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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 86 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 86/ मन्त्र 43
    ऋषिः - अत्रिः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - पादनिचृज्ज्गती स्वरः - निषादः

    अ॒ञ्जते॒ व्य॑ञ्जते॒ सम॑ञ्जते॒ क्रतुं॑ रिहन्ति॒ मधु॑ना॒भ्य॑ञ्जते । सिन्धो॑रुच्छ्वा॒से प॒तय॑न्तमु॒क्षणं॑ हिरण्यपा॒वाः प॒शुमा॑सु गृभ्णते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ञ्जते॑ । वि । अ॒ञ्ज॒ते॒ । सम् । अ॒ञ्ज॒ते॒ । क्रतु॑म् । रि॒ह॒न्ति॒ । मधु॑ना । अ॒भि । अ॒ञ्ज॒ते॒ । सिन्धोः॑ । उत्ऽश्वा॒से । प॒तय॑न्तम् । उ॒क्षण॑म् । हि॒र॒ण्य॒ऽपा॒वाः । प॒शुम् । आ॒सु॒ । गृ॒भ्ण॒ते॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अञ्जते व्यञ्जते समञ्जते क्रतुं रिहन्ति मधुनाभ्यञ्जते । सिन्धोरुच्छ्वासे पतयन्तमुक्षणं हिरण्यपावाः पशुमासु गृभ्णते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अञ्जते । वि । अञ्जते । सम् । अञ्जते । क्रतुम् । रिहन्ति । मधुना । अभि । अञ्जते । सिन्धोः । उत्ऽश्वासे । पतयन्तम् । उक्षणम् । हिरण्यऽपावाः । पशुम् । आसु । गृभ्णते ॥ ९.८६.४३

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 86; मन्त्र » 43
    अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 20; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अञ्जते) उक्तपरमात्मा निजज्ञानेन गतिहेतुरपि च (व्यञ्जते) पूर्वकृतकर्म्मभिः जीवानां विविधजन्मनां कारणं तथा (सं, अञ्जते) स्वयं न्यायशीलो भूत्वा गमनहेतुश्चास्ति। अतः सम्यग्गतिकारकः (क्रतुं) यज्ञरूपञ्च परमात्मानं (रिहन्ति) उपासका गृह्णन्ति। यः परमात्मा (मधुना) निजानन्देन (अभि, अञ्जते) सर्वत्र प्रकटोऽस्ति। अन्यच्च (सिन्धोः, उच्छ्वासे) यः सिन्धोरुच्चतरङ्गेषु (पतयन्तं) पतितः (उक्षणं) अपि च बलस्वरूपः (हिरण्यपावाः) सदसद्विवेकी (पशुं) अन्यच्च यो ज्ञानदृष्ट्या पश्यति, तमुक्तपुरुषं परमात्मा (आसु) निजार्द्रभावेन अर्थात् कृपादृष्ट्या (गृभ्णते) गृह्णाति ॥४३॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अञ्जते) उक्त परमात्मा अपने ज्ञान द्वारा गति का हेतु है और (व्यञ्जते) पूर्वकृत कर्मों के द्वारा जीवों के विविध प्रकार के जन्मों का हेतु है तथा (समञ्जते) स्वयं न्यायशील होकर गति का हेतु है, इसलिये सम्यग्गति करानेवाला कथन किया गया और (क्रतुं) यज्ञरूप परमात्मा को (रिहन्ति) उपासक लोग ग्रहण करते हैं। जो परमात्मा (मधुना) अपने आनन्द से (अभ्यञ्जते) सर्वत्र प्रगट है और (सिन्धोरुच्छ्वासे) जो सिन्धु की उच्च लहरों में (पतयन्तं) गिरा हुआ मनुष्य है (उक्षणं) और बलस्वरूप है (हिरण्यपावाः) और सदसद्विवेकी है और (पशुं) जो ज्ञानदृष्टि से देखता है “पशुः पश्यतेः” इति निरुक्तम् ३।१६  उक्त पुरुष को परमात्मा (आसु) अपने आर्द्रभाव से अर्थात् कृपादृष्टि से (गृभ्णते) ग्रहण करता है ॥४३॥

    भावार्थ

    परमात्मा पतितोद्धारक है। जो पुरुष अपने मन्द कर्मों से गिरकर भी उद्योगी बना रहता है, परमात्मा उसका अवश्यमेव उद्धार करता है ॥४३॥

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    विषय

    उपासकों का योग-साधना द्वारा प्रभु का साक्षात्।

    भावार्थ

    (हिरण्य-पावाः) हित, और अतिप्रिय आत्मा को शोधने हारे विद्वान् लोग (सिन्धोः उत्-वासे) नित्य गति वाले प्राण के ऊर्ध्व या उत्तम श्वास-प्रश्वास के आधार पर या ब्रह्माण्ड [ मस्तक ] की ओर ऊपर को जाने वाले प्राण के बल पर (पतयन्तम्) गति करने वाले और देहमात्र को चलाने वाले, (उक्षणम्) सुखों की मेघवत् वर्षा करने वाले (पशुम्) ज्ञानद्रष्टा उस आत्मा को (आसु) इन नाना नाड़ियों में ही (गृभ्णते) ग्रहण करते हैं। वे उस (क्रतुम्) ज्ञानमय कर्मकर्त्ता आत्मा को (अंजते) स्वयं साक्षात् करते हैं। (वि अंजते) विविध प्रकार की वाणियों से उसे प्रकट करते हैं, (मधुना) ज्ञान रूप मधु से उसका आस्वाद लेते हैं और उसी से (अभि-अञ्जते) उसका साक्षात् करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१—१० आकृष्टामाषाः। ११–२० सिकता निवावरी। २१–३० पृश्नयोऽजाः। ३१-४० त्रय ऋषिगणाः। ४१—४५ अत्रिः। ४६–४८ गृत्समदः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, २१, २६, ३३, ४० जगती। २, ७, ८, ११, १२,१७, २०, २३, ३०, ३१, ३४, ३५, ३६, ३८, ३९, ४२, ४४, ४७ विराड् जगती। ३–५, ९, १०, १३, १६, १८, १९, २२, २५, २७, ३२, ३७, ४१, ४६ निचृज्जगती। १४, १५, २८, २९, ४३, ४८ पादनिचृज्जगती। २४ आर्ची जगती। ४५ आर्ची स्वराड् जगती॥

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    विषय

    अञ्जन+व्यञ्जन+समञ्जन

    पदार्थ

    (हिरण्यपावाः) = [हिरण्यं वीर्यम्] सोमशक्ति का, वीर्य का अपने अन्दर पान करनेवाले लोग (अञ्जते) = इस शरीर के अंग-प्रत्यंग को शक्ति से अलंकृत करते हैं, (व्यञ्जते) = अपने हृदय को यज्ञिय भावनाओं से शुद्ध करते हैं । (समञ्जते) = ये अपने मस्तिष्क को ज्ञान से सजानेवाले होते हैं। (क्रतुं रिहन्ति) = ये हिरण्यपावा लोग 'शक्ति [kratas, power] यज्ञ व प्रज्ञान' का आस्वादन करते हैं । शरीर को शक्ति से, हृदय को यज्ञ से तथा मस्तिष्क को ज्ञान से अलंकृत करके ये लोग (मधुना अभ्यञ्जते) = माधुर्य से अपने सारे व्यवहार को अलंकृत करते हैं। सबके साथ अत्यन्त मधुरता से वरतते हैं। (आसु) = इन रेतकणों में, अर्थात् इन रेतकणों के सुरक्षित होने पर ये हिरण्यपावा लोग (पशुं गृभ्णते) = उस सर्वद्रष्टा प्रभु का ग्रहण करते हैं, जो प्रभु (उक्षणम्) = हमें शक्ति से सिक्त करते हैं तथा (सिन्धो:) = ज्ञाननदी के (उच्छ्वासे) = उच्छासित होने पर (पतयन्तम्) = हमें प्राप्त होते हैं। जितना- जितना ज्ञान बढ़ता है, उतना उतना प्रभु के हम समीप होते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमरक्षण के द्वारा हमारा शरीर शक्ति से, हमारा मन यज्ञियभावना से तथा मस्तिष्क प्रज्ञान से सुभूषित होता है। इस सोमरक्षक पुरुष का व्यवहार माधुर्यपूर्ण होता है, और अन्ततः यह प्रभु को पाने का अधिकारी बनता है ।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    They realise it in the vibrant soul, diversify the presence in various statements of definition and communication, and integrate the experience and the statements in the awareness of its absolute glory. They love and adore the soul of cosmic yajna and worship it with honey sweets of homage in acts of soma yajna. In these ways of awareness, thoughts, words and deeds, do lovers of the golden glory of soma realise and integrate with the all watching universal power and presence vaulting on top of their waves of consciousness with incessant showers of bliss divine.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा पतितोद्धारक आहे. जो पुरुष आपल्या मन्द (विलंबकरणाऱ्या) कर्मात पडून ही उद्योगी असतो. परमात्मा त्याचा अवश्य उद्धार करतो. ॥४३॥

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