दो०३।१६।१] पूर्वोक्तास्त उषःकालसम्बद्धाः सूर्यरश्मय इहोभयत्र यजमाने तत्पुत्रेषु चोर्जं रसं दधात धारयन्तु “ऊर्ग्रसः” [निरु०९।४३] “ऊर्ग्वै रसः” [श०५।१।२।८] अन्यत्रापि वेदेऽरुणी-शब्दस्योषःशब्देन सह सम्बन्धस्तथा पितरः सूर्यरश्मय इति विज्ञानं प्रतीयते “आवहन्त्यरुणी ज्योतिषागान्मही चित्रा रश्मिभिश्चेकिताना। प्रबोधयन्ती सुविताय देव्युषा ईयते सुयुजा रथेन” [ऋ०४।१४।३] “अधा यथा नः पितरः परासोऽग्न ऋतमासुषाणाः। शुचीदयन्दीधितिमुक्थशासः क्षामा भिन्दन्तो अरुणीरपव्रन्” [ऋ०४।२।१६] ॥७॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The radiations of sun rays in the lights of the dawn bear wealth and energy for the man of charity, and wealth and comfort for his children too. May the sages seated on the vedi realise and bring that wealth and energy for us and our future generations.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    यज्ञ करणाऱ्या माणसांना व त्याच्या संततीला सूर्याच्या रश्मी जीवन रस, बल व प्राणशक्ती धारण करवितात. ॥७॥

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