अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 19
ऋषिः - सिन्धुद्वीपः
देवता - आपः, चन्द्रमाः
छन्दः - चतुरवसाना दशपदा त्रैष्टुभगर्भा कृतिः
सूक्तम् - विजय प्राप्ति सूक्त
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यो व॑ आपो॒ऽपां हि॑रण्यग॒र्भो॒प्स्व॒न्तर्य॑जु॒ष्यो देव॒यज॑नः। इ॒दं तमति॑ सृजामि॒ तं माभ्यव॑निक्षि। तेन॒ तम॒भ्यति॑सृजामो॒ यो॒स्मान्द्वेष्टि॒ यं व॒यं द्वि॒ष्मः। तं व॑धेयं॒ तं स्तृ॑षीया॒नेन॒ ब्रह्म॑णा॒नेन॒ कर्म॑णा॒नया॑ मे॒न्या ॥
स्वर सहित पद पाठय: । व॒: । आ॒प॒: । अ॒पाम् । हि॒र॒ण्य॒ऽग॒र्भ: । अ॒प्ऽसु । अ॒न्त: । य॒जु॒ष्य᳡: । दे॒व॒ऽयज॑न: । इ॒दम् । तम् । अति॑ । सृ॒जा॒मि॒ । तम् । मा । अ॒भि॒ऽअव॑निक्षि । तेन॑ । तम् । अ॒भि॒ऽअति॑सृजाम: । य: । अ॒स्मान् । द्वेष्टि॑ । यम् । व॒यम् । द्वि॒ष्म: । तम् । व॒धे॒य॒म् । तम् । स्तृ॒षी॒य॒ । अ॒नेन॑ । ब्रह्म॑णा । अ॒नेन॑ । कर्म॑णा । अ॒नया॑ । मे॒न्या ॥५.१९॥
स्वर रहित मन्त्र
यो व आपोऽपां हिरण्यगर्भोप्स्वन्तर्यजुष्यो देवयजनः। इदं तमति सृजामि तं माभ्यवनिक्षि। तेन तमभ्यतिसृजामो योस्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः। तं वधेयं तं स्तृषीयानेन ब्रह्मणानेन कर्मणानया मेन्या ॥
स्वर रहित पद पाठय: । व: । आप: । अपाम् । हिरण्यऽगर्भ: । अप्ऽसु । अन्त: । यजुष्य: । देवऽयजन: । इदम् । तम् । अति । सृजामि । तम् । मा । अभिऽअवनिक्षि । तेन । तम् । अभिऽअतिसृजाम: । य: । अस्मान् । द्वेष्टि । यम् । वयम् । द्विष्म: । तम् । वधेयम् । तम् । स्तृषीय । अनेन । ब्रह्मणा । अनेन । कर्मणा । अनया । मेन्या ॥५.१९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
विद्वानों के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(आपः) हे विद्वानो ! (यः) जो (वः अपाम्) तुम विद्वानों का (हिरण्यगर्भः) कामनायोग्य [तेजों] का आधार (अप्सु अन्तः) विद्वानों के बीच.... मन्त्र १५ ॥१९॥
भावार्थ
मन्त्र १५ के समान है ॥१९॥
टिप्पणी
१९−(हिरण्यगर्भः) अ० ४।२।७। हर्यतेः कन्यन् हिरच्। उ० ४।४४। हर्य गतिकान्त्योः-कन्यन्, हिरादेशः। कमनीयानां तेजसामाधारः। अन्यत् पूर्ववत्.... म० १५ ॥
विषय
रेतःकणों का महत्त्व
पदार्थ
१. हे (आप:) = रेत:कणो! (य:) = जो (व:) = आपका (अपाम्) = प्रजाओं का (भाग:) = पूजन [भज सेवायाम्] है, अर्थात् आपके रक्षण से प्रजाओं के अन्दर जो प्रभु-पूजन का भाव उत्पन्न होता है, इसी प्रकार जो (अपाम् ऊर्मि:) = प्रजाओं का प्रकाश है [उर्मि light], आपके रक्षण से जो प्रकाश उत्पन्न होता है। जो (अपां वत्स:) = [वदति] प्रजाओं का ज्ञान की बाणियों का उच्चारण है। (अपां वृषभ:) = प्रजाओं में सुखों का सेचन है [वृष् सेचने]। (अपां हिरण्यगर्भः) = प्रजाओं में ज्योति को धारण करना है। (अपां अश्मा) = प्रजाओं का पाषाण-तुल्य दृढ़-शरीर है, (पृश्नि:) = अंग प्रत्यंग में रसों का संस्पर्श है [संस्प्रष्टा रसान्-नि०२।१४] तथा (दिव्यः) = देववृत्तियों का जन्म है और अन्तत: (अपां अग्नयः) = प्रजाओं के अन्दर आगे बढ़ने की वृत्तियाँ हैं। ये सब (अप्सु अन्त:) = प्रजाओं के अन्दर (यजुष्य:) = यजुष्य हैं-यज्ञात्मकवृत्तियों को जन्म देने के लिए उत्तम है। ये सब बातें (देवयजन:) = उस देव के साथ-प्रभु के साथ मेल करानेवाली हैं। २. (अतः इदम्) [इदानीम्] = अब मैं (तम् उ) = उस रेत:कण [वीर्यशक्ति] को ही (अतिसजामि) = अतिशयेन अपने अन्दर उत्पन्न करता हूँ। (तं मा अभिअवनिक्षि) = उसका मैं सफाया न कर दूं-उसे अपने अन्दर सुरक्षित काँ[अवनिज् wipe off] (तेन) = उस वीर्यशक्ति के द्वारा (तम् अभि अतिसूजामः) = उसे अपने से दूर करते हैं [अतिसृज् part with] (यः) = जो (अस्मान् द्वेष्टि) = हम सबके प्रति अप्रीतिवाला है और (परिणामत: यं वयं द्विष्मः) = जिससे हम भी प्रीति नहीं कर सकते। (तम्) = उसे (अनेन बह्मणा) = इस ज्ञान के द्वारा (अनेन कर्मणा) = इस यज्ञादि कर्म के द्वारा तथा (अनया मेन्या) = इस उपासनारूप वज्र के द्वारा [मेनि:-मन्] (तं वधेयम्) = उस समाज-विद्विष्ट को समाप्त कर (दंतं स्तृषीय) = उसे नष्ट कर दूं [स्तृ to kill]।
भावार्थ
रेत:कणों के रक्षण से हममें 'उपासना के भाव, प्रकाश, ज्ञान की वाणियों का उच्चारण, सुख, ज्योति, दृढ रसमय दिव्यता व प्रगतिशीलता' की उत्पत्ति होती है, अत: रेत:कणों का रक्षण आवश्यक है। इससे द्वेषभाव भी विनष्ट हो जाता है।
भाषार्थ
(आपः) हे आप्त प्रजाओ! (वः) तुम्हारा (यः) जो (अपाम्) प्रजाओं सम्बन्धी (हिरण्यगर्भः) हिरण्यगर्भ नामक परमेश्वर है, जो कि तुम्हारे (अप्सु अन्तः) हृदयान्तर्वर्ती जलों में विद्यमान है, (यजुष्यः) यजनीय तथा (देवयजनः) देवों अर्थात् साध्यों और ऋषियों द्वारा यजनीय है, (तम्) उस के प्रति (इदम्) इस शरीर या मन को (अभि) अभिमुख होकर, (अव-निक्षि) शुचि, पवित्र कर। (तेन) उस शुचि, पवित्र सम्राट की आज्ञा द्वारा (तम्) उस शत्रुराजा को, (अभि) अभिमुख होकर, (अतिसृजामः) हम सैनिक विनष्ट करते हैं (यः) जो कि (अस्मात् द्वेष्टि) हमारे साथ द्वेष करता है, और (यम्) जिस के साथ, प्रतिक्रिया में, (वयम् द्विष्मः) हम द्वेष करते हैं। अथवा (तम्) उस रात्रु-राजा का (वधेयम्) मैं सम्राट् स्वयं वध करूं, (तम्, स्तृषीय) उस का विनाश करू, (अनेन व्रह्मणा) इस मन्त्रोक्तविधि द्वारा, (अनेन कर्मणा) इस (द्वन्द्वयुद्धरुपी) कर्म द्वारा या (अनया मेन्या) इस वज्र द्वारा।
टिप्पणी
[मन्त्र में "हिरण्यगर्भ” को यजनीय कहा है, जो कि प्रजापति परमेश्वर है यथा "हिरण्यगर्भः समवर्त्तताग्रे” (यजु० १३/४)। अतः प्रतीत होता है कि मन्त्र १५-१८ में जो भजनीय तथा यजनीय नाम 'भागः, ऊर्मिः, वत्सः, वृषभ:" पठित हैं वे भी परमेश्वर के ही गुणकर्मो के सूचक हैं]।
इंग्लिश (4)
Subject
The Song of Victory
Meaning
O people of the state, whoever of the people is at heart the deepest treasure of the golden virtues of humanity in the business of governance and administration of the order, loved by society and respected by the wise for his virtues, here I appoint, and entrust the department to him. Do not forsake him, nor must I forsake or neglect him, and thereby we take on whoever hates us and whoever we disapprove, and with this knowledge, through this process of law, and with this act of justice, we counter, cover and eliminate that element of hate and enmity.
Translation
What of you, O waters, is the golden-wealth (hiraņya-garbha, shining and glittering) of the waters within waters, useful for the sacrificial rites (yajusya), useful for the congregation of enlightened beings (gods, or devas) that I present here; may I not dismiss or ignore him outright. That let me not wash down against myself. That we do not let go against him who ` hates us, or whom we hate; him may I slay, or stab; him may I bestrew (strsīya), with this prayer (brahmaņā), with this act (karmaņā), with this weapon (menyā).
Translation
O learned men! to him who is the brilliant upholder of your virtues and actions among the people and is performer of yajna and server of enlightened persons, I, the priest entrust this Kingdom. Let not you dishonor him. By him we attack on him who hates us and whom we abhor. We overthrow and slay him through this Knowledge, through this act and through this fatal weapon.
Translation
O learned persons, the King, who is the support of ye subjects for the achievement of desirable splendor, living amongst you, is worthy of reverence and worship by godly persons. I hand over the administration of this State to him. May I never show him disrespect. With his help we invade the enemy who hates us and whom we abhor. Him would I fain overthrow and slay with this Vedic knowledge, with this heroic deed, and with this army!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१९−(हिरण्यगर्भः) अ० ४।२।७। हर्यतेः कन्यन् हिरच्। उ० ४।४४। हर्य गतिकान्त्योः-कन्यन्, हिरादेशः। कमनीयानां तेजसामाधारः। अन्यत् पूर्ववत्.... म० १५ ॥
हिंगलिश (1)
Subject
हिरण्यगर्भ: - गर्भ में स्थापित जैसे मनुष्यों और पशुओं के गर्भ मे पल रहे जीव और पृथ्वी के गर्भ में बहुमूल्य निधियां जैसे स्वर्ण, रत्नादि वस्तुएं
Word Meaning
हे आप्त- प्रजा जनो जो अपवादहीन,अभ्यस्त, तर्क संगत, बुद्धिमान ,सत्याधारित जो ऋषियों द्वारा निर्देषित यज्ञादि कार्य करने की तुम्हारे हृदय में संचार करने वाले तत्वों से प्रेरणा द्वारा हिरण्यगर्भ: - गर्भ में स्थापित जैसे मनुष्यों और पशुओं के गर्भ मे पल रहे जीव और पृथ्वी के गर्भ में बहुमूल्य निधियां जैसे स्वर्ण, रत्नादि वस्तुओं के संरक्षण और भविष्य में उन से समाज निर्माण में उन की उपादेयता के प्रति तुम्हारे शरीर और मन सब साधनों को समर्पित करता हूं | सद्बुद्धि तुम्हारे आचरण को पवित्र करे | उस पवित्र आचरण से अपने आंतरिक शत्रुओं पर विजयी हो कर जो हम से द्वेष करते हैं और हम जिन से द्वेष करते हैं उन पर विजय पाएं | इस वेद ज्ञान पर आधारित कर्मकाण्ड के वज्र द्वारा उन शत्रुओं का वध करें उन का विनाश करें |
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