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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 101 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 101/ मन्त्र 11
    ऋषिः - मनुः सांवरणः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    सु॒ष्वा॒णासो॒ व्यद्रि॑भि॒श्चिता॑ना॒ गोरधि॑ त्व॒चि । इष॑म॒स्मभ्य॑म॒भित॒: सम॑स्वरन्वसु॒विद॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒स्वा॒णासः॑ । वि । अद्रि॑ऽभिः । चिता॑नाः । गोः । अधि॑ । त्व॒चि । इष॑म् । अ॒स्मभ्य॑म् । अ॒भितः॑ । सम् । अ॒स्व॒र॒न् । व॒सु॒ऽविदः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुष्वाणासो व्यद्रिभिश्चिताना गोरधि त्वचि । इषमस्मभ्यमभित: समस्वरन्वसुविद: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सुस्वाणासः । वि । अद्रिऽभिः । चितानाः । गोः । अधि । त्वचि । इषम् । अस्मभ्यम् । अभितः । सम् । अस्वरन् । वसुऽविदः ॥ ९.१०१.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 101; मन्त्र » 11
    अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (गोः, अधि, त्वचि) अन्तःकरणे (अद्रिभिः) चित्तवृत्तिभिः (चितानाः) ध्यानविषयाः सन्तः (वि) विशेषेण (सुष्वाणासः) आविर्भूताः परमात्मगुणाः (अस्मभ्यं) अस्मदर्थं (अभितः) सर्वतः (इषं) ऐश्वर्यं (सम् अस्वरन्) ददति अथ च ते गुणाः (वसुविदः) सर्वविधज्ञानस्योत्पादकाः ॥११॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (गोरधि त्वचि) अन्तःकरण में (अद्रिभिः) चित्तवृत्तियों द्वारा (चितानाः) ध्यान किये हुए (वि) विशेषरूप से (सुष्वाणासः) आविर्भाव को प्राप्त हुए उस परमात्मा के गुण (अस्मभ्यम्) हमको (अभितः) सर्व प्रकार से (इषम्) ऐश्वर्य्य (समस्वरन्) देते हैं और वे परमात्मा के ज्ञानादि गुण (वसुविदः) सब प्रकार के ज्ञानों के उत्पादक हैं ॥११॥

    भावार्थ

    यहाँ इन्द्रियों का अधिकरण जो मन है, उसका नाम अधित्वक् है, इस अभिप्राय से अधित्वचि के माने अन्तःकरण के हो सकते हैं। कई एक लोग इसके यह अर्थ करते हैं कि सोम कूटनेवाले अनडुह्-चर्म का नाम अधित्वक् है अर्थात् गोचर्म में सोम कूटने का यहाँ वर्णन है, यह अर्थ वेद के आशय से सर्वथा विरुद्ध है, क्योंकि ईश्वर के गुणवर्णन में गोचर्म का क्या काम ॥११॥

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    विषय

    उनके कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    वे (अद्रिभिः) आदर करने योग्य, वा मेघवत् उदार वा पर्वत-शिलावत् दृढ़ पुरुषों द्वारा (सु-स्वानाः) उत्तम रीति से निरन्तर अभिपूजित होते हुए, (गोः त्वचि अधि) भूमि की पीठ पर वेदवाणी का (चितानाः) ज्ञान-सम्पादन करते हुए, (वसुविदः) सर्वत्र बसे प्रभु का और जगत् में बसे प्राणियों वा आत्माओं का तत्व जानते हुए (अस्मभ्यम् अभितः) हमारे सब ओर (इषम् सम् अस्वरन्) उत्तम वाणी का उपदेश करें। सूर्यकिरणों के तुल्य सुखों, अन्नों और उत्तम ज्ञान-धाराओं को प्रकट करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः–१-३ अन्धीगुः श्यावाश्विः। ४—६ ययातिर्नाहुषः। ७-९ नहुषो मानवः। १०-१२ मनुः सांवरणः। १३–१६ प्रजापतिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ६, ७, ९, ११—१४ निचृदनुष्टुप्। ४, ५, ८, १५, १६ अनुष्टुप्। १० पादनिचृदनुष्टुप्। २ निचृद् गायत्री। ३ विराड् गायत्री॥ षोडशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    अभितः वसुविदः

    पदार्थ

    (अद्रिभिः) = उपासकों से [आदृ] (विसुष्वाणासः) = विशेष रूप से शरीर में प्रेरित किये जाते हुए ये सोमकण (गो:) = इस वेदवाणी रूप धेनु के (अधित्वचि) = आधिक्येन सम्पर्क में (चिताना:) = हमें संज्ञान युक्त करते हैं। सोमरक्षण से वेदधेनु का सम्पर्क हमारे साथ बढ़ता है और हमारा ज्ञान वृद्धि को प्राप्त करता है। ये (अभितः) = दोनों ओर ऐहलौकिक व पारलौकिक (वसुविदः) = ऐश्वर्य को प्राप्त करानेवाले सोमकण (अस्मभ्यम्) = हमारे लिये (इषम्) = अन्तः स्थित प्रभु की प्रेरणा को (सम् अश्वरन्) = सम्यक् उच्चारित करते हैं। हमें पवित्र हृदयवाला बनाकर प्रभु प्रेरणा के सुनने के योग्य बनाते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - अन्त: प्रेरित सोमकणों से बुद्धि की सूक्ष्मता होती है और हम अधिकाधिक ज्ञान के प्रकाश को प्राप्त करते हैं। ये हमें उभयलोक के ऐश्वर्यों को प्राप्त कराते हुए प्रभु प्रेरणा को सुनने का पात्र बनाते हैं ।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Reflective, inspiring and generative by controlled operations of higher mind in the purified heart core, let the Soma streams, vibrant and vocal, bring us spiritual energy, intelligential illumination and divine awareness all round in the world.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    येथे इंद्रियांचे अधिकरण जे मन आहे त्याचे नाव अधित्वक् आहे. या अभिप्रायाने अधित्वचिचा अर्थ अंत:करण होऊ शकतो. काही लोक याचा हाही अर्थ करतात की सोम कुटणाऱ्या अनडुह कातड्याचे नाव अधित्वक आहे. अर्थात, गोचर्ममध्ये सोम कुटण्याचे वर्णन येथे आहे. हा अर्थ वेदाच्या आशयाच्या सर्वस्वी विरुद्ध आहेत. कारण ईश्वराच्या गुणकर्म वर्णनात गोचर्माचे काय काम ॥११॥

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