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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 86 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 86/ मन्त्र 45
    ऋषिः - अत्रिः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - स्वराडार्चीजगती स्वरः - निषादः

    अ॒ग्रे॒गो राजाप्य॑स्तविष्यते वि॒मानो॒ अह्नां॒ भुव॑ने॒ष्वर्पि॑तः । हरि॑र्घृ॒तस्नु॑: सु॒दृशी॑को अर्ण॒वो ज्यो॒तीर॑थः पवते रा॒य ओ॒क्य॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्रे॒ऽगः । राजा॑ । अप्यः॑ । त॒वि॒ष्य॒ते॒ । वि॒ऽमानः॑ । अह्ना॑म् । भुव॑नेषु । अर्पि॑तः । हरिः॑ । घृ॒तऽस्नुः॑ । सु॒ऽदृशी॑कः । अ॒र्ण॒वः । ज्यो॒तिःऽर॑थः । प॒व॒ते॒ । रा॒ये । ओ॒क्यः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्रेगो राजाप्यस्तविष्यते विमानो अह्नां भुवनेष्वर्पितः । हरिर्घृतस्नु: सुदृशीको अर्णवो ज्योतीरथः पवते राय ओक्य: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्रेऽगः । राजा । अप्यः । तविष्यते । विऽमानः । अह्नाम् । भुवनेषु । अर्पितः । हरिः । घृतऽस्नुः । सुऽदृशीकः । अर्णवः । ज्योतिःऽरथः । पवते । राये । ओक्यः ॥ ९.८६.४५

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 86; मन्त्र » 45
    अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 20; मन्त्र » 5
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    यः परमात्मा (अग्रेगः) सर्वाग्रगामी तथा (राजा) सर्वस्य पतिः (अप्यः) सर्वगतश्चास्ति। (तविष्यते) स स्तूयते (अह्नां, विमानः) अपि च सूर्य्यचन्द्रादीनां निर्माता, (भुवनेषु, अर्पितः) सर्वलोकेषु स्थिरः (हरिः) हरणशीलः, तथा (घृतस्नुः) प्रेमाभिलाषी, तथा (सुदृशीकः) सुन्दरः, अपि च (अर्णवः) सुखसमुद्रः, अपरञ्च (ज्योतीरथः) ज्योतिस्वरूपः (ओक्यः) सर्वस्य निवासस्थानञ्चास्ति। स परमात्मा (राये) ऐश्वर्य्याय (पवते) मां पवित्रयतु ॥४५॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    जो परमात्मा (अग्रेगः) सबसे पहले गति करनेवाला है, तथा (राजा) सबका स्वामी है और (अप्यः) सर्वगत है, (तविष्यते) वह स्तुति किया जाता है। (अह्नां विमानः) सूर्य-चन्द्रमादिकों का निर्माता है, (भुवनेष्वर्पितः) सब लोकों में स्थिर है और (हरिः) हरणशील है तथा (घृतस्नुः) प्रेम को चाहनेवाला है, तथा (सुदृशीकः) सुन्दर है। (अर्णवः) सुखों का समुद्र है (ज्योतीरथः) ज्योतिःस्वरूप है और (ओक्यः) सबका निवासस्थान है, वह परमात्मा (राये) ऐश्वर्य के लिये (पवते) हमें पवित्र करे ॥४५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में परमात्मा को सर्वाधिकरणरूप से वर्णन किया है, जैसा कि “यस्मिन् विश्वानि भुवनानि तस्थुः” ऋ.।१०।१२ ६। में यही वर्णन किया है कि सर्व लोक-लोकान्तर उसी में निवास करते हैं ॥४५॥

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    विषय

    प्रभु और आत्मा का वर्णन।

    भावार्थ

    वह प्रभु और आत्मा कैसा है ? (अग्रे-गः) सब के आगे नायकवत् जाने वाला, (राजा) सूर्यवत् दीप्तिमान्, (अप्यः) प्राणों और प्राप्त जनों को हितकारक (अह्नां विमानः) दिनों का विशेष रूप से निर्माता और ज्ञान कराने वाले सूर्य के सदृश ही (अह्नां) न नाश होने वाले तत्वों का (विमानः) जगत् रूप में बनाने वाला (भुवनेषु अर्पितः) समस्त लोकों में व्यापता है। वह (हरिः) अज्ञान दुःख को हरने वाला, सर्वोत्तम (घृत-स्नुः) ज्ञान प्रकाश एवं स्नेह को प्रवाहित करने वाला, (सु-दृशीकः) सुखपूर्वक दर्शन करने योग्य (अर्णवः) ज्ञानशक्ति का सागर, (ज्योति-रथः) ज्योति से अति रमणीय परम प्रकाशमय, (ओक्यः) देह में आत्मा के तुल्य लोक में व्यापक होकर (राये) समस्त ऐश्वर्यों और विभूतियों को धारण करने के लिये (पवते) विशुद्ध किया जाता है। इति विंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१—१० आकृष्टामाषाः। ११–२० सिकता निवावरी। २१–३० पृश्नयोऽजाः। ३१-४० त्रय ऋषिगणाः। ४१—४५ अत्रिः। ४६–४८ गृत्समदः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, २१, २६, ३३, ४० जगती। २, ७, ८, ११, १२,१७, २०, २३, ३०, ३१, ३४, ३५, ३६, ३८, ३९, ४२, ४४, ४७ विराड् जगती। ३–५, ९, १०, १३, १६, १८, १९, २२, २५, २७, ३२, ३७, ४१, ४६ निचृज्जगती। १४, १५, २८, २९, ४३, ४८ पादनिचृज्जगती। २४ आर्ची जगती। ४५ आर्ची स्वराड् जगती॥

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    विषय

    अह्नां विमानः, ओक्यः

    पदार्थ

    (अग्रेगो) = अग्रगति व उन्नतिवाला यह (राजा) = जीवन को दीप्त व व्यवस्थित करनेवाला [दीप्तौ], (अप्यः) = कर्मों में उत्तम सोम (तविष्यते) = स्तुति किया जाता है। यह (भुवनेषु अर्पितः) = शरीर के अंग-प्रत्यंगों में अर्पित हुआ हुआ (अह्नां विमान:) = दिनों का उत्तम निर्माण करता है, एक-एक दिन को सुन्दर बनाता है तथा हमारे जीवन के दिनों को बढ़ाता है । संक्षेप में यह सोम सुन्दर दीर्घजीवन का कारण बनता है । (हरिः) = यह दुःखों का हरण करनेवाला है । (घृतस्नुः) = ज्ञानदीप्ति को प्रसृत करनेवाला है, ज्ञान प्रवाह को प्रवाहित करनेवाला है। (सुदृशीकः) = उत्तमदर्शनीय है, इसके रक्षण से शरीर तेजस्वी व रम्य बनता है। (अर्णवः) = यह सोम ज्ञान जलवाला है, (ज्योतीरथ:) = ज्योतिर्मय रथवाला है, शरीररथ को ज्योतिर्मय बनाता है । यह राये सब अन्नमय आदि कोशों के ऐश्वर्य के लिये पवते प्राप्त होता है और (ओक्य:) = इस शरीर रूप गृह के लिये अत्यन्त हितकर है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सुरक्षित सोम सुन्दर दीर्घ जीवन को प्राप्त कराता है। शरीर रूप गृह को बड़ा ठीक रखता है।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Soma, foremost pioneer spirit, refulgent ruler, open to all, maker of days and nights, omnipresent in all regions of the universe, is adored and worshipped by all. Soft and sweet, gracious and illuminative as ghrta, destroyer of darkness and suffering, blissful of sight, deep as space, riding the chariot of light, universal haven of all, moves, initiates and consecrates us for the achievement of honour, wealth and excellence.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात परमेश्वराला सर्वाधिकरणरूपाने वर्णित केलेले आहे. जसे (यस्मिन्विश्वानि भुवनानि तस्थु: । ऋग्वेद. १०.१२.६) मध्ये हेच वर्णन आहे की सर्व लोकलोकांतर त्याच्यातच निवास करतात. ॥४५॥

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