अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 42
ऋषिः - सिन्धुद्वीपः
देवता - प्रजापतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - विजय प्राप्ति सूक्त
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यं व॒यं मृ॒गया॑महे॒ तं व॒धै स्तृ॑णवामहै। व्यात्ते॑ परमे॒ष्ठिनो॒ ब्रह्म॒णापी॑पदाम॒ तम् ॥
स्वर सहित पद पाठयम् । व॒यम् । मृ॒गया॑महे । तम् । व॒धै: । स्तृ॒ण॒वा॒म॒है॒ । वि॒ऽआत्ते॑ । प॒र॒मे॒ऽस्थिन॑: । ब्रह्म॑णा । आ । अ॒पी॒प॒दा॒म॒ । तम् ॥५.४२॥
स्वर रहित मन्त्र
यं वयं मृगयामहे तं वधै स्तृणवामहै। व्यात्ते परमेष्ठिनो ब्रह्मणापीपदाम तम् ॥
स्वर रहित पद पाठयम् । वयम् । मृगयामहे । तम् । वधै: । स्तृणवामहै । विऽआत्ते । परमेऽस्थिन: । ब्रह्मणा । आ । अपीपदाम । तम् ॥५.४२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
शत्रुओं के नाश का उपदेश।
पदार्थ
(यम्) जिस [शत्रु] को (वयम्) हम (मृगयामहे) ढूँढ़ते हैं, (तम्) उसको (वधैः) वज्रों से (स्तृणवामहै) हम विनाशें। (परमेष्ठिनः) सब से ऊँचे पदवाले [राजा] के (व्यात्ते) खुले मुख [वश] में (ब्रह्मणा) ब्रह्मज्ञान से (तम्) उसको (आ=आनीय) लाकर (अपीपदाम) हमने गिरा दिया है ॥४२॥
भावार्थ
सब शूरवीर शुभचिन्तक मनुष्य दुष्टों को पकड़ कर राजा के वशीभूत करें ॥४२॥
टिप्पणी
४२−(यम्) शत्रुम् (वयम्) राजप्रजागणाः (मृगयामहे) अन्विच्छामः (तम्) (वधैः) वज्रैः (स्तृणवामहै) स्तृणातिर्वधकर्मा-निघ० २।१९। विनाशयाम। (व्यात्ते) प्रसारिते मुखे। वशे (परमेष्ठिनः) अत्युच्यपदस्थितस्य राज्ञः (ब्रह्मणा) वेदज्ञानेन (आ) आनीय (अपीपदाम) पातयतेर्लुङ्, तस्य दः। वयं पातितवन्तः (तम्) शत्रुम् ॥
विषय
आत्मनिरीक्षण द्वारा शत्रु का अन्वेषण व विनाश
पदार्थ
१. (यम्) = जिस भी काम, क्रोध व लोभरूप शत्रु को (वयम्) = हम (मृगयामहे) = ढूँढ पाते हैं, (तम्) = उसे (वधैः) = हनन-साधन आयुधों द्वारा (स्तृणवामहै) = समास करते हैं [स्तृणातिबंधकर्मा-नि० २।१९] । २. (तम्) = उस शत्रु को ब्रह्मणा वेदज्ञान द्वारा (परमेष्ठिन:) = परम स्थान में स्थित प्रभु की (व्याते) = खुली [विशाल] दंष्ट्रा में (अपीपदाम) = प्राप्त कराते हैं, अर्थात् ज्ञान की वाणियों का उच्चारण करते हुए प्रभु के सान्निध्य में उस शत्रु को समाप्त कर देते हैं।
भावार्थ
आत्मनिरीक्षण द्वारा हम अन्त:स्थ शत्रुओं को खोज-खोजकर ज्ञान की वाणियों के द्वारा प्रभु की समीपता में समाप्त करनेवाले बनें।
भाषार्थ
(वयम्) हम (यम् मृगयामहे) जिस के अन्वेषण अर्थात् जिस की खोज में हैं (तम्) उसे (वधैः) वधकारी आयुधों द्वारा (स्तृणवामहै) हम नष्ट करते हैं। (परमेष्ठिनः) परमोच्चस्थान में स्थित सार्वभौमशासक के (व्यात्ते) खुले मुख में, (ब्रह्मणा) ब्रह्म-अर्थात् परमेश्वर या वेद की आज्ञा द्वारा (तम्) उसे (अपीपदाम) हमने भेज दिया है, समर्पित कर दिया है।
टिप्पणी
[जो शासक ब्राह्मणवर्चस१ को प्राप्त नहीं, उस की खोज कर के, उसे विनष्ट करने की भावना मन्त्र में प्रतीत होती है। उसे सार्वभौमशासक के खुले मुख अर्थात् सर्वसाधारण में प्रसिद्ध किये नियमों के अनुसार दण्डित करना चाहिये । “वधः वज्रनाम (निघं २।२०)। स्तृणवामहै; "स्तृणाति" वधकर्मा (निघं० २।१९)] [१. मन्त्र ३७ ४१; ब्राह्मणवर्चस= शासन में सत्यव्यवहार, प्रजारक्षा की भावना धनसंग्रह में निर्लोभवृत्ति, तथा वेदज्ञता और आस्तिकता]
इंग्लिश (4)
Subject
The Song of Victory
Meaning
Whatever evil we hunt out, we deal with by the force of law, refer it to the Lord Supreme’s law of dispensation and dispose of by the law of Dharma, i.e., the law of the constitution.
Translation
Whomsoever we hunt (mrgayāmahe), we bestrew him with our deadly weapons. With our knowledge, we push him into the open jaws of the Lord of the highest abode (Paramesthi).
Translation
Whomsoever we hunt we beat down and destroy. We burry him in the jaws of the King who rules the subject by the law of the Veda.
Translation
We chase the enemy, and destroy him with instruments, or hand him over to the control of the king for condign punishment according to Vedic law.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४२−(यम्) शत्रुम् (वयम्) राजप्रजागणाः (मृगयामहे) अन्विच्छामः (तम्) (वधैः) वज्रैः (स्तृणवामहै) स्तृणातिर्वधकर्मा-निघ० २।१९। विनाशयाम। (व्यात्ते) प्रसारिते मुखे। वशे (परमेष्ठिनः) अत्युच्यपदस्थितस्य राज्ञः (ब्रह्मणा) वेदज्ञानेन (आ) आनीय (अपीपदाम) पातयतेर्लुङ्, तस्य दः। वयं पातितवन्तः (तम्) शत्रुम् ॥
हिंगलिश (1)
Subject
Weapons of Mass Destruction (Peaceful uses of Nuclear Energy)
Word Meaning
अनुसंधान के द्वारा जिन विध्वंसक आयुधों का हम निर्माण कर के अपने शत्रुओ को तृण –तितर बितर कर देतें हैं, उस शक्ति को प्रजा के हित में ऐच्छिक कार्यों में समर्पित करें |
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