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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 86 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 86/ मन्त्र 4
    ऋषिः - अकृष्टा माषाः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    प्र त॒ आश्वि॑नीः पवमान धी॒जुवो॑ दि॒व्या अ॑सृग्र॒न्पय॑सा॒ धरी॑मणि । प्रान्तॠष॑य॒: स्थावि॑रीरसृक्षत॒ ये त्वा॑ मृ॒जन्त्यृ॑षिषाण वे॒धस॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । ते॒ । आश्वि॑नीः । प॒व॒मा॒न॒ । धी॒ऽजुवः॑ । दि॒व्याः । अ॒सृ॒ग्र॒न् । पय॑सा । धरी॑मणि । प्र । अ॒न्तः । ऋष॑यः । स्थावि॑रीः । अ॒सृ॒क्ष॒त॒ । ये । त्वा॒ । मृ॒जन्ति॑ । ऋ॒षि॒ऽसा॒ण॒ । वे॒धसः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र त आश्विनीः पवमान धीजुवो दिव्या असृग्रन्पयसा धरीमणि । प्रान्तॠषय: स्थाविरीरसृक्षत ये त्वा मृजन्त्यृषिषाण वेधस: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । ते । आश्विनीः । पवमान । धीऽजुवः । दिव्याः । असृग्रन् । पयसा । धरीमणि । प्र । अन्तः । ऋषयः । स्थाविरीः । असृक्षत । ये । त्वा । मृजन्ति । ऋषिऽसाण । वेधसः ॥ ९.८६.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 86; मन्त्र » 4
    अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (पवमानः) हे परमात्मन् ! (ते) तव (आश्विनीः) व्याप्तयः (धीजुवः) या मनोवेगसमानगतिशीलाः (दिव्याः) अपि च दिव्यरूपाः सन्ति (धरीमणि) भवद्धारके अन्तःकरणे (पयसा, प्र, असृग्रन्) अमृतं वाहयन्त्यो गच्छन्ति। (वेधसः) कर्म्मविधातारः (ऋषिषाणः) ज्ञानिनः (ये) ये (त्वा) त्वां (मृजन्ति) तत्त्वमिथ्यात्वे विविच्य जानन्ति। ते ऋषयः (स्थाविरीः) सर्वकामान् वर्षकं भवन्तं (अन्तेः) अन्तःकरणे (प्र, असृक्षत) ध्यानविषयं विदधति ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (पवमान) हे परमात्मन् ! (ते) तुम्हारी (आश्विनीः) व्याप्तियें (धीजुवः) जो मन के वेग के समान गतिशील और (दिव्याः) दिव्यरूप हैं, (धरीमणि) आपको धारण करनेवाले अन्तःकरण में (पयसा प्रासृग्रन्) अमृत को बहाती हुई गमन करती हैं। (वेधसः) कर्म्मों का विधान करनेवाले (ऋषिषाणः) ज्ञानी (ये) जो (त्वा) तुमको (मृजन्ति) विवेक करके जानते हैं, वे ऋषि (स्थाविरीः) सब कामनाओं की वृष्टि करनेवाले आपको (अन्तः) अन्तःकरण में (प्रासृक्षत) ध्यान का विषय बनाते हैं ॥४॥

    भावार्थ

    जो लोग दृढ़ता से ईश्वर की उपासना करते हैं, परमात्मा उनके ध्यान का विषय अवश्यमेव होता है। अर्थात् जब तक पुरुष सब ओर से अपनी चित्तवृत्तियों को हटाकर एकमात्र ईश्वरपरायण नहीं होता, तब तक वह सूक्ष्म से सूक्ष्म परमात्मा उसकी बुद्धि का विषय कदापि नहीं होता। इसी अभिप्राय से कहा है कि ‘दृश्यते त्वग्र्या बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः’ वह सूक्ष्मदर्शियों की सूक्ष्म बुद्धि द्वारा ही देखा जाता है, अन्यथा नहीं ॥४॥

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    विषय

    आत्मोपसना आत्म-साधना।

    भावार्थ

    हे (पवमान) आत्मन् ! विद्वन् ! (ते) तेरी (धीजुवः) उत्तम ज्ञान और कर्म द्वारा वेग वाली, (दिव्याः) ज्ञान प्रकाश से युक्त, (अश्विनीः) व्यापक धाराएं, वाणियें, शक्तियें, (धरीमणि) उस सर्व-धारक प्रभु के निमित्त (प्र असृग्रन्) बड़े वेग से उत्पन्न होती हैं। हे (ऋषिषाण) तत्वद्रष्टा ऋषि जनों से सेवित उपासित आत्मन् ! (ये) जो (वेधसः) बुद्धिमान् विद्वान् जन (त्वा मृजन्ति) तुझे परिशोधन करते हैं वे (ऋषयः) तत्वदर्शी ऋषि जन तेरी उन बुद्धियों, ज्ञानधाराओं को (अन्तः स्थाविरीः प्र असृक्षत) अपने भीतर स्थिर कर लेते हैं। अपने भीतरी अन्तःकरण रूप क्षेत्र में लताओं के समान अंकुरित कर उनको बढ़ाते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१—१० आकृष्टामाषाः। ११–२० सिकता निवावरी। २१–३० पृश्नयोऽजाः। ३१-४० त्रय ऋषिगणाः। ४१—४५ अत्रिः। ४६–४८ गृत्समदः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, २१, २६, ३३, ४० जगती। २, ७, ८, ११, १२,१७, २०, २३, ३०, ३१, ३४, ३५, ३६, ३८, ३९, ४२, ४४, ४७ विराड् जगती। ३–५, ९, १०, १३, १६, १८, १९, २२, २५, २७, ३२, ३७, ४१, ४६ निचृज्जगती। १४, १५, २८, २९, ४३, ४८ पादनिचृज्जगती। २४ आर्ची जगती। ४५ आर्ची स्वराड् जगती॥

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    विषय

    धीजुवः - दिव्याः

    पदार्थ

    (पवमानः) = हे पवित्र करनेवाले सोम ! (ते) = तेरी (आश्विनी:) = शरीर में व्याप्त होनेवाली, शरीर को स्फूर्तियुक्त करनेवाली (धीजुवः) = बुद्धियों को वेगयुक्त करनेवाली, बुद्धियों को बढ़ानेवाली, (दिव्याः) = दिव्य भावनाओं को उत्पन्न करनेवाली धारायें (पयसा) = आप्यायन (वर्धन) के हेतु से (धरीमणि:) = इस धारक शरीर में (असृग्रन्) = उत्पन्न की जाती हैं। सोम [वीर्य] शरीर में स्फूर्ति को, बुद्धि में वेग को तथा हृदय में दिव्यता को जन्म देता हुआ हमारा वर्धन करता है। (ऋषयः) = तत्त्वद्रष्टा लोग (स्थाविरी:) = शरीर को स्थिर बनानेवाली सोमधाराओं को (अन्तः) = शरीर के अन्दर (प्र असृक्षत) = प्रकर्षेण उत्पन्न करते हैं । हे (ऋषिषाण) = ऋषियों से सम्भजनीय - शरीर में संरक्षणीय- सोम ये जो (वेधसः) = ज्ञानी पुरुष हैं वे (त्वा) = तुझे (मृजन्ति) = शुद्ध करते हैं। हृदय में वासनाओं को न उत्पन्न होने देते हुए वे ज्ञानी पुरुष सोम को शुद्ध बनाये रखते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- समझदार लोग वासनाओं से अपना संरक्षण करते हुए सोम को पवित्र बनाये रखते हैं। यह पवित्र सोम शरीर में सुरक्षित हुआ हुआ शरीर को स्वस्थ-बुद्धि को वेगयुक्त व हृदय को पवित्र भावनाओंवाला बनाता है।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O pure and purifying Soma, your divine showers of joy streaming fast at the speed of thought flow on with the milk of grace into the heart cave of the soul, they are the showers of fulfilment in the heart core of the soul within, which the wise sages, realised souls of knowledge, create and exalt in the heart.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे लोक दृढतेने ईश्वराची उपासना करतात. परमेश्वर त्यांच्या ध्यानाचा विषय अवश्य असतो. अर्थात जोपर्यंत पुरुष सगळीकडून आपल्या चित्तवृत्ती हटवून एकमेव ईश्वरपरायण होत नाही तोपर्यंत तो सूक्ष्माहून सूक्ष्म परमात्मा त्याच्या बुद्धीचा विषय कधीही होऊ शकत नाही. याच अभिप्रायाने म्हटले आहे की ‘दृश्यते त्वग्रया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभि:’ तो सूक्ष्मदर्शीच्या सूक्ष्म बुद्धिद्वारेच पाहिला जाऊ शकतो, अन्यथा नाही. ॥४॥

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