अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 29
ऋषिः - नारायणः
देवता - ब्रह्मप्रकाशनम्, पुरुषः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मप्रकाशन सूक्त
0
यो वै तां ब्रह्म॑णो॒ वेदा॒मृते॒नावृ॑तां॒ पुर॑म्। तस्मै॒ ब्रह्म॑ च ब्रा॒ह्माश्च॒ चक्षुः॑ प्रा॒णं प्र॒जां द॑दुः ॥
स्वर सहित पद पाठय: । वै । ताम् । ब्रह्म॑ण: । वेद॑ । अ॒मृते॑न । आऽवृ॑ताम् । पुर॑म् । तस्मै॑ । ब्रह्म॑ । च॒ । ब्रा॒ह्मा: । च॒ । चक्षु॑: । प्रा॒णम् । प्र॒ऽजाम् । द॒दु॒: ॥२.२९॥
स्वर रहित मन्त्र
यो वै तां ब्रह्मणो वेदामृतेनावृतां पुरम्। तस्मै ब्रह्म च ब्राह्माश्च चक्षुः प्राणं प्रजां ददुः ॥
स्वर रहित पद पाठय: । वै । ताम् । ब्रह्मण: । वेद । अमृतेन । आऽवृताम् । पुरम् । तस्मै । ब्रह्म । च । ब्राह्मा: । च । चक्षु: । प्राणम् । प्रऽजाम् । ददु: ॥२.२९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
मनुष्यशरीर की महिमा का उपदेश।
पदार्थ
(यः) जो [मनुष्य] (वै) निश्चय करके (ब्रह्मणः) ब्रह्म [परमात्मा] की (अमृतेन) अमरपन [मोक्षसुख] से (आवृताम्) छायी हुई (ताम्) उस (पुरम्) पूर्णता को (वेद) जानता है, (तस्मै) उस [मनुष्य] को (ब्रह्म) ब्रह्म [परमात्मा] (च च) और (ब्राह्माः) ब्रह्मसम्बन्धी बोधों ने (चक्षुः) दृष्टि, (प्राणम्) प्राण [जीवनसामर्थ्य] और (प्रजाम्) प्रजा [मनुष्य आदि] (ददुः) दिये हैं ॥२९॥
भावार्थ
यह गत मन्त्र का उत्तर है। ब्रह्मज्ञानी पुरुष दिव्य दृष्टिवाला और महाबली होकर सब प्रकार से परिपूर्ण होता हुआ आनन्द भोगता है ॥२९॥
टिप्पणी
२९−(यः) मनुष्यः (वै) निश्चयेन (ताम्) (ब्रह्मणः) परमेश्वरस्य (वेद) जानाति (अमृतेन) अमरणेन। मोक्षसुखेन (आवृताम्) आच्छादितम् (पुरम्) म० २८। पूर्तिम् (तस्मै) मनुष्याय (ब्रह्म) परमेश्वरः (च) (ब्राह्माः) सास्य देवता। पा० ७।२।२४। ब्रह्मन्-अण्, टिलोपः। ब्रह्मसम्बन्धिनो बोधाः (च) (चक्षुः) दृष्टिम् (प्राणम्) जीवनसामर्थ्यम् (प्रजाम्) मनुष्यादिरूपाम् (ददुः) दत्तवन्तः ॥
विषय
चक्षु, प्राण, प्रजा
पदार्थ
१. (यः) = जो पुरुष (वै) = निश्चय से (अमृतेन आवृताम्) = नीरोगता से आच्छादित, अर्थात् पूर्ण नौरोग (ताम्) = उस शरीर-नगरी को (ब्रह्मण: वेद) = ब्रह्म का जानता है, अर्थात् जो यह समझ लेता है कि यह शरीर उस प्रभु का है, (तस्मै) = उस ज्ञानी पुरुष के लिए (ब्रह्म च ब्राह्मा: च) = प्रभु व प्रभु से उत्पादित ये सूर्यादि देव (चक्षुः प्राणं प्रजाम्) = चक्षु आदि इन्द्रियशक्तियों, प्राणशक्ति व उत्तम सन्तान को (ददुः) = देते हैं।
भावार्थ
जो इस शरीर को ब्रह्म का समझता है, वह पूर्ण प्रयत्न से इसे स्वस्थ रखने के लिए यनशील होता है। प्रभुकृपा से इसे उत्तम इन्द्रियाँ, प्राणशक्ति व उत्तम प्रजा प्राप्त होती है।
भाषार्थ
(अमृतेन) अमृत द्वारा (आवृताम्) आवृत हुई, घिरी हुई, (ब्रह्मणः) ब्रह्म की (ताम्, पुरम्) उस पूरी को (यः) जो (वेद) जानता है, (तस्मै) उस के लिये (ब्रह्म च ब्राह्माः च) ब्रह्म और ब्रह्मोत्पादित शक्तियां, (चक्षुः) चक्षु आदि इन्द्रियां (प्राणम्) प्राण आदि पांच वायु, (प्रजाम्) तथा उत्तम जन्म (ददुः) देती हैं।
टिप्पणी
[मन्त्र में शरीर को ब्रह्मपुरी कहा है। यह अमृत ब्रह्म द्वारा आवृत है, सर्वव्यापक अमृत-ब्रह्म द्वारा सब ओर घिरी हुई है। "ब्राह्म" हैं ब्रह्मोत्पादित शारीरिक अङ्ग-प्रत्यङ्ग और शारीरिक विविध शक्तियां। जो व्यक्ति अपने आप को अन्दर बाहिर अमृत ब्रह्म द्वारा आवृत हुआ जान लेता है वह पापकर्म में प्रवृत्त नहीं होता और स्वयं भी अमृत होने की ओर पग बढ़ाता है। परिणाम में उस की इन्द्रियां, अन्तर्मुखी होकर उस की प्राण शक्तियों को बढ़ातीं, और उसे नई प्रजाति प्रदान करती हैं, द्विजन्मा रूप में उसे नया आध्यात्मिक जीवन प्रदान करती हैं]।
इंग्लिश (4)
Subject
Kena Suktam
Meaning
Whoever thus knows the City of God wrapped in nectar, ecstasy and immortality, for him Brahma and all things divine yield and award the eye of clairvoyance, pranic energy and noble progeny for continuance.
Translation
Whose knows that supreme Lord’s castle, encompassed with immortality, to him the Lord supreme and devotees of the Lord supreme grant vision, vitality and offsprings. (caksuh, prāņam, prajā).
Translation
For him who knows the fort of Supreme Spirit surrounded with immortality, the Supreme Spirit Himself and the worldly objects created by Him give sight to see life to live and progeny to continue.
Translation
God and His worshippers have bestowed sight, progeny and life on him, who knows this world created by God, as full of extreme joy and felicity.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२९−(यः) मनुष्यः (वै) निश्चयेन (ताम्) (ब्रह्मणः) परमेश्वरस्य (वेद) जानाति (अमृतेन) अमरणेन। मोक्षसुखेन (आवृताम्) आच्छादितम् (पुरम्) म० २८। पूर्तिम् (तस्मै) मनुष्याय (ब्रह्म) परमेश्वरः (च) (ब्राह्माः) सास्य देवता। पा० ७।२।२४। ब्रह्मन्-अण्, टिलोपः। ब्रह्मसम्बन्धिनो बोधाः (च) (चक्षुः) दृष्टिम् (प्राणम्) जीवनसामर्थ्यम् (प्रजाम्) मनुष्यादिरूपाम् (ददुः) दत्तवन्तः ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal