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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 101 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 101/ मन्त्र 14
    ऋषिः - प्रजापतिः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    आ जा॒मिरत्के॑ अव्यत भु॒जे न पु॒त्र ओ॒ण्यो॑: । सर॑ज्जा॒रो न योष॑णां व॒रो न योनि॑मा॒सद॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । जा॒मिः । अत्के॑ । अ॒व्य॒त॒ । भु॒जे । न । पु॒त्रः । ओ॒ण्योः॑ । सर॑त् । जा॒रः । न । योष॑णाम् । व॒रः । न । योनि॑म् । आ॒ऽसद॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ जामिरत्के अव्यत भुजे न पुत्र ओण्यो: । सरज्जारो न योषणां वरो न योनिमासदम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । जामिः । अत्के । अव्यत । भुजे । न । पुत्रः । ओण्योः । सरत् । जारः । न । योषणाम् । वरः । न । योनिम् । आऽसदम् ॥ ९.१०१.१४

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 101; मन्त्र » 14
    अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (न) यथा (पुत्रः) सुतः (ओण्योः) मातापित्रोः (भुजे) बाहू (अव्यत) रक्षति एवं (जामिः, अत्के) स्वोपासकरक्षकस्य परमात्मन आधारे विराजध्वं यूयं (न) यथा च (जारः) कफादिदोषाणां हन्ताग्निः (योषणां) स्त्रियं (सरत्) प्राप्नोति (न) यथा च (वरः) वरः (योनिं) वेदिं लभते एवं हि सर्वगुणाधारं परमात्मानं (आसदं) प्राप्नुवन्तु भवन्तः ॥१४॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (न) जैसे (पुत्रः) पुत्र (ओण्योः) माता-पिता की (भुजे) भुजाओं की (अव्यत) रक्षा करता है, इसी प्रकार (जामिरत्के) अपने उपासकों की रक्षा करनेवाले परमात्मा के आधार पर आप लोग विराजमान हों और (न) जैसे कि (जारः) “जारयतीति जारोऽग्निः” कफादि दोषों का हनन करनेवाला अग्नि (योषणाम्) स्त्रियों को (सरत्) प्राप्त होता है और (न) जैसे कि, (वरः) वर (योनिम्) वेदी को (आसदम्) प्राप्त होता है, इसी प्रकार सर्वगुणाधार परमात्मा को आप लोग प्राप्त हों ॥१४॥

    भावार्थ

    यहाँ कई दृष्टान्तों से परमात्मा की प्राप्ति का वर्णन किया है। कई एक लोग यहाँ “जारो न योषणां” के अर्थ स्त्रैण पुरुष अर्थात् स्त्रीलम्पट पुरुष के करते हैं, यह अर्थ वेद के आशय से सर्वथा विरुद्ध है, क्योंकि वेद सदाचार का रास्ता बतलाता है, दुराचार का नहीं ॥१४॥

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    विषय

    माता पिता वा प्रिय पतिवत् प्रभु।

    भावार्थ

    सोम-प्रभु, सर्वोपादक, सर्वसञ्चालक, जगत् का शासक परमेश्वर (ओण्योः भुजे) माता पिता के भुजा वा रक्षा में (पुत्रः न) पुत्र के तुल्य हमारा (जामिः) बन्धु होकर (भुजे) सबके पालन करने वाले (अत्के) उत्तम रूप में (ओण्योः आ अव्यत) आकाश और भूमि दोनों के (भुजे) पालानार्थ सब ओर से प्राप्त है। (योषणां जारः न) स्त्री को उसके जीवन भर के संगी पति के तुल्य वह (योषणाम्) व्यापक प्रकृति को (सरत्) व्यापता है, और (वरः योनिम् न आसदम्) वरणीय पुरुष जिस प्रकार अपने उचित स्थान पर बैठने के लिये आसन की ओर बढ़ता है उसी प्रकार वह (योनिम्) जगत् उत्पादक प्रकृति को (आसदम्) व्यापने के लिये (आ अव्यत) सर्वत्र विद्यमान है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः–१-३ अन्धीगुः श्यावाश्विः। ४—६ ययातिर्नाहुषः। ७-९ नहुषो मानवः। १०-१२ मनुः सांवरणः। १३–१६ प्रजापतिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ६, ७, ९, ११—१४ निचृदनुष्टुप्। ४, ५, ८, १५, १६ अनुष्टुप्। १० पादनिचृदनुष्टुप्। २ निचृद् गायत्री। ३ विराड् गायत्री॥ षोडशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    क्रियाशीलता द्वारा सोमरक्षण

    पदार्थ

    (जामिः) = सब उत्तम वसुओं को जन्म देनेवाला हमारा यह बन्धुभूत सोम (अत्के) = निरन्तर गतिशील पुरुष में (आ अव्यत) = सर्वरक्षा संवृत होता है, सुरक्षित रहता है। उसी प्रकार सुरक्षित रहता है, (न) = जैसे कि (ओण्योः) = रक्षक माता-पिता की (भुजे) = भुजा में (पुत्रः) = पुत्र । रक्षक माता-पिता की भुजा पुत्र का रक्षण करती है। इसी प्रकार क्रियाशीलता सोम का रक्षण करती है। यह सोम (जारः न) = सब शत्रुओं को जीर्ण करनेवाले के समान होता हुआ (योषणाम्) = इस वेदवाणी रूप पत्नी की ओर (सरत्) = गतिवाला होता है । वेदज्ञान को प्राप्त करता हुआ यह (वरः न) = श्रेष्ठ पुरुष के समान (योनिम्) = मूल उत्पत्ति स्थान प्रभु में (आसदम्) = आसीन होने के लिये होता है । सोमरक्षण के द्वारा ज्ञान वृद्धि होकर (अन्ततः) = प्रभु दर्शन होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - क्रियाशीलता से सोमरक्षण होता है । और सोमरक्षण से ज्ञान वृद्धि होकर प्रभु दर्शन ।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    As a child feels secure with joy in the arms of its parents, as the lover goes to the beloved, as the groom sits on the wedding vedi, so does the Soma spirit pervade in the natural form of its choice love.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    येथे कित्येक दृष्टांतानी परमेश्वर प्राप्तीचे वर्णन केलेले आहे. कित्येक लोक येथे ‘‘जारो न योषणां’’चा अर्थ स्रैण पुरुष अर्थात् स्त्रीलंपट पुरुष असा करतात. हा अर्थ वेदाच्या आशयाच्या सर्वस्वी विरुद्ध आहे. कारण वेद सदाचाराचा मार्ग दाखवितो, दुराचाराचा नाही. ॥१४॥

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