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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 101 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 101/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अन्धीगुः श्यावाश्विः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    यो धार॑या पाव॒कया॑ परिप्र॒स्यन्द॑ते सु॒तः । इन्दु॒रश्वो॒ न कृत्व्य॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । धार॑या । पा॒व॒कया॑ । प॒रि॒ऽप्र॒स्यन्द॑ते । सु॒तः । इन्दुः॑ । अश्वः॑ । न । कृत्व्यः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो धारया पावकया परिप्रस्यन्दते सुतः । इन्दुरश्वो न कृत्व्य: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः । धारया । पावकया । परिऽप्रस्यन्दते । सुतः । इन्दुः । अश्वः । न । कृत्व्यः ॥ ९.१०१.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 101; मन्त्र » 2
    अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (यः) यः परमात्मा (पावकया, धारया) अपवित्रतापसारक- स्वसुधामयवृष्ट्या (परिप्रस्यन्दते) सर्वत्र परिपूर्णः (सुतः) स्वसच्चिदानन्दस्वरूपेण देदीप्यमानश्च। (कृत्व्यः) गतिशीलः सः (इन्दुः) सर्वव्यापकः परमात्मा (अश्वः, न) विद्युदिव सर्वत्र स्वसत्तया परिपूर्णः ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (यः) जो परमात्मा (पावकया, धारया) अपवित्रताओं को दूर करनेवाली अपनी सुधामयी वृष्टि से (परिप्रस्यन्दते) सर्वत्र परिपूर्ण है (सुतः) और सर्वत्र अपने सत्, चित्, आनन्दस्वरूप से देदीप्यमान है और (कृत्व्यः) वह गतिशील (इन्दुः) सर्वव्यापक परमात्मा (अश्वः, न) विद्युत् के समान सर्वत्र अपनी सत्ता से परिपूर्ण है ॥२॥

    भावार्थ

    यहाँ विद्युत् का दृष्टान्त केवल परमात्मा की पूर्णताबोधन करने के लिये आया है ॥२॥

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    विषय

    अभिषिक्त शासक और परिव्राजक का कर्तव्य।

    भावार्थ

    (यः) जो (पावकया) पापों और दुष्टों को शोधने वाली (धारया) वाणी या शासन व्यवस्था से (सुतः) अभिषिक्त होकर (परि प्रस्यन्दते) सर्वत्र वेग से भ्रमण करता है वह शासक वा परिव्राजक विद्वान् (इन्दुः) तेजस्वी, चन्द्रवत् आह्लादक, (अश्वः) विद्या में व्यापक और अश्व के तुल्य अन्यों का नेता और (कृत्व्यः) कर्म कुशल होता है। (२) देह में—अश्व, आत्मा, पावनी देहशोधनी धारा, रस-धारा से सर्वत्र बह।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः–१-३ अन्धीगुः श्यावाश्विः। ४—६ ययातिर्नाहुषः। ७-९ नहुषो मानवः। १०-१२ मनुः सांवरणः। १३–१६ प्रजापतिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ६, ७, ९, ११—१४ निचृदनुष्टुप्। ४, ५, ८, १५, १६ अनुष्टुप्। १० पादनिचृदनुष्टुप्। २ निचृद् गायत्री। ३ विराड् गायत्री॥ षोडशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    अश्वो न कृत्व्यः

    पदार्थ

    (य:) = जो सोम है वह (सुतः) = उत्पन्न हुआ हुआ (पावकया) = पवित्रता को करनेवाली (धारया) = अपनी धारण शक्ति से (परिप्रस्यन्दते) = शरीर में चारों ओर गतिवाला होता है। शरीर में सुरक्षित सोम अंग- प्रत्यंग को पवित्र कर देता है । (इन्दुः) = यह शक्तिशाली सोम (अश्वः न) = युद्ध में घोड़े के समान जीवन संग्राम में (कृत्व्यः) = [कर्मणि साधुः] कर्मों में कुशल है। यह सोम ही हमें जीवन संग्राम में विजयी बनाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- सुरक्षित सोम पवित्रता व संग्राम-विजय को प्राप्त कराता है।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Brilliant and blissful Soma, when, filtered and exhilarated, vibrates and flows in clear purifying streams like waves of energy itself.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    येथे विद्युतचा दृष्टांत केवळ परमात्म्याच्या पूर्णतेचे बोधन करण्यासाठी आलेला आहे.

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