ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 101/ मन्त्र 13
ऋषिः - प्रजापतिः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
प्र सु॑न्वा॒नस्यान्ध॑सो॒ मर्तो॒ न वृ॑त॒ तद्वच॑: । अप॒ श्वान॑मरा॒धसं॑ ह॒ता म॒खं न भृग॑वः ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । सु॒न्वा॒नस्य॑ । अन्ध॑सः । मर्तः॑ । न । वृ॒त॒ । तत् । वचः॑ । अप॑ । श्वान॑म् । अ॒रा॒धस॑म् । ह॒त । म॒खम् । न । भृग॑वः ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र सुन्वानस्यान्धसो मर्तो न वृत तद्वच: । अप श्वानमराधसं हता मखं न भृगवः ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । सुन्वानस्य । अन्धसः । मर्तः । न । वृत । तत् । वचः । अप । श्वानम् । अराधसम् । हत । मखम् । न । भृगवः ॥ ९.१०१.१३
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 101; मन्त्र » 13
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
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अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(प्र सुन्वानस्य) उत्पादयितुः परमात्मनः (अन्धसः) उपासनीयस्य (तत् वचः) तस्य वाचं (मर्तः) सन्मार्गे विघ्नकारिपुरुषः (न वृत) न गृह्णातु (श्वानम्) तं विघ्नकारिणं च (अराधसं) यो हि नास्तिकत्वेन सत्कर्मरहितस्तं (न) यथा (भृगवः) परिपक्वबुद्धयः (मखं) हिंसायज्ञं घ्नन्ति एवं (अपहत) तं विघ्नकारिणमपि नाशयत ॥१३॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(प्रसुन्वानस्य) सर्वोत्पादक परमात्मा (अन्धसः) जो उपासनीय है, (तद्वचः) उसकी वाणी को (मर्तः) सन्मार्ग में विघ्न करनेवाला पुरुष (न वृत) न ग्रहण करे और (श्वानम्) उस विघ्नकारी को (अराधसम्) जो नास्तिकता के भाव से सत्कर्मों से रहित है, उसको (न) जैसे (भृगवः) परिपक्क बुद्धिवाले (मखम्) हिंसारूपी यज्ञ का हनन करते हैं, इस प्रकार (अपहत) आप लोग इन विघ्नकारियों का हनन करें ॥१३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में हिंसा के दृष्टान्त से नास्तिकों की संगति का त्याग वर्णन किया है ॥१३॥
विषय
आत्मा की साधना के पूर्व लोभादि को विजय करने का उपदेश।
भावार्थ
(सुन्वानस्य) उपासना किये जाते हुए, परमैश्वर्य-सम्पन्न (अन्धसः) अन्नवत् सब जीवनतत्व को धारण कराने वाले उस प्रभु वा आत्मा के (तत्) उस (वचः) गूढ़ वचन, गति, चेष्टा, सामर्थ्य को (मर्त्तः) मरणधर्मा, स्थूलदेहवान् (न वृत) सीमित नहीं कर सकता प्राप्त नहीं कर सकता। हे विद्वानो ! आप लोग (भृगवः) तेजस्वी होकर (मखं न) सुख से हीन, दुःखदायी बाधक कारण, क्रोध के तुल्य ही (अराधसम्) अभव्य, काबू न आने वाले, दुःसाध्य दुर्दान्त (श्वानम्) कुत्ते के तुल्य अति लोभ को (अप हत) मार भगाओ। लोभ और क्रोध को दूर करने के बाद ही उस प्रभु की वाणी का सत्य ज्ञान और आत्मा को परम शक्तियों का साक्षात् होता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः–१-३ अन्धीगुः श्यावाश्विः। ४—६ ययातिर्नाहुषः। ७-९ नहुषो मानवः। १०-१२ मनुः सांवरणः। १३–१६ प्रजापतिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ६, ७, ९, ११—१४ निचृदनुष्टुप्। ४, ५, ८, १५, १६ अनुष्टुप्। १० पादनिचृदनुष्टुप्। २ निचृद् गायत्री। ३ विराड् गायत्री॥ षोडशर्चं सूक्तम्॥
विषय
अराधसं श्वानम् अपहत
पदार्थ
(सुन्वानस्य) = उत्पन्न किये जाते हुए (अन्धसः) = इस (अदनीय) = शरीर में ही (धारणीय) = सोम के अर्थात् सोम सम्बन्धी (तद्) = उस (वचः) = वचन को (मर्तः) = मनुष्य (न वृत) = [वृ- Keep away, oppose] अपने से दूर न रखे व इस वचन का विरोध न करे कि हे (भृगवः) = ज्ञान से अपना परिपक्व करनेवाले पुरुषो! (अराधसं) = सिद्धि में विद्याभूत (श्वानम्) = इस लोभरूप कुत्ते को, विशेषतया स्वाद के लोभ को (अपहत) = अपने से सुदूर भगानेवाले होवो, (न मखम्) = यज्ञ को नहीं । लोभ को दूर करके सदा यज्ञशील बने रहो। स्वाद का लोभ सोमरक्षण का प्रबल विरोधी है। स्वाद सोम का विनाशक है। इसके विपरीत सदा यज्ञशेष को खाने की वृत्ति सोमरक्षण की अनुकूलता वाली है।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण के लिये मूलभूत बात यह है कि हम स्वाद को जीतकर सदा यज्ञशील बनें, यज्ञशेष का ही सेवन करनेवाले बनें ।
इंग्लिश (1)
Meaning
That silent voice of the generative illuminative Soma of divine food, energy and enlightenment, the ordinary mortal does not perceive. O yajakas, ward off the clamours and noises which disturb the meditative yajna as men of wisdom ward them off to save their yajna.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात हिंसेच्या दृष्टान्ताने नास्तिकाच्या संगतीचा त्याग करण्याचे वर्णन आहे. ॥१३॥
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