ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 86/ मन्त्र 5
विश्वा॒ धामा॑नि विश्वचक्ष॒ ऋभ्व॑सः प्र॒भोस्ते॑ स॒तः परि॑ यन्ति के॒तव॑: । व्या॒न॒शिः प॑वसे सोम॒ धर्म॑भि॒: पति॒र्विश्व॑स्य॒ भुव॑नस्य राजसि ॥
स्वर सहित पद पाठविश्वा॑ । धामा॑नि । वि॒श्व॒ऽच॒क्षः॒ । ऋभ्व॑सः । प्र॒ऽभोः । ते॒ । स॒तः । परि॑ । य॒न्ति॒ । के॒तवः॑ । वि॒ऽआ॒न॒शिः । प॒व॒से॒ । सो॒म॒ । धर्म॑ऽभिः । पतिः॑ । विश्व॑स्य । भुव॑नस्य । रा॒ज॒सि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
विश्वा धामानि विश्वचक्ष ऋभ्वसः प्रभोस्ते सतः परि यन्ति केतव: । व्यानशिः पवसे सोम धर्मभि: पतिर्विश्वस्य भुवनस्य राजसि ॥
स्वर रहित पद पाठविश्वा । धामानि । विश्वऽचक्षः । ऋभ्वसः । प्रऽभोः । ते । सतः । परि । यन्ति । केतवः । विऽआनशिः । पवसे । सोम । धर्मऽभिः । पतिः । विश्वस्य । भुवनस्य । राजसि ॥ ९.८६.५
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 86; मन्त्र » 5
अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 12; मन्त्र » 5
Acknowledgment
अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 12; मन्त्र » 5
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सोम) हे परमात्मन् ! त्वं (विश्वस्य, भुवनस्य) सर्वभुवनानां (पतिः) स्वामी असि। अपि च (धर्मभिः) नित्यादिधर्म्मैः (राजसि) विराजमानो भवसि (व्यानशिः) अपि च सर्वत्र व्यापको भूत्वा (पवसे) सर्वं पवित्रयसि (विश्वचक्षः, प्रभोः) हे सर्वज्ञ जगत्स्वामिन् ! (ते) तव (ऋभ्वसः) महत्यः (केतवः) शक्तयः (परि, यन्ति) सर्वत्र विद्यन्ते। अपि च (ते, सतः) तव सत्तायाः। (विश्वा, धामानि) अखिललोकलोकान्तराणि उत्पद्यन्ते ॥५॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(सोम) हे परमात्मन् ! आप (विश्वस्य भुवनस्य) सम्पूर्ण भुवनों के (पतिः) स्वामी हैं और (धर्मभिः) अपने नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्त स्वभावादि धर्म्मों के द्वारा (राजसि) विराजमान हैं (व्यानशिः) और सर्वत्र व्यापक होकर (पवसे) सबको पवित्र करते हो। (विश्वचक्षः प्रभोः) हे सर्वज्ञ जगत्स्वामिन् ! (ते) तुम्हारी (ऋभ्वसः) बड़ी (केतवः) शक्तियें (परियन्ति) सर्वत्र विद्यमान हैं और (ते सतः) तुम्हारी सत्ता से (विश्वा धामानि) सम्पूर्ण लोक-लोकान्तर उत्पन्न होते हैं ॥५॥
भावार्थ
जो यह संसार का पति है, वह अपहतपाप्मादि धर्म्मों से सर्वत्र परिपूर्ण हो रहा है। सायणादि भाष्यकार ‘धर्म्मभिः’ के अर्थ भी सोम के वहने के करते हैं। यदि कोई इनसे पूछे कि, अस्तु धर्म्म के अर्थ वहन ही सही, पर “पतिर्विश्वस्य भुवनस्य” इस वाक्य के अर्थ जड़ सोम में कैसे संगत होते हैं। क्योंकि एक लताविशेषवस्तु सम्पूर्ण लोक-लोकान्तरों का पति कैसे हो सकती है। वास्तव में बात यह है कि मन्त्रों के आध्यात्मिक अर्थों को छोड़कर इनको केवल भौतिक अर्थ ही प्रिय लगते हैं ॥५॥ १२ ॥
Bhajan
वैदिक मन्त्र
विश्वा धामानि विश्वचक्ष ऋभ्वस:प्रभोस्ते सत परि यन्ति केतवे:।
व्यानशि: पवसे सोम धर्मभि: पतिविश्वस्य भुवनस्य राजसि।।ऋ•९.८६.५साम॰८८८
वैदिक भजन ११२४ वां
राग खमाज
गायन समय रात्रि का द्वितीय प्रहर
ताल अद्धा
सारे जहां पे तेरा, है निशान
विश्वचक्षा है तू हरसू है महान
सारे जहां......
लोग पूछते हैं प्रभु है कहां?
क्यों ना दीखता है हमको यहां?
नहीं जानते,हैं प्रभु निराकार
सर्वत: विद्यमान है करतार
करो थोड़ा प्रयत्न दीखता सर्वत्र
ध्यान, कलाओं में है भगवान्।।
सारे जहां.......
माया- तृष्णा की दीवार
अतः दीखे नहीं उस पार
अति निकट सुदूर तत्वों में
नैना रहते निराधार
ना यह आंखों का काम
अन्तरात्मा में ध्यान
से मिलता है प्रतिभावान ।।
सारे जहां........
आंखों को दीखे ना काजल
तारों के आगे है विरल
ना दीखता तिलों में तेल
ना जल में दीखे अनल
हृदय-गुहा में ईश होता प्रतीत
रहे आत्मा के संग आत्माराम।।
सारे जहां...........
अज्ञानियों से है दूर
सुधी-जनों में ज्ञान प्रचुर
कारण अज्ञानावरण
विश्वास भी क्षणभंगुर
सब पदार्थों में है प्रभु ओतप्रोत
फिर मांगते क्यों हैं प्रमाण ?
सारे जहां.......
उत्तम रीति से तुम रहते
सर्वव्यापक,सर्वशक्तिमान
तुम प्रकाशों के भी हो प्रकाश
विश्वचक्षा हो तुम निष्काम
जहां चाहो कर लो दर्शन प्रभु का
विश्वास का ना हो अवसान।।
सारे जहां.......
विश्वचक्षा.........
२३.७.२०२४
८.०० रात्रि
शब्दार्थ:-
विश्वचक्षा=सर्वदृष्ट, सर्वत्र देखने वाला
हरसू=हर एक स्थान पर, हर तरफ
सुदूर=अत्यंत दूर
प्रतिभावान=दीप्तिमान,चमकीला
प्रतिभाशाली
विरल=सूक्ष्म, जो घना ना हो
अनल=अग्नि
आत्माराम=आत्मा में रमण करनेवाला (परमात्मा)
सुधी=बुद्धिमान, समझदार
प्रचुर= बहुत अधिक, भरा पूरा
क्षणभंगुर=कुछ ही पलों में नष्ट होने वाला, क्षणिक
ओत-प्रोत=एक दूसरे मेंबहुत मिला हुआ
अवसान=समाप्ति, अन्त
वैदिक मन्त्रों के भजनों की द्वितीय श्रृंखला का ११७ वां वैदिक भजन ।
और प्रारम्भ से क्रमबद्ध अबतक का ११२४ वां वैदिक भजन
वैदिक संगीत प्रेमी श्रोताओं को हार्दिक शुभकामनाएं !
🕉️🙏🌷🌺🥀🌹💐
Vyakhya
सारा जहान तेरा निशान
लोग भगवान का स्थान तथा निशान पूछते हैं, वेद कहता है कि भगवान प्रभु है, सब स्थानों में उत्तम प्रीति से रहते हैं, प्रकाशकों के प्रकाशक हैं, अतएव
विश्वचक्षा: हैं, पता उनका निशान सारा जहान है। जहां कोई रहता है, वही उसका निशान होता है। भगवान सर्वत्र विद्यमान है, अतः उसका सर्वत्र निशान है, अर्थात्
जहां चाहो भगवान के दर्शन कर लो, थोड़ा- सा प्रयत्न करने की आवश्यकता है। सर्वत्र है तो दीखता क्यों नहीं? निस्सन्देह मार्मिक प्रश्न है। किंतु क्या सभी वस्तुएं सदा दिखाई देती हैं? आपकी पीठ पर क्या है? आप लाहौर बैठे हैं, अमृतसर आपको दिखाई नहीं देता, अतः क्या अमृतसर नहीं है? नहीं, ऐसी बात नहीं है। पीठ पर आंख जाती नहीं। अमृतसर दूर है अतः दिखाई नहीं देता।
तो ज्ञात हुआ कि पदार्थ होते हुए भी किसी कारण विशेष से दृष्टिगोचर नहीं होते। दूर होने से, रूकावट होने से, अत्यंत समीप होने से, एक समान पदार्थों में रल- मिल जाने से, अत्यन्त सूक्ष्म होने से, अत्यन्त महान होने से, विद्यमान पदार्थ दिखाई नहीं दिया करते। जैसे आप सबको देखती है, किंतु आंख में पड़े सुर में को नहीं देख पाती, क्योंकि वह अत्यन्त समीप है। परमाणु की सत्ता युक्ति प्रमाण से सिद्ध है किन्तु परमाणु दिखाई नहीं देता, क्योंकि वह अत्यंत सुषमा है। काल से व्यवहार सभी करते हैं, किंतु अति महान होने के कारण वह आज तक किसी को दिखाई नहीं दिया। अमृतसर दूर होने से दिखाई नहीं देता। दीवाल के पीछे पड़ी वस्तु रुकावट के कारण दिखाई नहीं देती। सरसों का एक दाना सरसों के ढेर में मिला दो, फिर वह हाथ नहीं आता, एक जैसों मैं मिलकर दिखाई नहीं देता। सभी जने पदार्थों में अग्नि है किन्तु दिखाई नहीं देती। तिलों में तेल है, दिखाई नहीं देता।
दूध दही में घृत है, दिखाई नहीं देता। इसी भान्ति परमात्मा अति महान है, जैसा कि यजुर्वेद में कहा है--एता- वानस्य महिमा ऽतो ज्यायांश्च पूरुष:-
=यह सारा जहान भगवान की महिमा है, वह व्यापक प्रभु तो इससे बहुत बड़ा है, अतः यह आंखें उसे नहीं देख सकतीं। सब में--सभी सत्पदार्थों में--ओत- प्रोत है, कहां दिखाई नहीं देता। अत्यंत सूक्ष्म है, जैसा कि उपनिषत् ने कहा --आणोरणीयान्=सूक्ष्म से भी इस सूक्ष्म है, अतः आंखों की पहुंच से बाहर है। अति समीप है----'आत्मास्य जन्तोर्निहितो गुहायाम '(कठोपनिषद १/२/२०) इस प्राणी का=जीवात्मा का आत्मा अर्थात् अन्तरात्मा-परमात्मा हृदय गुहा में छिपा है। आत्मा परमात्मा एक स्थान में रहते हैं, अतः अत्यंत समीप होने से इसे दिखाई नहीं दे रहा। आंख में भी व्यापक है, अति समीप होने से आंखें इसे देख नहीं पातीं।
अज्ञानियों से वह दूर है, कठिनता से प्राप्त होता है। वेद कहता है=तद्दूरे तद्वन्तिके (यजुर्वेद ४०/५)। वह दूर है, वह सचमुच समीप है। जैसे अति दूर आदि पदार्थों को देखने के लिए प्रयत्न विशेष करना पड़ता है, ऐसे ही वह अतिसूक्ष्म, अतिमहान, अतिदूर, अतिसमीप, अज्ञानावरण के कारण ना दीखनेवाला, सभी पदार्थों में ओत-प्रोत विभु प्रभु प्रयत्न विशेष से प्रत्यक्ष होता है। यत्न करने की आवश्यकता है।
विषय
सर्वव्यापक प्रभु।
भावार्थ
हे (विश्व-चक्षः) समस्त संसार के द्रष्टा ! हे (सोम) जगत् के उत्पादक सञ्चालक ! (ऋभ्वसः) महान् ! (सतः) सत् स्वरूप (ते प्रभोः) तुझ प्रभु के (केतवः) ज्ञान करानेवाले किरणों के तुल्य प्रकाश (विश्वा धामानि परि यन्ति) सब भुवनों में पहुंच रहे हैं। तू (व्यानशिः) विविध प्रकार से व्यापने वाला होकर (धर्मभिः पवसे) जगत् को धारण करने वाले नाना बलों से व्याप रहा है। तू (भुवनस्य विश्वस्य) समस्त जगत् का (पतिः राजसे) पालक, स्वामी होकर विराजता है, सबको प्रकाशित करता है। इति द्वादशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१—१० आकृष्टामाषाः। ११–२० सिकता निवावरी। २१–३० पृश्नयोऽजाः। ३१-४० त्रय ऋषिगणाः। ४१—४५ अत्रिः। ४६–४८ गृत्समदः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, २१, २६, ३३, ४० जगती। २, ७, ८, ११, १२,१७, २०, २३, ३०, ३१, ३४, ३५, ३६, ३८, ३९, ४२, ४४, ४७ विराड् जगती। ३–५, ९, १०, १३, १६, १८, १९, २२, २५, २७, ३२, ३७, ४१, ४६ निचृज्जगती। १४, १५, २८, २९, ४३, ४८ पादनिचृज्जगती। २४ आर्ची जगती। ४५ आर्ची स्वराड् जगती॥
विषय
विश्वस्व भुवनस्य राजसि
पदार्थ
हे (विश्वचक्षः) = सब के दृष्टा, सब का ध्यान करनेवाले सोम ! (प्रभोः) = शक्तिशाली (सतः) = होते हुए (ते) = तेरे (ऋभ्वसः) = महान् (केतवः) = प्रकाश (विश्वाधामानि) = सब तेजों को (परियन्ति) = प्राप्त होते हैं। सोम हमारे जीवनों को प्रकाशमय व शक्तिसम्पन्न [तेजस्वी] बनाता है। हे सोम वीर्यशक्ते! (व्यानशि:) = शरीर में व्यापनवाला तू (धर्मभिः) = धारण के हेतु से पवसे सब अंगों में प्राप्त होता है । विश्वस्य भुवनस्य शरीरस्थ सब भुवन का, अगं प्रत्यंग का तू राजसि दीपन करनेवाला है, पति और पालन करनेवाला है।
भावार्थ
भावार्थ- सोम प्रकाश व शक्ति को प्राप्त कराता हुआ सब अंग-प्रत्यंगों को दीप्त बनाता है ।
इंग्लिश (1)
Meaning
O Soma, all seeing lord of existence, the mighty radiations of your power reach and prevail over all regions of the world. All pervasive, you flow and vibrate with the virtues of your own nature, power and function and, O sovereign sustainer of the entire universe, you shine and rule supreme.
मराठी (1)
भावार्थ
जो या जगाचा पती आहे तो अपहत पाप्मादि धर्माने सर्वत्र परिपूर्ण होत आहे. सायण इत्यादी भाष्यकार ‘धर्म्मभि:’ चा अर्थ सोम वाहणे असा करतात. जर त्यांना कोणी विचारले की धर्मचा अर्थवहनच असे जर खरे असेल तर ‘पतिविश्वस्य भुवनस्य’ या वाक्याचा अर्थ जड सोम कसा होऊ शकतो? कारण लताविशेष वस्तू संपूर्ण लोकलोकांतराचा पती कशी होऊ शकते. वास्तविक गोष्ट अशी आहे की मंत्राच्या आध्यात्मिक अर्थांना सोडून त्यांना केवळ भौतिक अर्थच प्रिय वाटतात. ॥५॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal