ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 86/ मन्त्र 15
ऋषिः - सिकता निवावारी
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - पादनिचृज्ज्गती
स्वरः - निषादः
सो अ॑स्य वि॒शे महि॒ शर्म॑ यच्छति॒ यो अ॑स्य॒ धाम॑ प्रथ॒मं व्या॑न॒शे । प॒दं यद॑स्य पर॒मे व्यो॑म॒न्यतो॒ विश्वा॑ अ॒भि सं या॑ति सं॒यत॑: ॥
स्वर सहित पद पाठसः । अ॒स्य॒ । वि॒शे । महि॑ । शर्म॑ । य॒च्छ॒ति॒ । यः । अ॒स्य॒ । धाम॑ । प्र॒थ॒मम् । वि॒ऽआ॒न॒शे । प॒दम् । यत् । अ॒स्य॒ । प॒र॒मे । विऽओ॑मनि । अतः॑ । विश्वाः॑ । अ॒भि । सम् । या॒ति॒ । स॒म्ऽयतः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सो अस्य विशे महि शर्म यच्छति यो अस्य धाम प्रथमं व्यानशे । पदं यदस्य परमे व्योमन्यतो विश्वा अभि सं याति संयत: ॥
स्वर रहित पद पाठसः । अस्य । विशे । महि । शर्म । यच्छति । यः । अस्य । धाम । प्रथमम् । विऽआनशे । पदम् । यत् । अस्य । परमे । विऽओमनि । अतः । विश्वाः । अभि । सम् । याति । सम्ऽयतः ॥ ९.८६.१५
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 86; मन्त्र » 15
अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
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अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सः) उक्तपरमात्मा (अस्य) जिज्ञासोः (विशे) शरणागते सति (महि) महत् (शर्म्म) सुखं तस्मै (यच्छति) ददाति। यो जिज्ञासुः (अस्य, धाम) अस्य स्वरूपं (प्रथमं) प्राक् (व्यानशे) प्रविश्य गृह्णाति। अपरञ्च (यत्, अस्य) परमात्मनः (पदं) स्वरूपमस्ति। (परमे, व्योमनि) यः सूक्ष्मादपि सूक्ष्मे महदाकाशे विस्तीर्णस्तं गृह्णाति। (अतः) अस्मात् कारणात् (विश्वाः) सर्वथा (संयतः) संयमी भूत्वा (सत्कर्माण्यभि) सत्कर्म्माणि (सम्, याति) प्राप्नोति ॥१५॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सः) उक्त परमात्मा (अस्य) जिज्ञासु के (विशे) शरणागत होने पर (महि) बड़ा (शर्म्म) सुख (यच्छति) उसको देता है। (यः) जो जिज्ञासु (अस्य, धाम) इसके स्वरूप को (प्रथमं) पहले (व्यानशे) प्रवेश होकर ग्रहण करता है और (यत्) जो (अस्य) इस परमात्मा का (पदं) स्वरूप है। (परमे व्योमनि) जो सूक्ष्म महदाकाश में फैला हुआ है, उसको ग्रहण करता है, (अतः) इसलिये (विश्वाः) सब प्रकार से (संयतः) संयमी जिज्ञासु होकर (सत्कर्म्माण्यभि) सत्कर्मों को (संयाति) प्राप्त होता है ॥१५॥
भावार्थ
“तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः” इत्यादि विष्णु के स्वरूप निरूपण करनेवाले मन्त्रों में जो विष्णु के स्वरूप का वर्णन है, वही वर्णन यहाँ “पद” शब्द से किया है। पद के अर्थ किसी अङ्गविशेष के नहीं, किन्तु स्वरूप के हैं ॥१५॥
विषय
सुखप्रद स्वामी प्रभु।
भावार्थ
(यः) जो मनुष्य या आत्मा (अस्य) इस प्रभु के (प्रथमं) सर्वोत्तम (धाम) तेजः सामर्थ्य को (वि आनशे) विविध प्रकार से या विशेष रूप से प्राप्त करता है (सः) वह प्रभु ही (अस्य) इस आत्मा के (विशे) देह में प्रवेश करने के लिये वा उसकी प्रजा रूप नाना प्राणगण को भी (महि शर्म) बड़ा भारी सुख (यच्छति) प्रदान करता है। (अस्य) इस जीव आत्मा की (यत्) जब (परमे व्योमन् पदम्) परम रक्षास्थान प्रभु में प्राप्ति हो जाती है तभी उसको वह सामर्थ्यं प्राप्त होता है (यतः) जिससे वह (विश्वा संयतः) समस्त संग्रामों का भी (अभि सं याति) मुकाबला करलेता है।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१—१० आकृष्टामाषाः। ११–२० सिकता निवावरी। २१–३० पृश्नयोऽजाः। ३१-४० त्रय ऋषिगणाः। ४१—४५ अत्रिः। ४६–४८ गृत्समदः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, २१, २६, ३३, ४० जगती। २, ७, ८, ११, १२,१७, २०, २३, ३०, ३१, ३४, ३५, ३६, ३८, ३९, ४२, ४४, ४७ विराड् जगती। ३–५, ९, १०, १३, १६, १८, १९, २२, २५, २७, ३२, ३७, ४१, ४६ निचृज्जगती। १४, १५, २८, २९, ४३, ४८ पादनिचृज्जगती। २४ आर्ची जगती। ४५ आर्ची स्वराड् जगती॥
विषय
सोमरक्षण की सर्वप्राथमिकता
पदार्थ
(यः) = जो सोम (अस्य धाम) = इस जीव के निवास स्थान भूत इस शरीर को (प्रथमम्) = सब से प्रथम (व्यानशे) = व्याप्त करता है, (सः) = वह (अस्य) = इस जीव के (विशे) = प्रभु में प्रवेश के लिये महिशर्म = महान् कल्याण को यच्छति देता है। जीव का सर्वप्रथम लक्ष्य यही होना चाहिये कि 'सोम को शरीर में ही सुरक्षित करना है'। अन्य दिव्यगुणों की प्राप्ति सोमरक्षण के बाद ही होती है। क्रम यह है, सोमरक्षण, दिव्यगुणों की प्राप्ति ( देवा गमन) प्रभु प्राप्ति व महान् कल्याण । (यत्) = जब (अस्य) = इस सोम का (पदम्) = स्थान (परमे व्योमन्) = उत्कृष्ट हृदयाकाश में होता है, तो यही वह स्थान है (यतः) = जहाँ से कि (विश्वाः संयतः) = सब संग्रामों की ओर (आ संयाति) = यह सोम जाता है । सोम का हृदय में सुरक्षित होने का भाव यही है कि हृदय के वासनाशून्य होने पर ही सोम शरीर में सुरक्षित हो पाता है। वासनाएँ हृदय को छोड़ जाती हैं और सोम उसे अपना अधिष्ठान बनाता है। यहाँ स्थित हुआ हुआ यह शरीर में सर्वत्र संग्रामों के लिये जाता है । जहाँ भी कहीं किसी रोग के साथ युद्ध के लिये जाना होता है, सोम इसे अपने मूल स्थान से वहीं पहुँचाता है और उन रोगरूप शत्रुओं को विनष्ट करता है ।
भावार्थ
भावार्थ- हमारा मूल लक्ष्य 'सोमरक्षण' ही होना चाहिये। यह सोम ही सब संग्रामों में विजय का साधन बनता है ।
इंग्लिश (1)
Meaning
Whoever the self-controlled and dedicated seeker that surrenders and attains to the original and essential presence and abode of Soma, the abode that is in the highest heavens above the worldly turmoil or in the deepest core of the self, the lord grants him great peace and joy on this attainment, and the celebrant faces all situations of life with equanimity of mind.
मराठी (1)
भावार्थ
‘‘तद्विष्णो: परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरय:’’ इत्यादी विष्णूचे निरुपण करणाऱ्या मंत्रात जे विष्णूच्या स्वरूपाचे वर्णन आहे तेच वर्णन येथे पद शब्दाने व्यक्त केलेले आहे. पदाचा अर्थ कोणता अंक विशेष नाही तर स्वरूपाच्या अर्थाने आहे. ॥१५॥
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