ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 86/ मन्त्र 17
ऋषिः - सिकता निवावारी
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - विराड्जगती
स्वरः - निषादः
प्र वो॒ धियो॑ मन्द्र॒युवो॑ विप॒न्युव॑: पन॒स्युव॑: सं॒वस॑नेष्वक्रमुः । सोमं॑ मनी॒षा अ॒भ्य॑नूषत॒ स्तुभो॒ऽभि धे॒नव॒: पय॑सेमशिश्रयुः ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । वः॒ । धियः॑ । म॒न्द्र॒ऽयुवः॑ । वि॒प॒न्युवः॑ । प॒न॒स्युवः॑ । स॒म्ऽवस॑नेषु । अ॒क्र॒मुः॒ । सोम॑म् । म॒नी॒षाः । अ॒भि । अ॒नू॒ष॒त॒ । स्तुभः॑ । अ॒भि । धे॒नवः॑ । पय॑सा । ई॒म् । अ॒शि॒श्र॒युः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र वो धियो मन्द्रयुवो विपन्युव: पनस्युव: संवसनेष्वक्रमुः । सोमं मनीषा अभ्यनूषत स्तुभोऽभि धेनव: पयसेमशिश्रयुः ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । वः । धियः । मन्द्रऽयुवः । विपन्युवः । पनस्युवः । सम्ऽवसनेषु । अक्रमुः । सोमम् । मनीषाः । अभि । अनूषत । स्तुभः । अभि । धेनवः । पयसा । ईम् । अशिश्रयुः ॥ ९.८६.१७
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 86; मन्त्र » 17
अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
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अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
हे परमात्मन् ! (प्र, वः, धियः) तव ध्यानपरायणाः (मन्द्रयुवः) तवानन्दयाचकाः (विपन्युवः) उपासकाः (पनस्युवः) स्तुतिं कामयमानाः (संवसनेषु) उपासनास्थानेषु (अक्रमुः) प्रविशन्ति। अपि च (सोमं) सर्वोत्पादकं परमात्मानं (मनीषा) मनसः सूक्ष्मवृत्त्या (अभि, अनूषत) सर्वथा भवति निवसन्ति। (स्तुभः) यथोपास्यस्य (अभि) अभिमुखम् (धेनवः) इन्द्रियाणां वृत्तयः (पयसा) वेगेन (अशिश्रयुः) तमाश्रयन्ति, एवमुपासकचित्तवृत्तय ईश्वरस्याभिमुखं गच्छन्ति ॥१७॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे परमात्मन् ! (प्र वो धियः) तुम्हारा ध्यान करनेवाले (मन्द्रयुवः) तुम्हारा आनन्द चाहनेवाले (विपन्युवः) उपासक लोग (पनस्युवः) स्तुति की कामना करते हुए (संवसनेषु) उपासनास्थानों में (अक्रमुः) प्रवेश करते हैं और (सोमं) सर्वोत्पादक परमात्मा को (मनीषा) चित्त की सूक्ष्मवृत्ति द्वारा (अभ्यनूषत) सब प्रकार से आप में निवास करते हैं। (स्तुभः) जैसे उपास्य के (अभि) अभिमुख (धेनवः) इन्द्रियों की वृत्तियें (पयसा) वेग से (अशिश्रयुः) उसको आश्रयण करती हैं, इसी प्रकार उपासक की चित्तवृत्तियें ईश्वर की ओर झुक जाती हैं ॥१७॥
भावार्थ
जो पुरुष समाहित चित्त से ईश्वर का ध्यान करते हैं, उनकी चित्तवृत्तियें प्रबल प्रवाह से ईश्वर की ओर झुक जाती हैं ॥१७॥
विषय
एकाग्रचित्त होकर परस्पर मिलकर प्रभु की स्तुति का उपदेश।
भावार्थ
हे मनुष्यो ! (वः) आप लोगों के कर्म और बुद्धियों और आप लोगों में से जो उत्तम धारणावान् और कर्मवान् (मन्द्रयुवः) आनन्द, परमसुख की कामना करनेवाले, (पनस्युवः) स्तुति करना चाहते हुए (विपन्युवः) स्तोता लोग (सं-वसनेषु अक्रमुः) एक साथ मिलकर बैठने के स्थानों, सत्संगों में विराजें। और (मनीषाः) अपने चित्त पर वश करने वाले, एकाग्रचित्त होकर (सोमं) उस सर्वोत्पादक, सर्वशासक प्रभु की (अभि अनूषत) स्तुति करें। (पयसा धेनवः) दूध से जैसे गौवें अपने शासक की सेवा करती है उसी प्रकार वे (स्तुभः) भगवान् की स्तुतियां भी अपने ज्ञान रस से उसी प्रभु की (अशिश्रयुः) सेवा करती हैं।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१—१० आकृष्टामाषाः। ११–२० सिकता निवावरी। २१–३० पृश्नयोऽजाः। ३१-४० त्रय ऋषिगणाः। ४१—४५ अत्रिः। ४६–४८ गृत्समदः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, २१, २६, ३३, ४० जगती। २, ७, ८, ११, १२,१७, २०, २३, ३०, ३१, ३४, ३५, ३६, ३८, ३९, ४२, ४४, ४७ विराड् जगती। ३–५, ९, १०, १३, १६, १८, १९, २२, २५, २७, ३२, ३७, ४१, ४६ निचृज्जगती। १४, १५, २८, २९, ४३, ४८ पादनिचृज्जगती। २४ आर्ची जगती। ४५ आर्ची स्वराड् जगती॥
विषय
स्तवन- मनोनिग्रह - वासना विनाश
पदार्थ
हे सोमकणो ! (वः) = तुम्हारा (धियः) [ध्यातार:] = ध्यान करनेवाले, (मन्द्रयुवः) = उस आनन्दमय प्रभु को अपने साथ जोड़नेवाले (विपन्युवः) = स्तोता लोग (पनस्युवः) = सदा स्तुति की कामनावाले होते हुए (संवसनेषु) = उत्तम यज्ञ आदि के आधारभूत ग्रहों में (प्र अक्रमुः) = प्रकर्षेणगतिवाले होते हैं । वस्तुतः सोमरक्षण का उपाय यह है कि प्रभु की उपासना व यज्ञादि कर्मों में लगे रहना । (मनीषा:) = मन का शासन करनेवाले बुद्धिमान् लोग (स्तुभः) = वासनाओं को रोकनेवाले होते हुए (सोमं अभ्यनूषत) = सोम का स्तवन करते हैं। सोम के गुणगान से सोमरक्षण में प्रीति उत्पन्न होती है । सोमरक्षण के लिये मनोनिग्रह व वासनाओं का विनाश आवश्यक है । सोम का रक्षण होने पर (धेनवः) = ज्ञानदुग्ध को देनेवाली वेदवाणी रूप (गौवें ईम्) = निश्चय से (पयसा अभि अशिश्रयुः) = ज्ञानदुग्ध से इस सोमी पुरुष का सेवन करती हैं।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण के उपाय हैं-' स्तवन- मनोनिग्रह - वासना विनाश'। सोम का लाभ है ज्ञानदुग्ध की प्राप्ति ।
इंग्लिश (1)
Meaning
O joyous devotees, celebrants and seekers of divinity, let all your thoughts, actions and prayers converge and concentrate on the omnipresence of Soma, on the universal vedi of Soma yajna. With mental reflections and spiritual meditation, your self wrapped in the beauty and bliss of Soma, adore the divinity. Let all your voices of adoration and songs of prayer be for the master with love and total surrender as cows with milk serve their master.
मराठी (1)
भावार्थ
जे पुरुष पूर्णपणे लीन चित्ताने ईश्वराचे ध्यान करतात त्यांच्या चित्तवृत्ती प्रबल प्रवाहाने ईश्वराकडे वळतात. ॥१७॥
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