अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 32
ऋषिः - नारायणः
देवता - ब्रह्मप्रकाशनम्, पुरुषः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मप्रकाशन सूक्त
3
तस्मि॑न्हिर॒ण्यये॒ कोशे॒ त्र्य॑रे॒ त्रिप्र॑तिष्ठिते। तस्मि॒न्यद्य॒क्षमा॑त्म॒न्वत्तद्वै ब्र॑ह्म॒विदो॑ विदुः ॥
स्वर सहित पद पाठतस्मि॑न् । हि॒र॒ण्यये॑ । कोशे॑ । त्र्यऽअ॑रे । त्रिऽप्र॑तिस्थिते । तस्मि॑न् । यत् । य॒क्षम् । आ॒त्म॒न्ऽवत् । तत् । वै । ब्र॒ह्म॒ऽविद॑: । वि॒दु॒: ॥२.३२॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्मिन्हिरण्यये कोशे त्र्यरे त्रिप्रतिष्ठिते। तस्मिन्यद्यक्षमात्मन्वत्तद्वै ब्रह्मविदो विदुः ॥
स्वर रहित पद पाठतस्मिन् । हिरण्यये । कोशे । त्र्यऽअरे । त्रिऽप्रतिस्थिते । तस्मिन् । यत् । यक्षम् । आत्मन्ऽवत् । तत् । वै । ब्रह्मऽविद: । विदु: ॥२.३२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
मनुष्यशरीर की महिमा का उपदेश।
पदार्थ
(तस्मिन् तस्मिन्) उसी ही (हिरण्यये) अनेक बलों से युक्त, (त्र्यरे) [स्थान, नाम, जन्म इन] तीनों में गतिवाले, (त्रिप्रतिष्ठिते) [कर्म, उपासना ज्ञान इन] तीनों में प्रतिष्ठावाले (कोशे) कोश (भण्डाररूप जीवात्मा) में (यत्) जो (यक्षम्) पूजनीय (आत्मन्वत्) आत्मावाला [महापराक्रमी परब्रह्म] है, (तत् वै) उसको ही (ब्रह्मविदः) ब्रह्मज्ञानी लोग (विदुः) जानते हैं ॥३२॥
भावार्थ
जीवात्मा के बाहिर और भीतर ज्योतिःस्वरूप परब्रह्म है। उस परब्रह्म को वेदवेत्ता योगीजन साक्षात् करते हैं ॥३२॥
टिप्पणी
३२−(तस्मिन्) हिरण्यये। बलयुक्ते (कोशे) (त्र्यरे) त्रयाणां स्थाननामजन्मनाम् अरो गतिर्यस्मिन् तस्मिन् (त्रिप्रतिष्ठिते) त्रयाणां कर्मोपासनाज्ञानानां प्रतिष्ठायुक्ते (तस्मिन्) (यत्) (यक्षम्) पूजनीयम् (आत्मन्वत्) अ० ४।१०।७। आत्मबलवत्। महापराक्रमयुक्तं परब्रह्म (तत्) ब्रह्म (वै) (ब्रह्मविदः) ब्रह्मज्ञानिनः (विदुः) जानन्ति ॥
विषय
'त्र्यरे त्रिप्रतिष्ठित कोश'
पदार्थ
१.(तस्मिन्) = उस (त्र्यरे) = सत्त्व, रजस्व तमस् रूप तीन अरोंवाले, (त्रिप्रतिष्ठिते) = 'ज्ञान, कर्म, उपासना' में प्रतिष्ठित हिरण्यये कोशे ज्योतिर्मयकोश में (तस्मिन्) = उसी मनोमयकोश में (यत्) = जो (आत्मन्यत्) = सदा जीवित [animate, alive] (यक्षम्) = पूजनीय सत्ता है, (तत्) = उस सत्ता को (वै) = निश्चय से (ब्रह्मविद:) = ज्ञानी पुरुष ही (विदुः) = जानते हैं।
भावार्थ
प्रभु का निवास इस मनोमयकोश में है। तम व रज से ऊपर उठकर जब यहाँ सत्त्व की प्रधानता होती है, तब उस सदा चैतन्य, पूजनीय सत्ता का यहाँ दर्शन होता है। एक ज्ञानीपुरुष इसे 'ज्ञान, कर्म व उपासना' में प्रतिष्ठित करता है और इसमें प्रभु को देखने का प्रयल करता है।
भाषार्थ
(तस्मिन् हिरण्यये) उस सुवर्ण सदृश चमकीले, (त्र्यरे) तीन अरों वालें, (त्रिप्रतिष्ठिते) तथा तीन बन्धनों द्वारा स्थित कोश में अर्थात् (तस्मिन्) ऐसे उस (कोशे) कोश में (यक्षम्)१ पूज्य ब्रह्म (आत्मन्वत्) जोकि जीवात्मा वाला है, जीवात्मा का साथी है (तद्) उसे (वै) निश्चय से (ब्रह्मविदः) ब्रह्मवेत्ता (विदुः) जानते हैं।
टिप्पणी
[हिरण्ययकोश है हृदय (मन्त्र ३१)। त्र्यरे=अरे [Spokes] चक्र के घटकावयव होते हैं जो कि चक्र की नाभि तथा परिधि के बीच लगे रहते हैं। इसी प्रकार हृदय के घटक तीन गुण, अर्थात् सत्त्वगुण, रजोगुण, तथा तमोगुण, तीन अरों द्वारा अभिप्रेत प्रतीत होते हैं। हृदय भावनाओं का स्थान माना जाता है (मन्त्र २६)। भावनाएं भी तीन प्रकार की होती हैं, सात्त्विक, राजसिक तथा तामसिक। सुप्रतिष्ठिते= हृदय, शरीर में सुदृढरूप में प्रतिष्ठित है, स्थित है। यह तीन प्रकार के बन्धनों द्वारा सुदृढरूप में स्थित है। इस के तीन प्रकार के बन्धन हैं। एक प्रकार का बन्धन हृदय को फेफड़ों के साथ जोड़ता है, फैफड़ों में गन्दा-रक्त शुद्ध होता है। दूसरे प्रकार के बन्धन में वे नाड़ियां हैं जो कि शरीर के गन्दे-रक्त को हृदय में लाती हैं। तथा तीसरे प्रकार के बन्धन में वे नाड़ियां हैं, जिन द्वारा शुद्ध-रक्त शरीर में प्रवाहित होता है। गन्दा-रक्त१ नील वर्ण का या काला होता है, और शुद्ध-रक्त२ लाल वर्ण का होता है। इस प्रकार त्रिविध बन्धनों द्वारा हृदय बन्धा हुआ है। यक्षम्=यक्ष पूजायाम् (चुरादिः) ब्रह्म पूजनीय है, तभी इन्हें "सुयुजा सखायौ" कहा हैं (अथर्व० ९।१४।२०)। अर्थात् साथ रहने वाले दो सखा, मित्र। हृदय सुवर्णसदृश चमकीला है [हिरण्यये कोशे, मन्त्र ३२], सम्भवतः लालरक्त के कारण या ब्राह्मप्रकाश के कारण, अथवा "विशोका वा ज्योतिष्मती" (योग १।३६) के कारण]। [१. केनोपनिषद् में "यक्ष" द्वारा ब्रह्म का वर्णन हुआ है (१५।२)। २. गन्दा-रक्त दाएं ओर के दो प्रकोष्ठकों में होता है, और शुद्ध-रक्त बाएं ओर के दो प्रकोष्ठकों में। हृदय के चार प्रकोष्ठक होते हैं।]
इंग्लिश (4)
Subject
Kena Suktam
Meaning
In that golden cave of light, three spoked like a wheel and three pillared like a dome, there is a Yaksha, mysterious Divine Being, with the soul which they alone know who know the Brahma.
Translation
Within that golden chest, having three spokes and three supports, (within that) there is a-mighty being as its soul; surely they who have realized the Lord supreme, know him.
Translation
The learned men knowing the Supreme Spirit realize that Animated Being who dwells in that golden treasure-chest that has three spokes and three supports.
Translation
Men deep in lore of Brahma know that Adorable God, Who dwells in the multi-powered soul that hath three spokes and three supports.
Footnote
Three spokes:स्थान (capacity) नाम (Foken, sign) जन्म(Existence). Three supports: कर्म (Action) उपासना (Contemplation) ज्ञान (Knowledge)
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३२−(तस्मिन्) हिरण्यये। बलयुक्ते (कोशे) (त्र्यरे) त्रयाणां स्थाननामजन्मनाम् अरो गतिर्यस्मिन् तस्मिन् (त्रिप्रतिष्ठिते) त्रयाणां कर्मोपासनाज्ञानानां प्रतिष्ठायुक्ते (तस्मिन्) (यत्) (यक्षम्) पूजनीयम् (आत्मन्वत्) अ० ४।१०।७। आत्मबलवत्। महापराक्रमयुक्तं परब्रह्म (तत्) ब्रह्म (वै) (ब्रह्मविदः) ब्रह्मज्ञानिनः (विदुः) जानन्ति ॥
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