अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 14
ऋषिः - सिन्धुद्वीपः
देवता - आपः, चन्द्रमाः
छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - विजय प्राप्ति सूक्त
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दे॒वस्य॑ सवि॒तुर्भा॒ग स्थ॑। अ॒पां शु॒क्रमा॑पो देवी॒र्वर्चो॑ अ॒स्मासु॑ धत्त। प्र॒जाप॑तेर्वो॒ धाम्ना॒स्मै लो॒काय॑ सादये ॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वस्य॑ । स॒वि॒तु: । भा॒ग: । स्थ॒ । अ॒पाम् । शु॒क्रम् । आ॒प॒: । दे॒वी॒: । वर्च॑: । अ॒स्मासु॑ । ध॒त्त॒ । प्र॒जाऽप॑ते । व॒: । धाम्ना॑ । अ॒स्मै । लो॒काय॑ । सा॒द॒ये॒ ॥५.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
देवस्य सवितुर्भाग स्थ। अपां शुक्रमापो देवीर्वर्चो अस्मासु धत्त। प्रजापतेर्वो धाम्नास्मै लोकाय सादये ॥
स्वर रहित पद पाठदेवस्य । सवितु: । भाग: । स्थ । अपाम् । शुक्रम् । आप: । देवी: । वर्च: । अस्मासु । धत्त । प्रजाऽपते । व: । धाम्ना । अस्मै । लोकाय । सादये ॥५.१४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
विद्वानों के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
[हे विद्वानो !] तुम (देवस्य) प्रकाशमान (सवितुः) परमेश्वर के (भागः) अंश (स्थ) हो [अर्थात् परमेश्वर में व्याप्त हो]। (देवीः) हे उत्तम गुणवाली (आपः) विदुषी प्रजाओ ! (अपाम्) विद्वानों के बीच (अस्मासु) हम में (शुक्रम्) वीरता और (वर्चः) तेज (धत्त) धारण करो। (वः) तुमको (प्रजापतेः) प्रजापति [परमेश्वर] के (धाम्ना) धर्म [नियम] से (अस्मै) इस (लोकाय) लोक [के हित] के लिये (सादये) मैं बैठाता हूँ ॥१४॥
भावार्थ
मन्त्र ७ के समान है ॥१४॥
टिप्पणी
१४−(देवस्य) प्रकाशमानस्य (सवितुः) परमेश्वरस्य। अन्यत् पूर्ववत्−म० ७ ॥
विषय
'अग्नि, इन्द्र, सोम, वरुण, मित्रावरुण, यम, पितर, देवसविता'
पदार्थ
१.हे (देवी: आप:) = दिव्य गुणयुक्त अथवा रोगों को जीतने की कामनावाले [दिव् विजिगीषायाम्] रेत:कणरूप जलो! आप (अग्ने:) = प्रगतिशील जीव [अग्रणी:] के (भाग: स्थ) = भाग हो, अर्थात् प्रगतिशील जीव को प्राप्त होते हो। इसी प्रकार (इन्द्रस्य) = जितेन्द्रिय पुरुष के, (सोमस्य) = सौम्य भोजनों के सेवन द्वारा सौम्य स्वभाववाले पुरुष के, (वरुणस्य) = पाप का निवारण करके श्रेष्ठ बने पुरुष के, (मित्रावरुणयो:) = स्नेहवाले व द्वेष का निवारण करनेवाले पुरुष के, (यमस्य) = संयमी पुरुष के, (पितृणाम्) = रक्षणात्मक कार्यों में प्रवृत्त पुरुषों के, (देवस्य सवितुः) = देववृत्ति का बनकर निर्माणात्मक कार्यों में लगे हुए पुरुष के (भाग: स्थ) = भाग हो। ये रेत:कण इन अग्नि, इन्द्र, सोम, वरुण, मित्रावरुण, यम, पितर व देवसविता' में ही सुरक्षित रहते हैं। अग्नि' आदि बनना ही वीर्यरक्षण का साधन होता है। २. हे [देवी: आप:-] दिव्य गुणयुक्त रेत:कणो! आप (अपां शुक्रम्) = कर्मों में लगे रहनेवाली प्रजाओं का वीर्य हो। आप (अस्मासु) = हममें (वर्चः धत्त) = वर्चस् को-रोगनिवारणशक्ति को धारण करो। मैं (व:) = आपको (प्राजपते: धाम्ना) = प्रजारक्षक प्रभु के तेज के हेतु से-प्रजापति के तेज को प्राप्त करने के लिए (अस्मै लोकास्य) = इस लोक के हित के लिए (सादये) = अपने में बिठाता हूँ। वौर्यरक्षण द्वारा मनुष्य प्रजापति के धाम को प्राप्त करता है और लोकहित के कार्यों में प्रवृत्त रहता है।
भावार्थ
रेत:कणों के रक्षण के लिए आवश्यक है कि हम प्रगतिशील हों[अग्नि], जितेन्द्रिय बनें [इन्द्र], पापवृत्ति से बचें [वरुण], स्नेह व द्वेष निवारणवाले हों [मित्रावरुण], संयमी बनें [यम], रक्षणात्मक व देववृत्ति के बनकर उत्पादक कार्यों में प्रवृत्त हों[ देव सविता]। ये रेत:कण ही कार्यनिरत प्रजाओं का वीर्य हैं, ये हमें रोगनिवारणशक्ति प्राप्त कराते हैं और प्रभु के तेज से तेजस्वी बनाकर लोकहित के कार्यों के योग्य बनाते हैं।
भाषार्थ
(आपः देवीः) हे दिव्य प्रजाओ ! तुम (देवस्य सवितुः) सर्वोत्पादक परमेश्वर देव के (भागः) भागरूप, अङ्गरूप (स्थ) हो। (अपां शुक्रम्) प्रजाओं की शक्ति और सामार्थ्य, (वर्चः) तथा दीप्ति (अस्मासु) हम अधिकारियों में (धत्त) स्थापित करो, हमें प्रदान करो। (प्रजापतेः धाम्ना) प्रजापति के नाम तथा स्थान द्वारा (अस्मै लोकाय) इस पृथिवीलोक के लिये (सादये) मैं इन्द्र अर्थात् सम्राट् (वः) हे प्रजाओं ! तुम्हें दृढ़ स्थापित करता हूं।
टिप्पणी
[परमेश्वर ब्रह्माण्ड का शासक होता हुआ पृथिवी का भी शासक है। परन्तु पृथिवीस्थ मनुष्यवर्ग में व्यवस्था के लिये मानुषराजवर्ग भी आवश्यक है। प्रजातन्त्रराज्य में वस्तुतः शासक प्रजाएं होती हैं। अतः ये प्रजाएं ही निजशासन में पारमेश्वरीय शासन के भागरूप या अङ्गरूप होती हैं। प्रजाएं राज्याधिकारियों को चुन कर राज्यव्यवस्था कायम करती हैं, और राज्याधिकारियों को पारमेश्वरीय शासन में अङ्गरूप बनाती हैं। राज्याधिकारियों में मुख्याधिकारी राजा होता है। समग्र पृथिवी के शासन में यह “इन्द्रेन्द्र” होता है, इन्द्रों का भी इन्द्र होता है, सम्राटों का भी सम्राट् होता है। इस के सम्बन्ध में वेद में निम्नलिखित मन्त्र द्वारा निम्नलिखित भावनाएं प्रकट की है। यथा “इन्द्रेन्द्र मनुष्या३: परेहि संह्यज्ञास्थाः वरुणैः संविदानः। स त्वायमह्वत स्वे सधस्थे स देवान् यक्षत् स उ कल्पयाद् विशः।। (अथर्व० ३।४।६)। अर्थात् हे इन्द्रेन्द्र! हे मनुष्य ! तू भूमण्डल के परे तक के प्रदेशों तक भी जाया-आया कर। वरुण अर्थात् प्रजा निर्वाचित माण्डलिक राजाओं द्वारा सम्यक्तया जानकारी को प्राप्त हुआ तू उनके साथ शासन में ऐकमत्य को प्राप्त हो। उस परमेश्वर ने "सधस्थ" अर्थात् निजगद्दी में साथ बैठने के लिये तेरा आह्वान किया है, तू परमेश्वर के साथ राजगद्दी पर बैठ कर, परमेश्वर का प्रतिनिधि बन कर पृथिवी का शासन कर, और विश्वास कर कि ऐसे तेरे शासन में परमेश्वर, राज्यशासन में तेरे सहायक दिव्य राजवर्ग को शासन-यज्ञ के योग्य बना देगा, और तेरी प्रजाओं को सामर्थ्य सम्पन्न कर देगा। राजा लोग यदि यह समझ लें कि शासन की गद्दी पर परमेश्वर भी स्थित है, और हम उसके प्रतिनिधि होकर शासन व्यवस्था के लिये उसके साथ बैठे हुए हैं तो पृथिवी का शासन स्वर्गीयशासन हो जाय। मन्त्र में “वरुणैः” में बहुवचन है, अतः ये मनुष्य है, माना गया वरुण-देवता नहीं। मनुष्या३: में आह्वान में "टि" को प्लुत है। यक्षंतु = यज् + सिप् + लेट् लकार]
मन्त्रार्थ
आदित्यपरक व्याख्या- (आचार्य:) आदित्य (मृत्युः) काल संख्या का परिगणन करके वस्तु मात्र के जीवन को समाप्त करने वाला है (वरुणः) निज आकर्षण में वरण करने वाला (सोमः) प्रतिदिन उदयकाल में सबको प्रगट करने वाला (ओषधयः) ओष-ताप का धारक (पयः) प्रकाश का पालक होने से पय नामक (जीमूताः सत्वान: आसन्) जल का बांधने वाला सदा सत्तावान् नामों से है (तै: इदं स्व:-अभृतम्) मृत्यु आदि नामों से यह आदित्य आकाश में धरा हुआ है- स्थापित है "स्वरादित्यो भवति" (निरु० २।१४) विद्यार्थी के विषय में (आचार्य:) वेदाचार्य (मृत्युः) स्व वंशजो से वियोग कराने वाला होने से मृत्यु के समान है (वरुण) शिष्य को निज आश्रय मैं वरने वाला (सोमः) विद्यामय पुनर्जन्म का देने वाला होने से उत्पादक (ओषधयः) घोष-तेज-पराकत का धारण कराने वाला (पयः) ज्ञान प्रकाश का पालक (जीमूताः सत्त्वानः आसन्) जीवन हेतु उपदेशामृत से बांधने वाला आदि नामों से है (तैः इदं स्वः-प्रभृतम् ) उन मृत्यु आदि नामो से स्वः सुख: कारणशील ज्ञान ग्रहण करने में गतिशील ब्रह्मचर्य व्रतीजन सम्यक् स्थिर है ॥१४॥
विशेष
ऋषिः - ब्रह्मा (विश्व का कर्त्ता नियन्ता परमात्मा "प्रजापतिर्वै ब्रह्मा” [गो० उ० ५।८], ज्योतिर्विद्यावेत्ता खगोलज्ञानवान् जन तथा सर्ववेदवेत्ता आचार्य) देवता-ब्रह्मचारी (ब्रह्म के आदेश में चरणशील आदित्य तथा ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी) इस सूक्त में ब्रह्मचारी का वर्णन और ब्रह्मचर्य का महत्त्व प्रदर्शित है। आधिदैविक दृष्टि से यहां ब्रह्मचारी आदित्य है और आधिभौतिक दृष्टि से ब्रह्मचर्यव्रती विद्यार्थी लक्षित है । आकाशीय देवमण्डल का मूर्धन्य आदित्य है लौकिक जनगण का मूर्धन्य ब्रह्मचर्यव्रती मनुष्य है इन दोनों का यथायोग्य वर्णन सूक्त में ज्ञानवृद्धयर्थ और सदाचार-प्रवृत्ति के अर्थ आता है । अब सूक्त की व्याख्या करते हैं-
इंग्लिश (4)
Subject
The Song of Victory
Meaning
You are part and partners of Savita, divine father giver of life and light with the inspiration to live and shine. Like the purity and power of the radiation of light you hold in you the spirit and essence of noble action. Bring us the purity, power and splendour of creative and enlightened action. With the rule and law of Prajapati and with the holiness of his glory, I assign and consecrate you to the enlightenment, harmony and unity of this human nation as one family of one universal father Savita.
Translation
You are the portion of the impeller Lord (Deva-savitr). O waters divine, may you put in us the lustre, (which is) the sperm of the waters. From the domain of the creator Lord, I set you (here) for this world.
Translation
O learned men! Yow are possessed of the attribute of the attribute of the mighty sun. Let the celestial waters grant unto us the brilliant energy. I, the priest by the splendor of the Lord of the Creatures establish you for this World of ours.
Translation
O learned persons, ye are the subjects of an all-impelling King, O divine noblemen, grant us the energy and brilliance of noble deeds. According to the law of God, I set you down for the welfare of the world!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१४−(देवस्य) प्रकाशमानस्य (सवितुः) परमेश्वरस्य। अन्यत् पूर्ववत्−म० ७ ॥
हिंगलिश (1)
Subject
सर्व हितकारी उत्पादन Creative Productivity
Word Meaning
(देवस्य सवितुर्भाग) दिव्य जनों की सर्वहितकारी नवीन उत्पादन करने (केवल व्यक्तिगत स्वार्थ से प्रेरित पर्यावरण और मानव समाज को दूषित करने वाले हानिकारक निर्माण न करने ) की शक्ति द्वारा सब जीव जंतुओं और मनुष्यों के स्वाथ्य और मानसिकता द्वारा जलों-तरल पदार्थों- भौतिक जल वनस्पतिओं के रस और मानव शरीर का संचारण करने वाले रक्त रेतस वीर्यादि रस में संसारिक सम्पन्नता,दीप्ति और वर्चस्व देने वाले प्रजा के पालन करने वाले ईश्वर के दैवीय गुण-,राजा,अग्रज और प्रजा सब जन जितेंद्रिय बन कर जीवन में विजय प्राप्त करें|
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