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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 86 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 86/ मन्त्र 16
    ऋषिः - सिकता निवावारी देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    प्रो अ॑यासी॒दिन्दु॒रिन्द्र॑स्य निष्कृ॒तं सखा॒ सख्यु॒र्न प्र मि॑नाति सं॒गिर॑म् । मर्य॑ इव युव॒तिभि॒: सम॑र्षति॒ सोम॑: क॒लशे॑ श॒तया॑म्ना प॒था ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रो इति॑ । अ॒या॒सी॒त् । इन्दुः॑ । इन्द्र॑स्य । निः॒ऽकृ॒तम् । सखा॑ । सख्युः॑ । न । प्र । मि॒ना॒ति॒ । स॒म्ऽगिर॑म् । मर्यः॑ऽइव । यु॒व॒तिऽभिः॑ । सम् । अ॒र्ष॒ति॒ । सोमः॑ । क॒लशे॑ । श॒तऽया॑म्ना । प॒था ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रो अयासीदिन्दुरिन्द्रस्य निष्कृतं सखा सख्युर्न प्र मिनाति संगिरम् । मर्य इव युवतिभि: समर्षति सोम: कलशे शतयाम्ना पथा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रो इति । अयासीत् । इन्दुः । इन्द्रस्य । निःऽकृतम् । सखा । सख्युः । न । प्र । मिनाति । सम्ऽगिरम् । मर्यःऽइव । युवतिऽभिः । सम् । अर्षति । सोमः । कलशे । शतऽयाम्ना । पथा ॥ ९.८६.१६

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 86; मन्त्र » 16
    अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (इन्दुः) सर्वप्रकाशः परमात्मा (इन्द्रस्य) कर्मयोगिनः (निष्कृतं) संस्कृतमन्तःकरणं (प्रो, अयासीत्) सर्वप्रकारेण प्राप्नोति। अन्यच्च (सख्युः) मित्रस्य (न) इव (सखा) मित्रं भवति। अपरञ्च (सङ्गिरं) सर्वशक्तीः (प्र, मिनाति) प्रमाणयति (युवतिभिः, इव) प्रौढस्त्रीभिर्यथा (मर्य्यः) मर्य्यादा स्थिरा भवति। (कलशे) अस्मिन् ब्रह्माण्डकलशे (शतयाम्ना, पथा) शतशक्तिमता मार्गेण परमात्मा (सं, अर्षति) सर्वथा गच्छति ॥१६॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (इन्दुः) सर्वप्रकाशक परमात्मा (इन्द्रस्य) कर्म्मयोगी के (निष्कृतम्) संस्कृत अन्तःकरण को (प्रो अयासीत्) भली-भाँति प्राप्त होता है और (सख्युः) सखा के (न) समान (सखा) मित्र होता है और (संगिरं) सम्पूर्ण शक्तियों को (प्रमिनाति) प्रमाणित कर देता है। (युवतिभिरिव) युवति स्त्रियों के द्वारा जैसे (मर्य्यः) मर्य्यादा स्थिर की जाती है, (कलशे) इस ब्रह्माण्डरूपी कलश में (शतयाम्ना पथा) सैकड़ों शक्तियोंवाले रास्ते से परमात्मा (समर्षति) भली-भाँति गति कर रहा है ॥१६॥

    भावार्थ

    जिस प्रकार स्त्रियें अपने सदाचार से मर्यादा को बान्धती हैं, वा यों कहो कि मर्यादापुरुषोत्तम पुरुषों को उत्पन्न करके मर्य्यादा बान्धती हैं, इसी प्रकार परमात्मा वेदमर्य्यादारूप वैदिक पथ से महापुरुषों को उत्पन्न करके मर्य्यादा बान्धते हैं ॥१६॥

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    विषय

    आत्मा परमात्मा का परस्पर सख्य-भाव। प्रभु के अधीन नियमबद्ध होकर कामनाओं से प्रेरित आत्मा का पोडशकल देह में प्रवेश।

    भावार्थ

    उस प्रभु की सेवा परिचर्या करनेवाला वह जीवात्मा (इन्द्रस्य) उस परमेश्वर्यवान् प्रभु के (निष्कृतम्) सत्कर्मों से सम्पादनीय परम पद को लक्ष्य करके (प्रो अयासीत्) आगे बढ़ता है। वह (सखा) उसका मित्र होकर (सख्युः) अपने परम मित्र के समान नाम वाले परम-आत्मा की (संगिरम्) उत्तम वाणी, आज्ञा वा प्रतिज्ञा को (न प्रमिनाति) नहीं भंग करता। वह (मर्यः इव युवतिभिः) स्त्रियों से पुरुष के समान (सोमः) जीवात्मा, (मर्यः) मरणधर्मा होकर भी (युवतिभिः) अपने साथ मिली नानाशक्तियों, कामनाओं से (शत-याम्ना पथा) सैकड़ों प्रकार से जाने योग्य वा सौ वर्षों तक भोगने योग्य इस संसार मार्ग से (कलशे सम्-अर्षति) इस षोड़शकलायुक्त पुरुष-देह में प्राप्त होता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१—१० आकृष्टामाषाः। ११–२० सिकता निवावरी। २१–३० पृश्नयोऽजाः। ३१-४० त्रय ऋषिगणाः। ४१—४५ अत्रिः। ४६–४८ गृत्समदः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, २१, २६, ३३, ४० जगती। २, ७, ८, ११, १२,१७, २०, २३, ३०, ३१, ३४, ३५, ३६, ३८, ३९, ४२, ४४, ४७ विराड् जगती। ३–५, ९, १०, १३, १६, १८, १९, २२, २५, २७, ३२, ३७, ४१, ४६ निचृज्जगती। १४, १५, २८, २९, ४३, ४८ पादनिचृज्जगती। २४ आर्ची जगती। ४५ आर्ची स्वराड् जगती॥

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    विषय

    प्रभु के आदेश का न तोड़ना

    पदार्थ

    (इन्दुः) = सोम (इन्द्रस्य) = जितेन्द्रिय पुरुष के (निष्कृतम्) = संस्कृत- पवित्र हृदय की ओर निश्चय से (प्र अयासीत्) = प्रकर्षेण गतिवाला होता है । हृदय के पवित्र होने पर सोम की शरीर में ऊर्ध्वगति होती ही है । (सखा) = मित्रभूत यह सोम (सख्युः) = उस सबके सखा प्रभु के (संगिरम्) = वेदोपदिष्ट आदेशों को प्रभु की आज्ञाओं को (न प्रमिनाति) = तोड़ता नहीं । सोमरक्षक पुरुष प्रभु की आज्ञाओं में चलता है। सर्वमार्गभ्रम का मूल सोम का विनाश ही है। (इव) = जैसे (मर्य:) = एक मनुष्य (युवतिभिः) = युवतियों से (समर्षति) = मेलवाला होता है, उसी प्रकार (सोमः) = सोम (कलशे) = इस १६ कलाओं के आधारभूत शरीर में (शतयाम्ना) = सौ वर्ष तक गतिवाले (पथा) = मार्ग से (समर्षति) = गतिवाला होता है । 'मर्य इव युवतिभिः ' इस उपमा का (स्वारस्य) = इतना ही है कि गति में शक्ति व उत्साह होता है । सोमरक्षण से १०० वर्ष तक शक्ति व उत्साह में कमी नहीं आती।

    भावार्थ

    भावार्थ - हृदय के पवित्र होने पर सोम का रक्षण होता है। सोमरक्षक पुरुष प्रभु के आदेशों का भंग नहीं करता और इसके दीर्घजीवन शक्ति व उत्साह बने रहते हैं ।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indu, Soma, light of life and divine ecstasy, goes forward to the sacred heart of the devotee and, like a friend of friends, destroys contradictions, confirms complementarities and advances human growth. Thus, just as youthful mortals go with their lady love, join and protect them, and live a full life with vows kept within the bounds of discretion and the law, so does Soma in the sacred heart inspire the loved soul as a friend in covenant by a hundred paths of human possibilities of growth and advancement within the bounds of Dharma. The Lord does not break the promise ever.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्या प्रकारे स्त्रिया आपल्या सदाचाराने मर्यादा पालन करतात किंवा मर्यादा पुरुषोत्तमाला उत्पन्न करून मर्यादा दृढ करतात याचप्रकारे परमात्मा वेदमर्यादारूपी वैदिक पथाने महापुरुषांना उत्पन्न करून मर्यादेची सीमा ठरवितो. ॥१६॥

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